अनदेखा खतरा – संतोष पाठक

किताब 30 अक्टूबर से 1 नवम्बर 2020 तक पढ़ी गयी

संस्करण विवरण:

फॉर्मेट:
ई-बुक | पृष्ठ संख्या:  232 | प्रकाशक: एडूक्रिएशन पब्लिशिंग | ए एस आई एन: B078P3WWRM | श्रृंखला: विक्रांत गोखले #1


पहला वाक्य:

मैं अपने फ्लैट में सोफा चेयर में धँसा हुआ, सिगरेट का कश लेने में मशगूल था।
कहानी:
जब सीतापुर से शीला वर्मा का फोन विक्रांत को आया तो उसे लगा कि उसने केवल हाल चाल जानने के लिए ही उसे फोन किया होगा लेकिन उसका अंदाजा बहुत गलत था। शीला, जो कि विक्रांत की सेक्रेटरी थी, अपनी दूर की रिश्तेदार जूही से मिलने सीतापुर गयी थी। सीतापुर में वह ऐसे मामले में फँस गयी थी कि उससे विक्रांत की मदद की जरूरत पड़ने लगी थी। 
जूही शीला के दूर के रिश्तेदार मानसिंह की इकलौती बेटी थी और हाल में हुई मानसिंह की मृत्यु ने उसे अन्दर तक हिला दिया था। शीला के अनुसार जूही को अब ये भी लगने लगा था कि कोई ऐसा व्यक्ति है जो कि उसे मार डालना चाहता है। उसके इन ख्यालों को उसके जान पहचान वाले केवल उसका वहम बताते थे लेकिन इस कारण जूही की हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि वह उसे दबी जुबान में पागल कहने लगे थे। वहीं जब लाल हवेली, जहाँ जूही अब तक रहती आ रही थी, में अब भूत प्रेत भी दिखने लगे  तो लाल हवेली में डर और संशय का माहौल व्याप्त हो गया। 
इस प्रेतों और नरकंकालों को शीला ने भी देखा था। इस कारण शीला को अब लगने लगा था कि लाल हवेली में कुछ बड़ा खेल हो रहा है और इससे निपटने में विक्रांत ही उसकी मदद कर सकता है।
लाल हवेली में दिखाई देने वाली प्रेतआत्मायें और नरकंकाल किनके थे? 

क्या सचमुच कोई जूही को नुकसान पहुँचाना चाहता था?  अगर हाँ, तो क्यों?

आखिर जूही का यह अनदेखा खतरा कौन था?

क्या विक्रांत इन सब सवालों के जवाब ढूँढ पाया और इन जवाबों की तलाश में उसे किन किन चीजों से दो चार होना पड़ा?
 
ऐसे ही कई सवालों के जवाब आपको इस उपन्यास को पढ़कर पता चलेंगे।

मुख्य किरदार:
विक्रांत गोखले – प्राइवेट डिटेक्टिव और रैपिड इन्वेस्टीगेशन का मालिक
शीना वर्मा – विक्रांत की सेक्रेटरी
नीलम तंवर – घोषाल एंड एसोसिएट फर्म की मालकिन और विक्रांत की दोस्त 
जूही – शीना की बहन जो कि सीतापुर की लाल हवेली में रहती थी
प्रकाश-जूही का कजन
राकेश – प्रकाश का दोस्त
मानसिंह -जूही के पिता जिनकी मृत्यु एक हादसे में हुई थी
यशवंत सिंह – पुलिस इंस्पेक्टर जो कि सीतापुर का तकोटवाल था
दिलावर सिंह – सीतापुर का एक बाहुबली
नरेश, रामसिंह, कुलदीप – दिलावर के गुर्गे
महानायक सिंह राजपूत- यशंवत का सी ओ
श्याम सिंह – जूही के चाचा 
रोजी – एक नर्से जो कि जूही के पिता मानसिंह  के लिए लाई गयी थी 
सलीम, सलाउद्दीन -दिलावर के शूटर 
सुशांत तिवारी – नई सुबह अखबार का ब्यूरो चीफ 
शेष नारायण शुक्ला – मानसिंह का दोस्त 
बच्चन सिंह – प्रॉपर्टी डीलर  
शम्मों – बच्चन सिंह के यहाँ रहने वाली एक युवती 
भगवत – सीतापुर का पुलिस वाला 
प्रशांत, ब्रजभूषण – पुरातत्व विभाग से आई टीम के सदस्य
सुरेश अग्रवाल – लखनऊ का एक प्राइवेट डिटेक्टिव 
रंजीत सिंह – सीतापुर का निवासी जो अपना घर छोड़कर सीतापुर रहने के लिए चला गया था 
मनीराम – रंजीत सिंह का पड़ोसी 
मेरे विचार:
अनदेखा खतरा अगर अमेज़न की माने तो मेरे पास 2018 से  पड़ा हुआ है। उपन्यासों और खरीदने और उनको पढ़ने के मामले में मैं ऐसा ही लेट लतीफ हूँ। खरीद लेता हूँ लेकिन पढ़ने का मौक़ा देर सबेर ही आता है। उस वक्त भी इसे किंडल पर खरीदकर रख लिया था लेकिन पढ़ने का मौक़ा नहीं लग पाया। यह मौक़ा इस बार के सफर में लगा क्योंकि इस बार केवल किंडल ही अपने साथ मैं लेकर आया था। खैर, इस बात पर यही कहा जा सकता है कि देर आये दुरुस्त आये। 
विक्रांत को अगर आप नहीं जानते हैं तो बता दूँ कि विक्रांत एक प्राइवेट डिटेक्टिव है जो कि दिल्ली में रैपिड इन्वेस्टीगेशन नाम की फर्म चलाता है। इस फर्म में उसकी एक मुलाजिम शीला वर्मा है जो कि उसकी सेक्रटरी है और उसके दफ्तर का ज्यादातर कार्य करती है।  विक्रांत के विषय में अगर आप पहली बार पढ़ते हैं तो उसके अन्दर आपको सुरेन्द्र मोहन पाठक के प्राइवेट डिटेक्टिव किरदार सुधीर कोहली का अक्स नजर आता है। उसके बात करने का तरीका, उसके अपने सेक्रेटरी से होने वाली नोक झोंक और उसकी स्त्रियों की समझ, जो कभी कभी नारीविरोधी भी हो सकती है, उसी से प्रेरित लगती है। यह बात संतोष पाठक भी मानते हैं। मैं इधर यह बात इसलिए दर्ज कर रहा हूँ कि व्यक्तिगत तौर पर मुझे विक्रांत के किरदार के सुधीर पर आधारित होने से इतना फर्क नहीं पड़ता है जब तक कि कथानक संतोष पाठक का खुद का हो। 
प्रस्तुत कथानक की बात करूँ तो यह कथानक अधिकतर प्रथम पुरुष में लिखा गया है और कहानी में विक्रांत के दृष्टिकोण से दर्शाई गयी है। कथानक का कुछ ही हिस्सा ऐसा है जिसमें लेखक ने तृतीय पुरुष में कहानी को आगे बढ़ाया है। कहानी की शुरुआत में पाठक को पता लगता है कि विक्रांत की सेक्रेटरी शीला सीतापुर अपने दूर के रिश्तेदार के यहाँ गयी है और इस कारण विक्रांत अपने ऑफिस जाने के बजाए घर में बैठा सिगरेट फूँक रहा है। इस दौरान उसके शीला और अन्य औरतों के विषय में जो विचार हैं वो भी लेखक को पता चलते हैं। वहीं शीला कौन है और क्या है यह भी उसे पता चलता है। मेरे जैसे नये पाठक जो पहली बार विक्रांत से परिचित हो रहे हैं ये हिस्सा उनके लिए एक तरह के परिचय का कार्य करता है। आप विक्रांत, उसके अपने सेक्रेटरी से रिश्ते और उसके विचारों से अवगत होते हैं। यह विचार कुछ हद तक नारीविरोधी प्रतीत होते हैं। यह विचार विक्रांत के क्यों बने क्या इसके पीछे कोई बैकस्टोरी है? यह मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा क्योंकि अभी यह मुझे खटकते हैं।
खैर, कथानक पर लौटते हैं। विक्रांत अकेला पाठकों से बातचीत कर रहा होता है कि तभी शीला का फोन विक्रांत के लिए आता है और  शीला से कॉल पर बात करके विक्रांत सीतापुअर के लिए निकल पड़ता है। यहीं से कथानक आपके ऊपर अपनी पकड़ बना लेता है। 
विक्रांत के सीतापुर पहुँचते ही उधर ऐसी चीजें होने लगती हैं कि आप कथानक से बंध से जाते  हैं। कहानी पढ़ते हुए आपको पुरानी हिन्दी हॉरर जासूसी फिल्में देखने सा अहसास होता है। उस दौर के रोमांचक फिल्म के सभी तत्व इधर मौजूद है। इधर सीतापुर जैसा शहर है जहाँ के अक्खड़ लोग पहले गोली चलाते हैं, फिर बात करते हैं। यहाँ लाल हवेली हैं जो कि रिहायश कम और भूतिया बंगला ज्यादा लगती है। यहाँ नरकंकाल हैं, प्रेत आत्मायें हैं और ऐसे हत्यारे हैं जो कि कहीं भी घुसकर गोली चलाते हैं और फिर हवा में कपूर की तरह गायब हो जाते हैं। इन सब बातों में उलझता आपका नायक है जो कि जिससे बात करता है वही उसे साजिश का हिस्सा प्रतीत होता है। इतने संदिग्धों में वह किस तरह असली कातिल को पकड़ता है यह देखने के लिए आप पन्ने पलटते चले जाते हैं। 
उपन्यास का कुछ हिस्सा और रहस्य ऐसे हैं जो कि आप आसानी से समझ जाते हैं। यह चीजें क्यों हो सकती है इसका अंदाजा भी आप लगा सकते हैं और वह सही भी साबित होती हैं।  वहीं कहानी के कुछ पहलू और रहस्य ऐसे हैं जो कि कहानी में रोमांच और रहस्य के तत्व को बरकरार रखते हैं और इनका अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल रहता है। मुख्य खलनायक कौन है इसका अंदाजा लगाना भी थोड़ा मुश्किल है। मुझे तो आखिर तक पता नहीं लगा था। इस चीज से कथानक संतुष्ट करता है।
उपन्यास तेज रफ्तार है और शुरुआत के कुछ हिस्से को छोड़ दें तो यह रफ्तार अंत तक बनी रहती है। पल पल नये रहस्य उद्घटित होते हैं और उस हिसाब से कथानक में मोड़ आते रहते हैं। क्थानाक में शम्मो, सुशांत तिवारी और कोतवाल यशवंत सिंह का किरदार रोचक बन पड़ा है। मुझे अच्छा लगेगा अगर लेखक इन किरदारों को अपने दूसरे कथानकों में भी लायें। 
उपन्यास में कुछ बातें बातें ऐसी भी थी जो कि या तो मुझे पसंद नहीं आई या मुझे लगा कि वह उपन्यास की कमियाँ हैं। यह बातें निम्न हैं:
कहानी का ज्यादातर हिस्सा प्रथम पुरुष में है और विक्रांत के नजरिये से ही दिखता है। कुछ हिस्सा जहाँ विक्रांत नहीं है वो तृतीय पुरुष में रखा गया है। कहानी अध्यायों में विभाजित नहीं है लेकिन अगर होती तो बेहतर होता। अभी प्रथम पुरुष के बाद सीधा तृतीय पुरुष में कहानी चलने लगती है। आपको समझ तो आ जाता है कि क्या चल रहा है लेकिन फिर भी पठनीयता थोड़ी बहुत बाधित तो होती ही है। अगर कहानी अध्यायों में विभाजित होती तो यह भाग अलग आलग अध्याओं में रखे जा सकते थे और इस विभाजन से पठनीयता और बेहतर हो सकती थी।
कहानी में नरकंकालों के लिए जो चीजें इस्तेमाल करी दिखाई गयी हैं वह काफी हद तक एक पुरानी फिल्म से प्रेरित लगती हैं। हाँ, कथानक में जूही को मासूम दिखाया गया है तो वह इस पर विश्वास कर देती है लेकिन बेहतर होता कि प्रेतों और कंकालो वाले मसले को थोड़ा और तगड़ा बनाया जाता। अभी यह अतिसाधारण लगता है। भूत वाले एंगल को थोड़ा और विकसित किया जाता तो कथानक और रोमांचक बन सकता था। जैसे रूबी के प्रेत का खाली जिक्र है। वहीं इस लेकर विक्रांत के आने के बाद कुछ किया जाता तो बेहतर रहता।
ई-बुक में कई जगह प्रूफ की गलतियाँ हैं जिन्हें सुधारा जा सकता था क्योंकि ये खीर में कंकड़ सी प्रतीत होती हैं। 
विक्रांत गोखले का किरदार पूरे उपन्यास में तो ठीक है लेकिन शुरुआत के कुछ पृष्ठ में और आगे भी कई जगह उसकी जो सोच दिखाई गयी है वह थोड़ा खलती है। 
उदाहरण:
मेरी उस सख्त हिदायत थी कि वहाँ पहुँचकर पहली फुर्सत में वो मुझे फोन करे।
मगर थी तो आखिर औरत ही! एक बार में कोई बात भेजे में कैसे दाखिल हो सकती थी।

औरतें दो -मुँहा साँप की तरह होती हैं। इसलिए जब भी कोई औरत आप पर बेवजह मेहरबान होती दिखाई दे, तो सम्भल जायें क्योंकि उस वक्त यह आपको डसने की तैयारी कर रही होती है।
ऐसा लगता है कि वह स्त्रीयों को लेकर कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। हो सकता है उसके पहले के जीवन में कुछ हुआ हो जिसने उसकी सोच को इस तरह बनाया हो। चूँकि मैं अभी उस कहानी से अनजान हूँ  तो व्यक्तिगत तौर पर मुझे किरदार में वह बात पसंद नहीं आई। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उसकी कहानी में तो कोई जरूरत है नहीं  और कई बार पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे वह पोज़ कर रहा है। खुद को कुछ दर्शाने की जरूरत से ज्यादा कोशिश कर रहा है।  जैसे वह शीला के विषय में कहता है:
मैं उसके लिए फिक्रमंद था। 
उतना ही जितना मैं अपनी काम वाली बाई के लिए फिक्रमंद होता हूँ!
ऐसे वाक्य पढ़कर मुझे अपने उन दोस्तों की याद आ गयी जो कि अपनी प्रेमिकाओं को लेकर दोस्तों के सामने तो काफी शेखी बघारते हैं। यह दर्शाने की कोशिश करते हैं कि वह अपनी पत्नियों या प्रेमिकाओं को अपने अंगूठे के नीचे दबाकर रखते हैं लेकिन जब प्रेमिकाओं से बातें करते हैं तो उनका लहजा और बात करने का तरीका अपने द्वारा की गयी बातों से काफी अलग हो जाता है। इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कहीं भी नहीं लगता कि शीला की अहमियत विक्रांत के लिए केवल काम वाली बाई जितनी है। ऐसे ही उसके कई विचार इस उपन्यास के दौरान हमें देखने को मिलते हैं जिसमें वह खुद को एक तरह से दर्शाने के लिए कहता जरूर है लेकिन हरकत उसकी वैसी होती नहीं है। 
खैर, यह किरदार आगे जाकर किस तरह विकसित  होता है यह मैं जरूर देखना चाहूँगा। अभी तो उसके किरदार का यह पहलू मुझे पसंद नहीं आया।
अंत में मैं इतना ही कहूँगा कि उपन्यास मुझे पसंद आया और इसने मेरा भरपूर मनोरंजन किया। तेज रफ्तार कथानक आपको बाँधकर कर रखता है और आप उपन्यास पढ़ते चले जाते हैं। विक्रांत के स्त्रियों के प्रति व्यक्त किये कुछ  विचारों से मैं सहमत नहीं था लेकिन इस असहमति से मेरे लिए कथानक की मनोरंजकता में कमी नहीं आई। हर मनुष्य में कुछ कमियाँ होती हैं मैंने ऐसे ही इन्हें देखा है। अगर आप मेरी तरह इन बातों को दरकिनार रख पाते हैं तो आप भी इस कथानक का लुत्फ़ ले पाएंगे। 
रेटिंग: 3.5/5
संतोष पाठक की अन्य किताबों के विषय में मेरे विचार:
संतोष पाठक 
हिन्दी पल्प फिक्शन के अन्य रचनाओं के प्रति मेरे विचार:
हिन्दी पल्प फिक्शन

किताब आप निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
किंडल | पेपरबैक

संतोष पाठक की अन्य किताबें निम्न लिंक पर जाकर मँगवाई जा सकती हैं:
संतोष पाठक – किताबें

© विकास नैनवाल ‘अंजान’

FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर उन्हें लिखना पसंद है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

6 Comments on “अनदेखा खतरा – संतोष पाठक”

    1. लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा।

  1. उपन्यास पर समीक्षा अच्छी है। मैंने और भी कई लेखक देखे हैं जो SMP जी के सुधीर की नकल लगते हैं।

    1. हाँ, कई किरदार उससे प्रभावित हैं और खुद सुधीर मुझे मिक्की स्पिलेन के माइक हैमर,चैंडलर के फिलिप मार्लो इत्यादि से प्रेरित लगता है….

  2. सुधीर हार्डबोइल्ड जासूसों पर आधारित है और विक्रांत की प्रेरणा उसी से आई है, तो इसलिए भी विक्रांत काफी हद तक हार्डबोइल्ड ही होगा।

    हार्डबोइल्ड जासूस अपने स्त्रीविरोधी, नस्लवादी और सिनिकल विचारो को लेकर बदनाम रहते है।
    यानी एक हार्डबोइल्ड जासूस बायडिफॉल्ट ही ऐसा होता है, उसके पीछे कोई कॉन नही होते।

    हाँ यदि संतोष साहब इसके पीछे का कारण बताए तो ठीक है, पर मुझे नही लगता कि हमे ये सब कभी जानने मिलेगा…
    जैसा बताया, ये बायडिफॉल्ट ही होता है उनमे। ज्यादातर लेखक बस वही छापते रहते है, जो पहले से चला आ रहा है।

    बाकी हॉरर और रहस्य कथा का मेल मुझे बहोत पसंद हैं। आज के युग मे किसी चीज़ को भूतिया बनाना बड़ा मुश्किल काम है। इसके लिए काफी शोद्ध करना पड़ेगा…

    1. सुधीर के वैसा होने के अपने कारण हैं। गाहे बगाहे वो कारण दिख जाते हैं। बाकी हार्डबोय्ल्ड में काफी बदलाव किया जाता रहा है। जैसे माइक हैमर नोवेल्स का पता नहीं लेकिन सीरीज में वो स्त्री विरोधी नहीं है। उधर स्त्री विरोधी किरदार जरूर मिल जायेंगे लेकिन हीरो नहीं है। इधर भी जरूरत नहीं थी। वो हिस्से न भी हो तो कहानी में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। खैर, देखना पड़ेगा उन्होंने आगे या पीछे इसके साथ क्या किया है।

      हाँ, हॉरर और मिस्ट्री का amalgamation तो उम्दा होता ही है। शोध तो कहानी के हिसाब से ही रहेगा। आज भी ऐसे डॉक्टर हैं जो डेढ़ दो करोड़ एक जिन्न के लिए खर्च कर देते हैं तो मुझे लगता है कि कई लोग वैसे भी इन चीजों पर विश्वास करते हैं और इसलिए सही जगह पर कहानी स्थापित की जाए तो वह विश्वसनीय लगेगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *