किताब 19 जून 2020 से 21 जून के बीच को पढ़ी गयी
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 96
प्रकाशन: साहित्य भण्डार
आईएसबीएन: 9788177795806
दूसरी जन्नत – नासिरा शर्मा |
पहला वाक्य:
डॉ ज़फर अब्बास की कोठी का ड्राइंगरूम मर्द औरतों के कहकहों से गूँज रहा था।
‘दूसरी जन्नत’ नासिरा शर्मा जी द्वारा लिखा गया लघु-उपन्यास है जो कि साहित्य भण्डार से 2017 में प्रकाशित हुआ था। नासिरा शर्मा जी को मैं बहुत समय से पढ़ना चाह था रहा था और इसलिए जब मुझे दिल्ली पुस्तक मेले में इनका लघु-उपन्यास दिखाई दिया तो मैंने ले लिया। यह तकरीबन दो साल पुरानी बात है और अब जाकर इस उपन्यास को पढ़े जाने का नम्बर लगा है।
अगर इस उपन्यास की कथानक की बात करूँ तो उपन्यास का कथानक को दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है।
शुरुआत के छियासठ पृष्ठों में केंद्र डॉक्टर ज़फर अब्बास का परिवार है जो कि अपने छोटे पोते शहाब के लिए लड़की तलाश रहे होते हैं और आखिर में रुखसाना से शहाब का विवाह होता है। इस दौरान लोग ज़फ्फर अब्बास के परिवार से मिलते हैं। उनके आपसी समीकरणों को जानते समझते हैं और यह भी देखते हैं कि कैसे कई पूर्वाग्रह जो हमने मुस्लिम परिवारों को लेकर पाल रखे हैं वो सभी पर लागू नहीं होते हैं। यह भी दिखता है पूर्वाग्रह केवल दूसरे धर्मों के लोगों के अंदर ही नहीं बल्कि खुद मुसलमानों में भी काफी हैं। सम्प्रदायिकता कैसे हर तरह के मुस्लिमो को प्रभावित करती है यह भी दर्शाया गया है।
“आप सब मेरी जबान पकड़ लेना अगर मैं कुछ गलत कहूँ…बैठे बिठाए अब बूचड़खाने के शहर होल्डर बन बैठे, कुछ दिनों में कस्साब कहलायेंगे…छूट मिली सरकारी अफसरों से, खेतों को तहस-नहस करने वाली नील गायों को मारने लगे या मरवाने लगे…”
“चचीजान! नीला कहें सिर्फ,” पास बैठी बड़ी पोत बहू शहनाज की खाला अमतुल फुसफुसा कर बोल पड़ीं।
“जो नाम रिवाज में है वही तो कहूँगी बन्नो, इशारों में सबका नाम बदल नीला, पीला सफेद कर दूँ?” कुछ इस अंदाज में शहला बानों बोलीं की साड़ी महफ़िल खिलखिला कर हँस पड़ी।
(पृष्ठ 6)
“समधन आप तो चखें, आप तो सायकी नहीं है न हमारे दूल्हा भाई की तरह।”
“न न भाई साहब!” राना की माँ ने सहम कर प्लेट अपनी तरफ खींचते हुए कहा। “मुझे बख्शें।”
“अजीब मुसलमान हैं आप दोनों, खुदा की कसम।”
“प्रोफेसर साहब!! किस रिसर्च से आपको पता चला है कि मुसलमान होने का मतलब सिर्फ गोश्त खाने वाला होता है?” असगर फूफा इतना कह जोर से हँस पड़े तो मुख्तार अब्बास कुछ झेंप से गये।
(पृष्ठ 10)
खुदा ने इज्जत, शोहरत, इल्म और दौलत दी थी। पूरा खानदान जहाँ भी रचा बसा उसने अपनी विषय में नाम किया और समाज को जितना दे सकता था वह दिया।
ऐसे लोगों का जिक्र अखबार और मीडिया नहीं करते उनके पन्ने और कार्यक्रम मुसलमान आतंकवादियों, स्मगलरों और शरियत के नाम पर लड़ाई-दंगे, बहस-मुबाहसे से भरने और दिखाने में गुजर जाते हैं। पूरी कौम पिछली बेंच पर बैठी नजर आती है। हर दाढ़ी वाला मुसलमान, पाकिस्तानी जासूस लगता है।
(पृष्ठं 25)
इसलिए जब जफर अब्बास के छोटे दामाद का पूरा घर फसाद में जल कर राख हुआ तो सदमे में दिल जरूर बैठा मगर प्रतिशोध में कोई पड़ोस का घर जालने नहीं दौड़ पड़ा।….दामाद असगर की फैक्ट्री में लगी आग में ज्यादातर गैर मुस्लिम मजदूर जख्मी हुए थे और मरने वालों में भी उनकी तादाद ज्यादा थी।…
(पृष्ठ 24)
“झूला पड़ा कदम की डारी
झूला झूलवें कृष्ण मुरारी”
अभी दूसरा बंद खत्म भी नहीं हो पाया था कि राना ने सीने पर हाथ रखकर कहा- “हाय अल्लाह!”
सुर रुक गये और सबने राना की तरफ देखा जिसके मुँह पर हैरत के भाव नाच रहे थे। बड़ी बड़ी आँखें कुछ और फ़ैल गई थीं।
“क्या हुआ?” पास बैठी शहनाज ने देवरानी से पूछा।
“कुछ नहीं…कुछ नहीं!” राना ने घबरा कर कहा।
(पृष्ठ 27)
इतना कहकर फरीद ने कॉफ़ी का कड़वा घूँट भरा फिर कह उठा, “हाँ तो बताना यह है कि आर्ट का कोई धर्म विशेष नहीं होता। वह सिर्फ कला होती है, इनसानी जज्बे की तर्जुमानी होती है। दादी को संगीत के उस्ताद में राग, रागिनी, सुर, ताल बताया। उसमें कृष्ण राधा आयें या ऋतु सब एक हैं। कितने हिन्दू हैं जो मोहर्रम के नोहे लिखते हैं, रोजे रखते हैं। यह इनसानी विरासत है हम मिसाले देते हुए कैकयी काण्ड, कोप भवन, रोज की बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं।..”
(पृष्ठ 34)
कई बार शादी को लेकर जो डर होते हैं वो लड़कियों के अलावा लड़कों के अंदर भी मौजूद होते हैं। अक्सर इन डरों के ऊपर कोई बात नहीं करता है लेकिन लेखिका ने शहाब के माध्यम से इन डरो पर भी बात की है जो कि मुझे अच्छा लगा। उन्होंने लड़कियों का ही पक्ष नहीं रखा है बल्कि लड़कों का भी पक्ष रखा है।
“भाई मजाक नहीं…! सब शक्ल सूरत और खानदान देख रहे हैं कोई नहीं कहता कि लड़की के मिजाज और आदतों पर ध्यान दिया जाए।” शहाब ने अपने बालों में उँगलियाँ फँसाई।
“अब इलास्टिक की खूबी जैसे किरदार वाली लड़की की शक्ल देखकर पहचानना मुश्किल होता है। रिश्तों के बाद इनसान को बदलते देर नहीं लगती। तुम्हारी हँसमुख और फरमाबरदार भोली भाली भाभी ने शुरू-शुरू में कितनी बार अकेले में लाल नाखूनों से मुझे डराया था,यह सिर्फ अल्लाह जानता है या फिर मैं।”
“एक बार झपटा भी मारा था।” शहनाज खिलखिला पड़ी। “मैं वुमनलिब पर यकीन रखती थी। लेकिन खरोचों पर डेटोल भी मई ही लगाती थी।”
(पृष्ठ 13)
“मैं जोरू का गुलाम बनने से रहा… अम्मी से कहता हूँ जाकर, मुझे शादी नहीं करनी है। दोस्तों की कहानी सुनकर रूह काँप जाती है। तलाक, चाइल्ड कस्टडी यह सब मेरे बस की बात नहीं है,” शहाब बैचैन होकर बोला।
(पृष्ठ 14)
उस रात भाइयों को नींद आई या नहीं मगर शहाब की नींद उड़ चुकी थी। उसने कहीं पढ़ा था कि हर खानदान अपनी ऊँचाई पर जाकर नीचे गिरता जरूर है और हर गिरा इनसान जमीन से उठकर खानदान को अपनी मेहनत और कमाए धन से एक मुकाम तक पहुँचाता है या तो वह सब उसी के साथ चला जाता है या फिर तीन चार पीढ़ियों तक यह शान शौकत बनी रहती ह फिर मिटटी में मिल जाता है। यह डर उसे अपनी शादी से जुड़ा महसूस होता और लगता कि घर का सुकून छिन जाएगा। भाइयों ने उसका डर मजाक में उड़ा दिया मगर वह इस भय से निकल नहीं पा रहा है। …. (पृष्ठ 16)
इसी परिवार के माध्यम से लेखिका ने यह भी दर्शाया है कि ऐसे समय में जब लोग एकल परिवारों को तरजीह दे रहे हैं और संयुक्त परिवार में रहना उन्हें अपनी आज़ादी का हनन लगता है, ऐसे में अगर अलग अलग पीढ़ियाँ आपसी सामंजस्य बनाकर चले तो संयुक्त परिवार में भी रहा जाता है।
नई पीढ़ी ने बिना किसी विद्रोह और बदतमीजी के जिदंगी को दो हिस्सों में बाँटकर जीने में ही समझदारी समझी। उनकी पीढ़ी के अक्सर लोग इस समझौते को अपनी शान के खिलाफ समझते थे। माँ-बाप से अलग रहना, आधुनिक तौर-तरीकों से अपनी मर्जी से साँस लेना अपना अधिकार समझते और नाना- नानी , दादा-दादी को माँ- बाप की जिम्मेदारी समझते। (पृष्ठ 12)
फरीद की बातें बीच में काटकर राना बोल उठी- “भाई ठीक कह रहे हैं। जगह तो हमें बनानी होती है क्योंकि हम नये घर रहने आये हैं तो भी नये घर में वेलकम न हो तो फिर बहु का जीना दूभर हो जाता। शादी के बाद सबको सब्र और एहतियात बरतनी पड़ती है।…” (पृष्ठ 13)
इसी हिस्से में हम कमरून और सलीम का प्रसंग देखते हैं जो कि समाज में व्याप्त क्लास डिवाइड को दर्शाता है। हम ऊपर से जितने भी आधुनिक बने लेकिन अंदर मौजूद जातिवाद, वर्ग भेद जाने में काफी वक्त लगेगा।
“तारीफ़ करनी चाहिए। इस जमाने में कौन किस को पूछा है और…” सबीहा पहले तो हक्काबक्का सी रह गयी फिर अपने को संभाल कर बोल उठी। “यह शादी तो नामुमकिन है बहन!”
“वैसे लड़की हर लिहाज से हीरा है।”जीनतहारा ने बात सम्भाली।
“बात सिर्फ लड़की की नहीं है… कमरून की माँ की भी है जो अभी भी खिलाई का फर्ज निभा रही हैं।”
“वह तो है।” जीनतआरा ने गर्दन हिलाई।
“जमाना बदला है। इन बातों को हम मानते भी नहीं है मगर जो बात चुभने वाली है वह है लड़की का ससुराल! मेरी बेटी की भी साख उसके ससुराल में कम होंगी और हमारी आँखें भी झुकेंगी खासकर तब जब शहला बेगम अपनी बहु लाने में जिस तरह नुख्ताचीनी कर रही थी वह..” इतना कह सबीहा चुप हो गयी।
(पृष्ठ 58)
किताब के आखिरी तीस पृष्ठों में कहानी के केंद्र में फरहाना और गुलजार नकवी की कहानी आ जाती है। अब्बास परिवार की छोटी बहु डॉक्टर रुखसाना कृत्रिम गर्भधारण करने का प्रोसीजर अपने क्लिनिक में करवाती हैं। उन्होंने डॉक्टरी की यह विधा क्यों चुनी इसमें उनके व्यक्तिगत अनुभव हैं। उन्होंने किसी अपने को इसके चलते दुःख झेलते हुए देखा है। वह ऐसे लोगों को इस कार्य के हेतु खुशियाँ प्रदान करना चाहती हैं जो कि इस ख़ुशी से किसी कमी के चलते महरूम रह गयी हैं। लेकिन गुलजार नकवी और फरहाना का मामले के चलते वह एक ऐसी बहस का हिस्सा बन जाती है जो कि उन्हें धर्म के सामने लाकर खड़ा कर देता है। जब व्यक्ति धर्म के चश्मे से हर तकनीकी विकास को देखता है तो फिर धर्म के हिसाब से उसकी व्याख्या कर उस तकनीक के इस्तेमाल करने में क्या दिक्कत आती हैं यह इस हिस्से का केंद्र बनता है। यह वाला हिस्सा काफी अच्छे प्रश्न समाज के सामने प्रस्तुत करता है। धर्म आदमी को किस कद्र कई बार क्रूर और अंधा कर देता है यह भी इसमें दिखता है।
अगर इन दो हिस्सों को हम देखें तो कहानी के दोनों ही भाग हमे काफी कुछ सोचने को दे जाते हैं परन्तु अगर एक किताब के रूप में देखें तो यह दोनो अलग हिस्से पढ़ते हुए ऐसे लगता है जैसे कि हम दो अलग अलग किताबों को पढ़ रहे हैं जिन्हें जबरदस्ती रुखसाना नाम के तार से जोड़ा गया है। पर चूँकि उपन्यास का शीर्षक दूसरी जन्नत कहानी के दूसरे भाग यानी फरहाना और गुलजार की कहानी से आता है तो ऐसे में कई बार लगता है कि रुखसाना के जफर अब्बास परिवार में आने की बात को कम पृष्ठों में भी निपटाया जा सकता था। उधर जफर परिवार का जो इतिहास दर्शाया गया है उसकी जरूरत नहीं थी। मुख्य फोकस गुलज़ार और फरहाना का जीवन होता,उनका दर्द और तड़प और आख़िर में उनके जीवन में आये बदलाव होते तो बेहतर होता। जफर अब्बास वाली कहानी दूसरी किताब बन सकती थी।
हाँ, फिर भी मैं कहना चाहूँगा कि यह किताब आपको एक बार तो जरूर पढ़नी चाहिए। आपको इसमें काफी कुछ मिलेगा जो कि इस एक छोटी से कमी से काफी ज्यादा है। आप निराश नहीं होंगे। हो सकता है जो चीज मुझे कमी लगी है वो आपको इतनी जरूरी लगे भी न।
कुछ पंक्तियाँ जो मुझे पसंद आई:
अक्सर पानी की ऊपरी सतह पर जो गंदगी तैरती है वह तल की गहराई तक का सच नहीं होती है। वहाँ तो पानी बहता है किसी पारदर्शी द्रव्य की तरह और नीचे की दुनिया में तरह तरह के जीव एक साथ साँस लेते हैं एक दूसरे को जीने का पूरा अधिकार देते हुए। (पृष्ठ 24)
यह इस मुल्क की बदनसीबी है जहाँ अपने लोग अचानक अपनों के खून के प्यासे हो जाते हैं और भूल जाते हैं कि अपना धर्म भाई भी चपेट में आ जाता है। (पृष्ठ 24)
सादगी में भी एक हुस्न होता है। एक खामोश धुन बजती रहती है। (पृष्ठ 40)
वह लड़का है, शायद लड़कों को अपने बचपन का घर छोड़ने के दुख का कोई अनुभव नहीं होता है यहाँ तक कि वह अपनी पत्नी तक की मानसिक स्थिति और संवेदना को समझ नहीं पाते और बात बे बात मायके का ताना, परिवार के किसी भी सदस्य का मज़ाक उड़ाना उन्हें कितना क्रूर बना देता है कि पत्नी के दिल को घायल कर बैठता है। (पृष्ठ 44)
यह दुनिया का दस्तूर है। हर नये रिश्ते के लिए जगह बनानी पड़ती है। यह कुर्बानी देना हर पुराने रिश्ते के लिए जरूरी होता है। अगर रिश्तों की हदें तय न की जातीं तो नए रिश्तों का खपना मोहाल हो जाता। (पृष्ठ 48)
सदा व्यथा या आक्रोश आँखों में पानी नहीं लाता है कभी कभी स्नेह भी उबल कर आँखों से गिरता है। (पृष्ठ 48)
हिंदुस्तानी कुछ ज्यादा ही खानदान और उसके खरा होने का बोझ उठाए चलते हैं वरना तो सब खुदा के बन्दे हैं और तरह-तरह के काम कर रोजी रोटी कमाते हैं। (पृष्ठ 63)
मर्द-औरत का यह रिश्ता अपने में एक सच है मगर जब वह इनसानों की बनाई बंदिशों, नियमों पर खरा नहीं उतरता तो वह हराम और हलाल में बदल जाता है। (पृष्ठ 82)
रेटिंग: 3/5
अगर आपने इस पुस्तक को पढ़ा है तो आपको यह कैसी लगी? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।
किताब के मुख्य किरदार:
डॉक्टर जफ्फर अब्बास – अब्बास खानदान के मुखिया
शहला बानो – डॉक्टर अब्बास की पत्नी
मुख्तार अब्बास – ज्फ्फर अब्बास के लड़के
नूरजहाँ – मुख्तार अब्बास की पत्नी
फरीद – मुख्तार अब्बास के बड़ा लड़के
शहनाज – फरीद की पत्नी
समीर – मुख्तार अब्बास के मंझला लड़के
राना – समीर की पत्नी
शहाब – मुख्तार अब्बास के छोटा लड़के
रौनक जहाँ -राना की माँ
असगर – राना के पिता
फरहाना – राना की बहन
गुलजार – फरहाना का पति
कमरून – कमरून की दादी अब्बास खानदान में दाई थी और अब कमरून इधर ही रहती थी
रुखसाना – डॉक्टर और शहाब की पत्नी
मेजर असलम – रुखसाना के पिता
सबीहा – असलम की पत्नी
सलीम – असलम के बेटे
सूफिया – गुलजार की दूसरी बीवी
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दूसरे लघु-उपन्यास जो मैंने पढ़े हैं:
© विकास नैनवाल ‘अंजान’