पहला वाक्य:
मधु अपने कमरे में अधलेटी सी बैठी थी।
किटी – मधु की बिल्ली
विद्या -मधु की चाची
ईश्वर लाल – मधु का चाचा
रोशन लाल – मधु का दूसरा चाचा
सुनील कुमार चक्रवर्ती – ब्लास्ट का रिपोर्टर
हीरानन्द – ईश्वरालाल का आदमी जिसने सुनील को उस तक पहुँचाना था
काली चरण – मधु का माली
भागी राम – मधु का नौकर
प्रभुदयाल – पुलिस इंस्पेक्टर
श्री प्रकाश – एक व्यक्ति जिससे दस दाल पहले रोशनलाल ने उधार लिया था
देवी चरण – कालीचरण का भाई
जौहरी – यूथ क्लब का सदस्य और रमाकांत का विश्वासपात्र
सुनील सीरीज के इस उपन्यास की बात करूँ तो यह एक रहस्यकथा है। एक फोन कॉल के आने से शुरू हुई यह कथा बाद में इतने रोमांचक मोड़ लेती है कि पाठक उपन्यास के पृष्ठों को पलटता जाता है। दस साल से गायब इनसान यकायक क्यों फोन करके अपने होने का सबूत दे रहा है? उसके वापस लौटने के पीछे क्या कारण है? उसके आने के बाद जो खून हुए हैं वो आखिर क्यों हुए हैं? क्या इन खूनों का और उसके गायब होने का कोई आपसी सम्बन्ध है? आखिर कौन हैं इन सबके पीछे? ऐसे ही कई प्रश्न पाठक के मन में उपन्यास पढ़ते हुए उत्पन्न होते हैं जिनका उत्तर उसे उपन्यास के अंत में जाकर मिलता है।
उपन्यास चूँकि सुनील सीरीज का है तो इसमें रमाकांत भी है। सुनील के उपन्यासों की एक विशेषता सुनील और रमाकांत के बीच की चुहलबाजी भी होती है। यह चुहलबाजी इधर भी देखने को मिलती है और पाठक का मनोरंजन करती है।
उदाहरण के लिए:
“तुम्हारे भी बाँटें?”- पत्ते बाँटने वाले ने सुनील से पूछा।
“नहीं।”- सुनील बोला-“और यह रमाकांत का भी आखिरी गेम है।”
“ओह, नो!” रमाकांत तीव्र विरोधपूर्ण स्वर से बोला।
“ओह, यस।”- सुनील बोला और उसने पूरी शक्ति से रमाकांत की पसलियों में ऊँगली गुबो दी।
“मैं जीत रहा हूँ।”
“ज्यादा खेलोग्गे तो हारने लगोगे।”
“देखूँगा।”
“नहीं देखोगे।”
“सुनील।” – रमाकांत आहत स्वर से बोला-“तुम पिछले जन्म में मेरी बीवी तो नहीं थे। ए डैमड नैगिंग वाइफ।”
“हो सकता है हो सकता है।”- सुनील बोला।
“हो सकता है। हो सकता है।”- रमाकांत मुँह चिढ़ाता हुआ बोला-“ब्लडी। शिट।”
सुनील चुप रहा।
चूँकि मैं नया पाठक हूँ और मैंने सुनील के ज्यादातर नये उपन्यास ही पढ़े हैं तो मैंने वही रमाकांत ज्यादा देखा है जो कि गलत हिन्दी बोलता है। ऐसा इस उपन्यास में देखने को नही मिलता है। वो साफ़ हिन्दी बोल रहा है। यहतेरालीसवाँ उपन्यास है और उपन्यास पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि सबसे पहले रमाकांत ने बिगड़ी हिन्दी बोलनी किस उपन्यास से शुरू की? क्या आपको यह पता है? अगर हाँ, तो नाम जरूर साझा कीजियेगा।
रमाकांत के अलावा सुनील के उपन्यास में प्रभुदयाल का भी काफी बढ़ा रोल रहता है। इस उपन्यास में भी ऐसा ही है। सुनील और प्रभु की बहसबाजी पढ़ने में मजा आता है। यहाँ ये देखना बनता है कि सुनील उपन्यास के दूसरे किरदारों से प्रभु की जमकर तारीफ़ भी करता है जो यह जताता है कि एक पुलिस ऑफिसर के तौर पर सुनील प्रभु की इज्जत करता है।
उपन्यास के बाकी किरदार कहानी के अनुरूप ही हैं और कहानी को मजबूत बनाते हैं।
सुनील और मधु के संवाद भी रोचक हैं। उदाहरण के लिए:
“आपने मुझे इस किस्म की मेम साहबों में कैसे शामिल कर लिया?”
“क्योंकि आप ईश्वर लाल की भतीजी हैं और राजनगर के रईसों के शंकर रोड नाम के उस इलाके में रहती हैं जहाँ वह आदमी गरीब समझा जाता है जो इम्पाला गाड़ी नहीं रख सकता।”
“आप कोई ट्रेड यूनियनिस्ट तो नहीं हैं। “
“नहीं।”
“कम्युनिस्ट?”
“नहीं।”
“लोक सभा के मिड-टर्म इलेक्शन में खड़े हो रहे हैं?”
“नहीं।”
“आपकी बातों से वर्ग संघर्ष और इंकलाब की बू आती है।”
“मैं समझ गया।”
“क्या?”
“तुम बहुत अच्छी लड़की हो। शंकर रोड पर रहती हो फिर भी बहुत अच्छी लड़की हो और इसलिए मैं तुम्हें ‘आप’ और ‘मेम साहब’ कहना बंद कर रहा हूँ।”
कालीचरण का किरदार रोचक है। विद्या के किरदार ने भी मुझे मुतमईन किया। वह एक कर्कशा औरत है। उसकी एक टाँग खराब है और ऐसा लगता है जैसे वो सभी से चिढ़ती है। मैं उसके विषय में जब पढ़ रहा था तो यही सोच रहा था कि क्या वो शुरू से ही ऐसी रही होगी? या उसे हालातों ने ऐसा बना दिया रहा होगा? मैं उसके विषय में और जानना चाहता था। आखिर क्यों उसमें ऐसे बदलाव हुए? मैं इस सवाल का उत्तर पाना चाहता था।
उपन्यास में रहस्य अंत तक बना रहता है और जिस तरह से सुनील असल बात तक पहुँचता है वह भी काफी रोचक है। उपन्यास चूँकि पहली बार १९७२ में छपा था तो आज के हिसाब से उपन्यास का कलेवर छोटा प्रतीत होता है। उपन्यास जल्द खत्म हो जाता है। लेकिन इससे एक अच्छी बात ये होती है कि उपन्यास में अनावश्यक चीजें नहीं हैं और उपन्यास कभी भी बोझिल प्रतीत नहीं होता है। कथानक कसा हुआ है और घटनाक्रम का कोई भी हिस्सा अनावश्यक तौर पर खींचा हुआ नहीं लगता है।
हाँ, उपन्यास पढ़ते हुए एक प्रश्न मन में आया था। उपन्यास के शुरुआत में एक किरदार की गोली लगने से हत्या हो जाती है। उस किरदार की लाश को सुनील, मधु और रोशनलाल बरामद करते हैं। वह किरदार ईश्वरलाल के परिवार से जुड़ा होता है लेकिन फिर भी रोशनलाल उस वक्त उसे पहचानता नहीं है।
“क्या यह आपका भाई ईश्वर लाल है?”- सुनील ने रोशन लाल से पूछा।
“नहीं ….” रोशनलाल कम्पित स्वर में बोला।
“श्योर?”
“श्योर।”
“यह _ हो सकता है। “- मधु धीमे स्वर में बोली।
“यह कोई भी हो सकता है।”-सुनील बोला -“हम लोग _ को पहचानते नहीं हैं।”
कोई कुछ नहीं बोला।
बाद में जब सुनील को हतप्राण के विषय में पता लगता है तब भी वह रोशनलाल से इस बाबत सवाल नहीं करता है कि क्यों उसने उस वक्त शिनाख्त नहीं की। वैसे तो मधु को भी उसे पहचान जाना चाहिए था लेकिन चूँकि वह तब दस साल की थी जब उसे आखिरी बार उस व्यक्ति को देखा था तो उसका उसे न पहचानना लाजमी लगता है। लेकिन सुनील का इस बाबत रोशनलाल को न टोकना अजीब सा लगता है।
इसके अलावा उपन्यास में कहीं कोई चीज मुझे नहीं खटकी थी।
उपन्यास मुझे पसंद आया और अगर आप रहस्यकथाओं के शौक़ीन हैं तो यह उपन्यास आपको निराश नहीं करेगा।
रेटिंग: 3.5 /5
सुनील सीरीज
सुरेन्द्र मोहन पाठक
हिन्दी पल्प साहित्य
मेने भी अधिक नही पढ़ी है सुनील सीरीज की उपन्यास पर मुझे सुनील और रमाकांत की बातें बिल्कुल पसंद नही।
मुझे उनके संवाद पढ़ने को बोर होता है।
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अपनी अपनी पसंद है। आप अपनी जगह सही हैं। अपनी बात करूँ तो मुझे तो उनके संवाद रोचक लगते हैं। बल्कि सुनील सीरीज में कहानी से ज्यादा रोचकता सुनील और रमाकांत की जुगलबंदी पढ़ने में आती है।
अच्छी समीक्षा है | नॉवेल मिलते ही पढूंगा |
शुक्रिया राकेश भाई। जब भी पढ़ें अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।