काला रजिस्टर – रवीन्द्र कालिया

किताब को 16th May 2019 से 31st May 2019  के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 103
प्रकाशक : साहित्य भंडार
मूल्य : 50 रूपये
आईएसबीएन: 9788177794182

काला रजिस्टर - रवींद्र कालिया
काला रजिस्टर – रवींद्र कालिया 

काला रजिस्टर साहित्य भंडार से प्रकाशित रवींद्र कालिया जी की कहानियों का संग्रह है। यह पुस्तक मैंने नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला 2018 में खरीदी थी।  इससे पहले मैंने रविन्द्र कालिया जी का लिखा एक उपन्यास ही पढ़ा था। यह संग्रह देखा और इसकी कीमत वाजिब लगी तो ले लिया।

इसमें कालिया जी की निम्न आठ कहानियों को संग्रहित किया गया है:

 1.  काला रजिस्टर 
पहला वाक्य:
भैंगे की आगे वाली सीट पर एक मोटा उप बैठता था।

वह एक पत्रिका का ऑफिस था जहाँ के कर्मचारी केवल दो चीजों से डरते थे : एक तो केबिन में विराजमान व्यक्ति से और दूसरा काला रजिस्टर से। आखिर क्या था ये काला रजिस्टर और क्यों वह दफ्तर में काम करने वालों के लिए भय का पर्याय बना हुआ था।

काला रजिस्टर मुख्यतः एक पत्रिका के एक दिन का ब्यौरा है। पत्रिका में काम करने वाले लोग इसके किरदार हैं। लेखक किसी का नाम नहीं लेते हैं लेकिन उन्हें उनकी शारीरिक कमियों के हिसाब से पाठक के सामने रखते हैं। एक भैंगा है, दो मोटे हैं, एक क्रांतिकारी है,एक मंझला है, एक छोटा है। हाँ, एक लड़की है छाया जी और कहानी में एक वही है जिसको कोई नाम दिया गया है। ऑफिस में एक रजिस्टर है जिस पर उनके मुख्य सम्पादक जिन्हें केबिन के नाम से जाना जाता है के आदेश आते हैं और यह काला रजिस्टर सभी के लिए डर का विषय है। इस पर आने वाले निर्देश उनकी ज़िन्दगी में और ज्यादा मुश्किलें पैदा कर देते हैं और हर किसी की उम्मीद यही रहती है कि अन्दर से जब यह रजिस्टर आये तो उनके पास आकर न रुके।

ऑफिस की राजनीति, काम करने वाले किस तरह मजबूरी में जी हुजूरी करते हैं और किस तरह अवसाद में घिरते चले जाते हैं, यह सब इस कहानी में आपको देखने को मिलता है। आदमी का शोषण इधर होता है, वह इस शोषण से उकता कर नौकरी छोड़ने की बात भी दस बार सोचता है लेकिन फिर उसकी मजबूरी उसे ऐसा नहीं करने देती है और वो रोज अपमान के घूँट पीता चला जाता है। यह चीज ज्यादातर दफ्तरों में होती है और इस स्थिति को बड़ी बखूबी कालिया जी ने दर्शाया है।

2. मौत
पहला वाक्य:
कुछ देर पहले वह अपना नया सूट पहने इसी कमरे में चाय का प्याला थामे घूम रहा था।

एक दोस्त की मौत की खबर पाकर जब कथावाचक अपने दोस्त के घर गया तो माहौल गमगीन था। आगे क्या हुआ यही इस कहानी का कथानक बनता है।

कहानी रोचक है।  जिस तरह पत्नी पति के मरने पर शोक तो मनाती है लेकिन उसकी चिंता सम्पत्ति की तरफ भी होती है वो आम मातम वाले घर का चित्रण करता है। किसी के मरने के बाद उस घर में कई तरह की राजनीति होने लगती है। यह सब उसी दिन से शुरू हो जाता है जब कि लोग मातम मनाने आये होते हैं। कहानी के माध्यम से लेखक शायद वही दिखलाने की कोशिश करते हैं।

कहानी में जिसकी मौत होती है उसका किरदार भी रोचक है। आदमी खुद को कितना भी लम्पट हो लेकिन जब अपनी पत्नी की बारी आती है तो वो यही उम्मीद करता है कि वो उससे वफा रखे।  यही चीज इधर भी देखने को मिलती है।

कहानी का अंत मुझे थोड़ा अजीब लगा। क्या जो हुआ वो कथावाचक और दोस्त की पत्नी के मन की ग्लानि थी या वो सब असल में घटित हुआ था? यह मैं नहीं समझ पाया।

अगर आपको अंत समझ आया हो तो मुझे जरूर बताइयेगा।

3. तफ़रीह 
पहला वाक्य:
भीड़ में अपनी गर्भवती पत्नी को पहचानने में मद्दी को देर न लगी।

मद्दी का आज अपनी पत्नी के साथ घूमने का मन था। कभी कभी ही उसे ऐसा मौक़ा मिलता था। उसकी नौकरी भी नई नई लगी थी इस कारण नये नये विवाह के होते हुए भी वो अपनी पत्नी को उतना वक्त नहीं दे पाता था। परन्तु आज उसे तफरीह करनी थी और यही सोचकर वो अपने दफ्तर से निकला था।
आगे क्या हुआ वो इस कहानी को पढ़कर ही आप जान पायेंगे।

मैंने अपने जीवन के तीन साल मुंबई में बिताएं हैं। वहाँ जो चीज सबसे पहले मुझे खटकी थी वो थी उधर की भीड़(ये अलग बात है कि मैं भी उस भीड़ को बढ़ाने में सहायक था)। उधर ज्यादातर लोग क्योंकि लोकल से सफर करते हैं तो यह भीड़ बाकी शहरों के हिसाब से ज्यादा महसूस होती है।  इस कहानी में इस भीड़ को सही तरह से चित्रित किया है। ऑफिस से लौटने तक मैंने इतने आदमी देख लिए होते थे कि मैं और आदमी नहीं देखना चाहता था। इस कहानी में मद्दी की बीवी को कैसा लगता होगा यह मैं आसानी से समझ सकता हूँ। मेरी हालत उसी की तरह हुआ करती थी।

कहानी में मद्दी और उसकी बीवी किसी और के घर में रहते हैं। पहले झोपड़पट्टी वालों को घर आल्लोट किये जाते थे और लोग उसमें किरायेदार रखकर दूसरी झोपड़पट्टी बना लेते थे। यह सब मैंने फिल्मो में ही देखा है। जब मैं मुंबई में था तो मुझे इसका सामना नहीं करना पड़ा था। लेकिन मैं समझ सकता हूँ कि ऐसे रहना कितना दूभर होता रहा होगा। एक तो आप मुँह माँगा किराया भी देते हैं और दूसरा डर डर कर भी रहते हैं। मकान मालिक आपका शोषण करने के लिए स्वतंत्र रहता है। और आप शोषित होने के लिए मजबूर रहते हैं।

कहानी में मद्दी की दफ्तर की ज़िन्दगी का भी हल्का सा चित्रण है। घर में मौजूद स्थिति के कारण वह काम में ध्यान नहीं लगा पाता है और इस कारण उसे डांट सुननी पड़ती है। पहले जब वो अकेला था तो इस्तीफा देने की बात करता था लेकिन अब चूँकि उसका परिवार बढ़ने वाला है तो वह यह नहीं कर सकता है। उसकी यह मजबूरी दर्शाते हुए शहरी जीवन के दबावों को दर्शाया गया है।

4. बाँकेलाल
पहला वाक्य:
‘दशहरे के दिन थे, मैंने बाँकेलाल को बढ़िया अंग्रेजी शराब एक कुली और दो दर्जन फ़ार्म के अण्डे थमाये और प्रेस को बाहर से ताला लगाकर घर लौट आया’

पन्नालाल एक छापे खाने का मालिक था। वह अपने जान पहचान वाले व्यक्ति की लड़के की शादी में गया था जहाँ प्रेस व्यवसाय से जुड़े कई और लोग भी आये हुए थे।  इन सभी लोगों की महफ़िल जमी हुई थी और इस महफ़िल में बाँकेलाल की चर्चा हो रही थी।

बाँकेलाल छापेखाने में काम करने वाला व्यक्ति था और पूरे शहर में ऐसा कोई छापाखाना नहीं था जहाँ उसने काम नहीं किया हो। ये सभी लोग बाँकेलाल से जुड़े अपने किस्से सुना रहे थे। फिलहाल, बाँकेलाल पन्नालाल जी के यहाँ कार्यरत था और बाँकेलाल के किस्से सुन सुनकर उनकी साँस सूखती जा रही थी।

आखिर कौन था ये बाँकेलाल? ऐसा उसने क्या किया था कि सभी उसकी चर्चा कर रहे थे?

प्रिंटिंग प्रेस या छपाई के व्यापार से मेरी ज्यादा वाकिफियत नहीं है लेकिन यह कहानी इसके इर्द गिर्द होते हुए भी मालिक और मजदूर के रिश्ते को दर्शाती है।  मालिक हमेशा यही सोचता है कि वो अपने मजदूर को ज्यादा पैसे दे रहा है, फिर भले ही वह उसकी तनख्वाह के बराबर के पैसे एक वक्त के खाने में लुटा देता हो। इस कहानी के पन्नू बाबू भी ऐसे ही मालिक हैं। उन्हें लगता है कि सब उनके पीछे पड़े हैं और उनका शोषण कर रहे हैं। वो अपने यहाँ काम करने वाले व्यक्ति के पैसे वक्त पर नहीं देते हैं और जब वो माँगने आता है तो बहाने बनाने लगते हैं। 
आज भी ज्यादा कुछ बदला नहीं है। एक मालिक का स्वप्न कैसा होता है यह इस पंक्ति में लेखक ने बड़े अच्छे तरीके से बताया है:
यही सब सोचते सोचते वह एक नई दुनिया में प्रवेश कर जाता। इस दुनिया में उसका पूर्ण आधिपत्य था।  हर आदमी उसे कागज उधार देने को तैयार था, स्याही के ड्रम थामे हुए लोग उसके पीछे पीछे घूम रहे थे। इस दुनिया की एक नई रवायत थी। कर्मचारी काम भी करते थे और मालिक को वेतन भी देते थे।
(पृष्ठ 54)



कहानी का अंत मार्मिक है। कानून कैसे रसूख वालों का गुलाम है और अपने हक के लिए आवाज़ उठाने वाले को कैसे अपराधी बना दिया जाता है उसको बखूबी दर्शाया है। एक रोचक, पठनीय और विचारोतेज्जक कहानी।


5. नया कुरता 
पहला वाक्य:
उसका नाम साहिल था।


साहिल को जानने वाले परेशान थे। वह अपनी दुकान में नहीं था और अब मिल नहीं रहा था। कोई कहता वो शहर छोड़कर जा चुका है, तो कोई कहता है उसने आत्महत्या कर ली है। सच क्या था, यह किसी को पता नहीं था। बस पता था तो यह कि यह सब एक नये कुरते के वजह से हुआ था।

आखिर क्या थी यह नये कुरते की कहानी? कौन था साहिल और वह किधर चले गया था?

नया कुरता एक पठनीय कहानी है। साहिल का किरदार रोचक है। वह आवारा है और गलतियाँ करता है लेकिन लेखक उसके प्रति सहानुभूति जगाने में कामयाब होते हैं। कहानी का अंत मुझे अच्छा लगा। एक सकारात्मक रूप से कहानी का अंत किया गया है। साहिल को हार मानता नहीं दर्शाया गया है जो कि मुझे अच्छा लगा।

6. लाल तिकोन 
पहला वाक्य:
दस वर्षों के वैवाहिक जीवन में हमने तीन लड़के पैदा किए थे।


कथा वाचक के तीन बच्चे हैं और इन तीन बच्चों को सम्भालते हुए उन पर क्या बीतती है यह आप कहानी पढ़कर जान पाते हैं।

कहानी रोचक है। जब मैंने पढ़ना शुरू की थी तो इसका नाम मुझे अजीब लगा था। इसके नाम के पीछे का कारण मुझे समझ नहीं आया था। फेसबुक पर एक पोस्ट डाली तो पता चला कि लाल तिकोन कभी परिवार नियोजन का निशान हुआ करता था। अर्थ पता चलने पर मुझे यह तो ज्ञात हो ही गया कि नाम इस कहानी पर सटीक बैठता है।

नये नये विवाहित लोगों को यह कहानी पढ़ने को दी जाये तो वो जरूर फॅमिली प्लानिंग के विषय में गम्भीरता से सोचेंगे।

एक रोचक कहानी।



7. पनाह 
पहला वाक्य:
मुझे देखकर घबड़ाइए नहीं।

शहर में दंगों का माहौल है। ऐसे में प्यास से तड़पता एक व्यक्ति एक घर में पानी और पनाह की तलाश में दाखिल होता है। आगे जो होता है यह कहानी का कथानक बनता है।

पनाह कहानी में पनाह माँगने वाला पाठक से बात करता प्रतीत होता है। वह एक मुसलमान है जिसने की थोड़ी देर के लिए पनाह माँगी है। इस दौरान वह अपने जीवन की परेशानियाँ, अपने फलसफे इत्यादि बताता चलता है। दंगों से जो एक आम आदमी को तकलीफ होती है वह इसका चित्रण करता है। फिर एक मुसलमान के लिए तो यह तकलीफ अलग होती ही है। अक्सर उनकी देशभक्ति पर सवाल उठते रहते हैं और उन्हें सबूत भी देना पड़ता रहता है। यह भी इस कहानी में दिखता है।

बहरहाल एक अच्छी कहानी जो कि सोचने पर मजबूर करती है कि खुद को सभ्य कहने वाले हम इनसान न जाने क्यों इतने असभ्य बन जाते हैं। ये हमारा लालच या स्वार्थ ही है शायद।

8. रूप की रानी चोरों का राजा 
पहला वाक्य:
यह कहानी मैं दोबारा लिख रहा हूँ।

ऐडवोकेट दिवाकर अपने घर गया हुआ था। उसके पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था और वह उन्हें देखने दिल्ली गया था। उसके घर में उसकी पत्नी संध्या और उसके दो बच्चे ही मौजूद थे। तभी उनके घर में चोरी हो गई। इस चोरी के बाद क्या हुआ, यही इस कहानी में दर्शाया गया है।

कहानी का स्ट्रक्चर मुझे पसंद आया। कहानी में लेखक सीधा पाठक से रूबरू भी होता है और बीच बीच में अपनी बातें भी रखता है। उनकी यह बातें काफी बार व्यंग्यात्मक भी होती हैं। उदाहरण के लिए:

दरअसल टीवी ने मेरी आदत खराब कर दी है, कोई भी कार्यक्रम निर्बाध रूप से देखने का अभ्यास नहीं रहा, आप मन लगा कर कोई धारावाहिक देख रहे हैं कि बीच में अचानक विज्ञापन अथवा प्रोनो थोप दिये जाते हैं। दर्शक अब इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। दर्शकों को राहत देने के लिए फिल्म में ‘इंटरवल’ की व्यवस्था रहती है। उपन्यास को कई अध्याय में विभाजित कर दिया जाता है, मगर कहानी एक ऐसी विधा है कि एक बार शुरू हुई तो अंत तक पहुँच कर ही दम लेती है।… आप मेरी कहानी पढ़ने जा रहे हैं, मैं आप की सुविधा-असुविधा का ध्यान रखूँगा, आप चाहेंगे तो बीच में चाय नाश्ते का भी प्रबंध करता रहूँगा।
(पृष्ठ 86)

कहानी मूलतः चोरी के बाद जो घटना घटित होती है उसके चारो ओर लिखी है। किस तरह पुलिस काम करती है, किस तरह बिना सोर्स के आप पुलिस से मदद की उम्मीद नहीं रख सकते है, फिर उनकी चिरोरी करनी होती है,किस तरह जब पुलिस अपना काम करती है नेता लोग आकर उसका राजनीतिकरण करने लगते हैं। सब अपने स्वार्थ साधने में लग जाते हैं और मूल समस्या से उनका कोई लेना देना नहीं होता है। इधर भी यही होता है कि जो बात चोरी से शुरू होती है वो अंत में जाकर जातीय राजनीति में बदल जाती है।

कहानी मुझे पसंद आई। रूप की रानी तो इसमें संध्या थी लेकिन चोरो का राजा कौन था इस मामले में मैं थोड़ा कंफ्यूज हूँ। अगर आपको पता हो तो बताईयेगा।

रविन्द्र कालिया जी का यह संग्रह मुझे पसंद आया। संग्रह में मौजूद कहानियाँ आधुनिक जीवन के कई पहलुओं को दर्शाती हैं। शहरी जीवन की भाग दौड़, ऑफिस की राजनीति, समाज में फैला सम्प्रदायिक द्वेष, सरकारी अमलों का काम करने का तरीका और ऐसे अन्य कई पहलुओं को यह छूती हैं। सभी कहानियाँ पठनीय हैं। कहानियों में उनके शीर्षक, कहानी में घटने वाली कुछ घटनाओं के कारण मुझे थोड़ी उलझन भी हुई लेकिन एक संग्रह के तौर पर यह किताब मुझे पसंद आई।

रेटिंग: 3.5/5

अगर आपने इस किताब को पढ़ा है तो आपको यह कैसी लगी? मुझे अपनी राय से कमेन्ट के माध्यम से जरूर बताईयेगा। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा है तो साहित्य भंडार से इसे आप मँगवा सकते हैं।

रवीन्द्र कालिया जी की लिखी कुछ पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं। उनके विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
रवीन्द्र कालिया

हिन्दी साहित्य की दूसरी पुस्तकें जो मैंने पढ़ी हैं उनके विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
हिन्दी साहित्य

कहानी  संग्रह अक्सर मैं अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में पढ़ता रहता हूँ। उनके विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
कहानी संग्रह

©विकास नैनवाल ‘अंजान’


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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6 Comments on “काला रजिस्टर – रवीन्द्र कालिया”

  1. कोसिस करूँगा इन कहानियो को पढ़ने का मौका मिले क्योंकि सभी के रिव्यू अच्छे लगे

    1. जी विश्व पुस्तक मेले में जाईयेगा, उधर मिल जायेंगी। पढ़ने के पश्चात अपने विचारों से जरूर अवगत करवाईयेगा।

    2. सुन्दर समीक्षा … किताब मिली तो जरूर पढ़ना चाहूंगी ।

    3. जी जरूर पढ़ियेगा, मैम। साहित्य भण्डार की किताबें बुक फेयर में तो मिलती हैं। काफी किताबें ऑनलाइन नहीं मिलती हैं और यही मुझे इनके साथ दिक्कत लगती है। वैसे रवीन्द्र कालिया जी की ग़ालिब छूटी शराब नाम की पुस्तक, जो कि संस्मरण हैं, को भी मौका लगते ही पढ़िएगा। मैंने इसकी काफी तारीफ़ सुनी है।

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