उपन्यास फरवरी 20,2018 से फ़रवरी 25,2018 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई बुक
प्रकाशक: डेली हंट
प्रथम प्रकाशन:1984
पहला वाक्य:
कोठरी में एकदम सन्नाटा था।
रवि वर्मा आज जेल की कोठरी में बंद था। लेकिन कभी वो एक पुलिस इंस्पेक्टर हुआ करता था। ऐसा इंस्पेक्टर जिसकी पुलिस महकमे में एक तेज तर्रार और कर्तव्यनिष्ठ अफसर के तौर पर साख थी। उसके पास सब कुछ तो था। दौलत जो उसे विरसे में मिली थी, एक नौकरी जिसका अपना रुतबा था और एक खूबसूरत पत्नी जिससे वो बेइन्तहा प्यार करता था।
लेकिन फिर उसकी ज़िन्दगी में एक केस आया। और इसका अंत ऐसा हुआ कि आज रवि वर्मा कोठरी में था।
निशा नाम की कैबरे डांसर का उसी के फ्लैट में किसी ने क़त्ल कर दिया था। आखिर किसने किया था निशा का क़त्ल और क्यों?
यही रवि वर्मा को पता लगाना था।
आखिर क्या हुआ केस का? किसने किया था निशा का कत्ल?
और ऐसा क्या हुआ कि रवि वर्मा जेल में पहुँच गया था?
मुख्य किरदार:
रवि वर्मा – पुलिस का इंस्पेक्टर
निशा वर्मा – रवि वर्मा की पत्नी
रमेश टोकस – रवि के बचपन दोस्त और एक सब-इंस्पेक्टर जो कि उसके साथ काम करता था
निशा/रमेश्वरी – एक कैबरे डांसर
एस पी श्रीवास्तव – निशा का एजेन्ट
बूटाराम – निशा की इमारत का केयरटेकर
रामकुमार अग्रवाल – एक धनी व्यापारी जिसके निशा से सम्बन्ध थे।
सुषमा सोनी – निशा वर्मा की सहेली जो की क्लब में गाती थी
विपिन कुमार – एक दूध बेचने वाला जो निशा की इमारत में दूध सप्लाई करता था
एसी पी चन्द्र प्रकाश अवस्थी – रवि वर्मा का सीनियर ऑफिसर
केदारनाथ कनकटा – एक गुंडा जो जेल में बन्द था
संतरा – केदारनाथ की बीवी जिसके विपिन कुमार के साथ सम्बन्ध थे
कृष्ण भार्गव – निशा का पड़ोसी जो निशा को प्यार करता था
गरिमा सहाय – कृष्ण भार्गव के फर्म में काम करने वाली युवती जिससे उसके सम्बन्ध थे
कुमार – सुषमा का भाई
सूरज जोशी – एक पत्रकार
‘बीवी का हत्यारा’ पाठक साहब का थ्रिलर उपन्यास है। अगर आप पाठक साहब को पढ़ते हैं तो जानते होंगे कि पाठक साहब के वो उपन्यास जो किसी श्रृंखला के अन्तर्गत नहीं आते उन्हें वो थ्रिलर की केटेगरी में रखते हैं। वैसे अगर इसकी शैली(genre) के ऊपर बात की जाये तो ज्यादातर उपन्यास पुलिस प्रोसीज़रल की श्रेणी में रखा जायेगा। उपन्यास आत्मकथानात्मक शैली में लिखा गया और नैरेटर रवि वर्मा अपने साथ घटित हुई उन घटनाओं को सुना रहा है जिनके चलते वो अपने आज के मुकाम में पहुँचा है।
इससे एक फायदा तो ये होता है कि पाठक के मन में ये कोतुहल उत्पन्न होता है कि रवि वर्मा अपनी वर्तमान परिस्थित में कैसे पहुँचा? वहीं दूसरी चूँकि कहानी की शुरुआत में ही पता चल जाता है तो कि रवि वर्मा एक इंस्पेक्टर हुआ करता था जो कि एक क़त्ल के केस को सुलझाने की कोशिश कर रहा था तो पाठक के मन में ये जानने की उत्सुकता रहती है कि इस केस में मुजरिम कौन था और क्या वो केस सुलझ पाया? ये दोनों ही बातें पाठक को उपन्यास के पन्ने पलटने (मेरे केस में फोन की स्क्रीन में ऊँगली घिसने) को मजबूर कर देती हैं।
उपन्यास की बात करूँ तो ऊपर लिखी दोनों बातों ने मेरे पर भी असर किया और मैं इस उपन्यास को पढ़ता चला गया। मुझे इसे पढने में बड़ा मज़ा आया। उपन्यास तेज रफ्तार है। मर्डर केस को सुलझाते समय कई सस्पेक्ट्स भी उजागर होते हैं जिनसे उपन्यास में पाठक की रूचि बरकरार रहती है। हर किसी के पास कत्ल का एक मजबूत कारण होता है और पाठक इसका अंदाजा लगाता रह जाता है कि कत्ल किसने किया और क्यों? ये बात पाठक को अंत तक पढने के लिए मजबूर करेगी
वही इसके साथ साथ रवि वर्मा की कहानी भी चलती रहती है। वो एक पुलिस इंस्पेक्टर है जो कि अपने फर्ज के प्रति ईमानदार है लेकिन वो एक मानसिक रूप से टूटा हुआ इंसान भी है। उसकी जाती ज़िन्दगी में ऐसा कुछ हुआ है जिसने उसकी सोच को साधारण लोगों से अलग कर दिया है। उसके अन्दर कुछ ऐसे पूर्वाग्रह पैदा कर दिये हैं जो कि शायद साधारण इन्सान में नही हों। पाठक साहब का ये दर्शाना उस किरदार की हरकतों को ज्यादा विश्वसनीय बना देता है। जिस हिसाब से रवि वर्मा अपने हित के लिए कानून और कभी मीडिया को तोड़ता मरोड़ता है वो सचमुच एक भयावह तस्वीर पैदा करता है। पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि रवि वर्मा भले ही पूर्वाग्रह से ग्रसित हो लेकिन मूल रूप से वो ईमानदार और अच्छा आदमी है। उसके कुछ उसूल भी है जो उसे उतना दूर तक जाने नहीं देते। लेकिन अगर कोई ऐसा आदमी हो जिसमे न अच्छाई हो और न उसूल तो वो क्या नहीं कर सकता? डराने वाली बात है न?
खैर, उपन्यास पे वापस आते हैं। उपन्यास के बाकी किरदार उपन्यास के हिसाब से फिट बैठते हैं। ज्यादातर किरदार डार्कर शेड्स के हैं लेकिन वो कहानी की माँग के हिसाब से हैं। वो स्वार्थी हैं, बदचलन (आदमी औरत दोनों) हैं और हारे हुए हैं। संतरा का किरदार मुझे काफी रुचिकर लगा। एक तो वो कोई कमजोर लड़की नहीं थी लेकिन फिर भी वो मर्द पर निर्भर रहती थी। मैं सोचते रहा कि वो उस जगह पे कैसे पहुँची होगी जिस पर उस समय थी। वो एकांत में बैठी हुई होती होगी तो क्या सोचती होगी? उसका बचपन कैसे रहा होगा? क्या हुआ होगा उसके साथ? वैसे ऐसे ही ऊट पटांग सोचने की मेरी आदत है। यही बात रमेश्वरी पे भी लागू थी। लेकिन चूँकि वो लाश के तौर पर उपन्यास में आती है और उसके व्यक्तित्व की झलक उपन्यास में इतनी नहीं दिखती तो उसे जानने का मन मेरा इतना नहीं हुआ।
रमेश टोकस और रवि के बीच का समीकरण अच्छा बना है और उनके कुछ संवाद मजेदार हैं।
हम चूँकि कहानी रवि के दृष्टिकोण से देखते हैं तो निशा के किरदार की वही झलक देखने को मिलती है जो रवि दर्शाना चाहता है। जब मैं ऐसे उपन्यास पढता हूँ जो प्रथम पुरुष में लिखे गये होते हैं तो अक्सर यही सोचता हूँ कि अगर दूसरे व्यक्ति का दृष्टिकोण भी देखने को मिलता तो कैसा रहता? उपन्यास पढने का मजा बढ़ जाता। निशा वर्मा का दृष्टिकोण भी मैं पढ़ना चाहता था। अब तो खुद ही उसके दृष्टिकोण से कहानी सोचनी पड़ेगी।
हाँ, उपन्यास के विषय में एक और बात करनी जरूरी है। उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री, रहस्यकथा, पुलिस प्रोसीज़रल तो है ही लेकिन ये पति पत्नी के रिश्तों की कथा भी है। कहते हैं जब कोई दो व्यक्ति शादी करते हैं तो मैं और तुम से हम बन जाते हैं। लेकिन ये कहने की ही बातें हैं, शायद। अक्सर ज़िन्दगी में ऐसा नहीं होता है। अगर ऐसा होता तो न तलाक होते, न ब्लैकमेल और न धोखे। इस उपन्यास को पढ़ते वक्त पाठक अक्सर ये सोचेगा कि गलती किसकी थी? मेरे हिसाब से दोनों की। दोनों ने ही कुछ न कुछ छुपाया और जिसने गलतफहमियों का रूप लिया। दोनों ही अपने मन की बात सामने रख देते तो हो सकता है कि ऐसा न होता। ये चीज ज़िन्दगी में भी लागू होती है। संवाद ही वो उर्वरक है जिससे रिश्तों का पौधा फलता फूलता है। किसी भी रिश्ते में अगर संवाद खत्म हो तो वो मरने लगता है। चाहे कुछ भी हो अगर जिसके साथ ज़िन्दगी गुजारनी है उसे ही किसी बात से अँधेरे में रखा जाये तो न वो रिश्ते के लिए सही है और न उस व्यक्ति के लिए। उपन्यास से ये बात तो सीख ही सकते हैं।
उपन्यास का अंत भावुक कर देने वाला है और मैं मुख्य किरदारों के लिए दुखी हुआ। लेखक अगर किसी रचना से अपने पात्र के प्रति पाठक के मन में भावनायें पैदा कर देता है तो वो रचना वैसे ही सफल होती है। ऐसा मेरा मानना है और पाठक साहब ये काम हर उपन्यास में बखूबी करते हैं।
अब उपन्यास की उन बातों की की बात कर ली जाये तो मुझे थोड़ी सी खटकी। पहला तो ये कि निशा(रमेश्वरी) मर्डर केस किस तरह सोल्व किया गया ये पाठक को दिखाया नहीं गया है। अंत में एक व्यक्तव्य के माध्यम से कातिल के विषय में बता दिया गया जो कि उतना प्रभावी नहीं था जितना हो सकता था। अगर जिस प्रकार पाठक पूरी तफ्तीश के दौरान साथ में था उसी तरह गिरफतारी के दौरान भी साथ में होता ज्यादा रोमांचक हो सकता था। अभी तो ये ही बताया कि वो हाथ में आया लेकिन कैसे, किन सबूतों की वजह से ये नहीं दर्शाया गया। ऐसे में पाठक के रूप में थोड़ा बहुत निराशा मुझे हुई।
उपन्यास के विषय में अंत में यही कहूँगा कि शुरू से लेकर आखिर तक इसने न केवल मेरा मनोरंजन किया बल्कि इसके किरदारों ने भावनात्मक रूप से भी मुझे छुआ।
मेरा मानना है अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो आपको इसे जरूर एक बार पढ़ना चाहिए।
उपन्यास डेलीहंट में मौजूद है। उपन्यास आप इस एप्प को डाउनलोड कर खरीद कर पढ़ सकते हैं। उपन्यास का लिंक निम्न है:
डेलीहंट
पाठन साहब की थ्रिलर उपन्यास वास्तव में बहुत अच्छे होते हैं।
प्रस्तुत उपन्यास की समीक्षा ने उपन्यास के प्रति पढने की ललक पैदा की है।
अच्छी समीक्षा के लिए धन्यवाद।
जी आभार….
I don’t skills ought to I provide you with thanks! i'm altogether shocked by your article. You saved my time. Thanks 1,000,000 for sharing this text.
अच्छी समीक्षा है | नॉवेल मिलते ही पढूंगा |
जी आभार। मिले तो पढ़ियेगा।