मैं मशहूर क्यों नहीं हुआ – योगेश मित्तल

मैं मशहूर क्यों नहीं हुआ - योगेश मित्तल

आदरणीय सुबोध भारतीय जी ने विगत दिनों में मेरी दो किताबें ‘प्रेत लेखन’ और ‘वेद प्रकाश शर्मा — यादें बातें और अनकहे किस्से’, क्या छापी, एक मुर्दा लेखक ज़िंदा हो गया। एक ज़माने में मुझे दिल्ली, मेरठ, इलाहाबाद, कलकत्ता, बम्बई बनारस के अधिकांश प्रकाशक जानते थे। वे सभी भी — जिन्होंने कभी मेरी एक लाइन भी नहीं छापी। लेकिन पाठकों में मेरी कोई पहचान नहीं थी। आज लोग मुझे बहुत अच्छी तरह पहचान रहे हैं तो इसका सबसे अधिक श्रेय नीलम जासूस कार्यालय से मेरी पुस्तकें प्रकाशित करने वाले माननीय सुबोध भारतीय जी को जाता है।

मेरे बारे में जब भी कहीं कोई जिक्र आयेगा, डंके की चोट यह कहा जायेगा कि सुबोध भारतीय जी ने मुर्दा योगेश मित्तल को एक बार फिर ज़िंदा कर दिया। लेकिन अब मेरे पास बहुत सारे फोन आ रहे हैं कि जब मैं इतना अच्छा लिखता रहा हूँ तो पहले क्यों नहीं मशहूर हुआ।

मैं मशहूर क्यों नहीं हुआ — इसके अनेक कारण हैं, जिसमें एक ये है कि मुझे हर समय पैसों की ज़रूरत रहती थी और घोस्ट राइटिंग में, दूसरों के लिए लिखने के लिए अधिक पैसे मिलते थे और जल्दी मिलते थे, बल्कि एडवांस भी मिल जाते थे। मैंने अपने जीवन में सौ से ज़्यादा लेखकों या यूँ कहें नामों के लिए लिखा है, घोस्ट राइटिंग की है, लेकिन यह मैं साबित नहीं कर सकता।

और तो और मैने अपनी कॉलोनी के स्कूली बच्चों के लिए भी कविताएँ व लेख लिखकर दिये हैं और उनके पैरेंट्स से अच्छे पैसे भी लिये हैं।

लेकिन मेरे मशहूर न होने का कारण सिर्फ यही नहीं है कि मैंने पैसों के लालच में हमेशा घोस्ट राइटिंग की (प्रेत लेखन किया)।

एक कारण और सबसे बड़ा कारण मेरा बचपन से सिर्फ आठ साल की उम्र से अस्थमा का रेगुलर 365 दिन का मरीज होना भी था।

अस्थमा को ठीक करने के लिए मैंने होमियोपैथी, आयुर्वेद, प्राकृतिक सभी तरीके आजमाये, लेकिन एलोपैथी के अलावा कहीं आराम नहीं मिला।

मेरे एक मित्र हरिओम सिंघल (उपन्यासकार सचिन) ने तो एक बार कमर कस ली थी कि तुझे अस्थमा से छुटकारा दिला कर रहूँगा और उन दिनों मेरे लिए उसने न जाने कितना खर्चा भी किया। ऐसे दोस्त बहुत कम लोगों को मिलते हैं।

और इसके अलावा एक कारण और भी प्रमुख कारण शायद मेरा इमोशनल होना भी रहा है।

दरअसल मैं बचपन से ही ज़रूरत से ज़्यादा इमोशनल हूँ (शायद मूर्खता की हद तक) और मेरे बारे में यह निष्कर्ष मेरा अपना नहीं है। समय-समय पर ऐसे ही शब्द मेरे बहुत से मित्रों बिमल चटर्जी, अशीत चटर्जी, देवेंद्र रस्तोगी (साप्ताहिक हिंदुस्तान के सह सम्पादकों में से एक), कुमारप्रिय, यशपाल वालिया, राज भारती, आदि अनेक लोगों ने कहे थे। लेकिन सबसे अच्छी तरह मुझे यह बात नूतन पॉकेट बुक्स, सूर्या पॉकेट बुक्स और माया पॉकेट बुक्स के जन्मदाता आदरणीय सुमत प्रसाद जैन ने समझाई थी और उम्र के उस पड़ाव पर समझाई थी कि उस समय मैं खुद को बदल पाता तो शायद नाम और पैसा बहुत पहले कमा लेता।

बात 1973 की है। तब मैं उम्र के लिहाज़ से पूरी तरह बालिग भी नहीं हुआ था, तब मेरा मेरठ आना-जाना आरम्भ हो चुका था और मेरठ में ईश्वरपुरी तब प्रकाशकों का मुख्य गढ़ था, वहाँ अधिक समय बीतता था। कुछ समय छीपी बाड़ा में ओरियंटल पॉकेट बुक्स के स्वामी सतीश जैन के यहाँ बीतता था, जो कि मेरठ के प्रकाशन जगत में ‘मामा’ के नाम से जाने जाते थे। (उनके बारे में आप सुबोध भारतीय जी द्वारा नीलम जासूस कार्यालय से प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘वेदप्रकाश शर्मा : यादें, बातें और अनकहे किस्से’ में भी पढ़ चुके होंगे। तब वह लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के सर्वेसर्वा थे।)

एक दिन मैंने ईश्वरपुरी में प्रवेश ही किया ही था कि एक आवाज़ आयी, “ओ लड़के…!”

हाँ, मेरठ के जैन भाइयों में से एक बड़े भाई आदरणीय सलेकचंद जैन जी द्वारा पहली पहली बार मुझे ऐसे ही पुकारा गया था, किंतु उस समय तक मैं ऐसी स्थिति में पहुँच चुका था कि अपने लिए ‘लड़के’ शब्द कहा जाना मेरी कल्पना में भी नहीं था। मैंने पलटकर भी नहीं देखा। आवाज़ दोबारा आयी, “ओ लड़के, सुन तो। इधर देख…!”

और इस बार मैंने पलटकर देख ही लिया तो एक जेब वाली सफेद सेन्डो कट बनियान और चकाचक सफेद धोती में चश्माधारी सलेकचन्द दूर खड़े थे।

मुझे अपनी ओर आने का संकेत करते हुए बोले, “हाँ, तुझी से कह रहा हूँ..। इधर आ…!”

गली में मेरे आगे और कोई नहीं था। मेरे लिए समझना कठिन नहीं था कि सलेकचंद जी मुझे ही बुला रहे थे।

सलेकचंद जी ने मुझे बुलाया और बीच की बातों का विवरण फिर कभी दूँगा, फिलहाल संक्षेप में यह कहूँगा कि उन्होंने मुझे मेरे नये उपनाम ‘प्रणय’ के नाम से छापने का प्रपोजल दिया और मैंने स्वीकार कर लिया। उपन्यास के बैक कवर पर मेरी लेटेस्ट फोटो भी दी जायेगी, यह भी तय हुआ।

मेरे पहले उपन्यास का नाम ‘पापी’ सेलेक्ट हुआ और सलेकचंद जी ने कहा कि मैं एक अच्छी सी फोटो खिंचवाकर कृष्णानगर, दिल्ली के मशहूर बुक कवर आर्टिस्ट इंद्र भारती तक पहुँचा दूँ।

उन दिनों कलर फोटोग्राफी प्रचलन में नहीं आयी थी। मैने गांधीनगर, दिल्ली की मुख्य रोड पर स्थित कंचन स्टुडियो से एक फोटो खिंचवाई और इंद्र भारती तक पहुँचा दी।

जब ‘पापी’ उपन्यास प्रकाशित होकर मेरे हाथ में आया तो मैं यह देखकर हक्का-बक्का रह गया कि उपन्यास के बैक कवर पर मेरा ब्लैक एंड व्हाइट फोटो कलर में छपा है।

तब मैं प्रकाशन जगत का पहला लेखक था, जिसकी तस्वीर उपन्यास के बैक कवर पर कलर में छपी थी।

उसके बाद मेरा दूसरा उपन्यास ‘कलियुग’ भी आया और हिट हुआ। तीसरे उपन्यास का विज्ञापन भी दूसरे उपन्यास में दिया गया। तीसरे उपन्यास का नाम था— ‘लोकलाज’।

लेकिन तीसरा उपन्यास जब मैं लिख रहा था, मैं बुरी तरह बीमार पड़ गया। अस्थमा का जबरदस्त अटैक हुआ था। पूरा एक हफ्ता बिस्तर पर कुत्ते की तरह हाँफते काँपते बीता। लिखना तो दूर की बात थी, कलम तक नहीं उठाई गयी।

खैर, ठीक होने के बाद उपन्यास लेकर मेरठ तो गया, लेकिन मुझे उपन्यास पहुँचाने में कुछ दिनों का बिलम्ब हो गया।

फिर जो कुछ हुआ, मेरे लिए एकदम अप्रत्याशित था। सलेकचंद मुझ पर राशन पानी लेकर चढ़ गये और गुस्से में उन्होंने वो अल्फ़ाज़ निकाले कि मैं डर के मारे थर‑थर कानोंने लगा। आखिर में उन्होंने कहा, “निकल जा यहाँ से वरना टाँगें तोड़ दूँगा। तेरे जैसे झूठे गद्दार से मैंने कोई रिश्ता नहीं रखना।”

और उस दिन मैं उठकर मेरठ से ऐसा भागा कि महीनों तक अन्य प्रकाशकों के बुलावे पर भी मेरठ नहीं गया।

खैर, आखिर एक बार बिमल चटर्जी पीछे पड़ गये कि “योगेश जी, मैं हूँ ना। मैं हर समय आपके साथ रहूँगा और मेरे साथ होते हुए किसी की मजाल नहीं कि आपकी टाँगे तोड़ दे।”

बिमल चटर्जी से जो लोग मिले हैं। उनकी पर्सनैलिटी देखी है, वे समझ सकते हैं कि बिमल चटर्जी के आश्वासन ने मुझे कितना आश्वस्त किया होगा।

डील डौल पर्सनैलिटी से उस समय बिमल चटर्जी किसी पहलवान से कम नज़र नहीं आते थे, किंतु बाद में शायद ज़्यादा देर बैठे-बैठे काम करने से उनका पेट आगे निकल आया तो यार दोस्त उन्हें ‘मोटे’ और ‘मोटू’ भी कहने लगे थे।

खैर, हम मेरठ गये तो मैंने साफ कह दिया कि मैं सामने वाले मुख्य रास्ते से ईश्वरपुरी नहीं जाऊँगा, क्योंकि ईश्वरपुरी में प्रवेश के साथ अन्य सभी प्रकाशकों से पहले सलेकचन्द जी की कोठी थी।

बिमल चटर्जी ने मुझे बहुत समझाया, “मैं हूँ ना।” पर अंत में उन्होंने मेरी मान — पीछे से नाले के पास के सँकरे रास्ते से ईश्वरपुरी जाना स्वीकार कर लिया।

हम ईश्वरपुरी पहुँचे तो संयोग ही था कि उस दिन सलेकचंद जी से बिलकुल सामना नहीं हुआ, लेकिन उनके छोटे भाई सुमतप्रसाद जैन ने मुझे बुलाया और मुझसे पूछा, “अमर पॉकेट बुक्स में तेरे दोनों उपन्यास बहुत अच्छे गये थे। देता रहता तो बहुत नोट कमाता। हम भी तेरे दो चार उपन्यास साल में छाप लेते। तूने उपन्यास देना बंद क्यों कर दिया?”

“मैंने बंद नहीं किया,” मैंने कहा और सारा किस्सा सुमत प्रसाद जैन उर्फ एसपी भाईसाहब को बताया तो वह बोले, “अरे पागल है तू, जाने से पहले एक बार मुझसे मिलता तो सही, सब ठीक करवा देता, अरे सलेक भाई साहब दिल के खरा सोना हैं, पर गुस्सा उनकी नाक पर धरा रहता है। बीमार भी बहुत रहते हैं। तू एक बार पाँव पकड़ लेता तो सब ठीक हो जाता, उन्हें जितनी जल्दी गुस्सा आता है, उतनी जल्दी हवा भी हो जाता है। तूने बेवकूफी की, इतना अच्छा नाम से छप गया था। पॉकेट बुक्स में पहला लेखक था, जिसकी बैक कवर में कलर फोटो छपी थी। अगर छपता रहता तो अब तक तो तेरी ‘सेल’ पाँच-छह हजार से ज़्यादा हो जाती, नोट भी भाईसाहब बहुत अच्छे देते, वो औरों की तरह कंजूस नहीं हैं। अब है, वो उपन्यास तेरे पास…?”

“नहीं..!” मैंने धीरे से कहा, “मुझे नोटों की ज़रूरत थी तो वो उपन्यास वालिया साहब (यशपाल वालिया) को दे दिया और वो उनके नाम से धम्मी के भाई के पब्लिकेशन में छप भी गया है।”

तो दोस्तों, यह किस्सा मैंने बहुत सी बातों को गोल कर संक्षेप में प्रस्तुत किया है, यदि आपने चाहा तो विस्तार में अपनी आगामी पुस्तक में लिखूँगा। लेकिन सिर्फ यही किस्सा नहीं है, मेरे मशहूर न होने का।

मेरे मशहूर न होने के और भी कई किस्से हैं, जिन्हें आप मेरी बेवकूफियों के किस्से भी नामज़द कर सकते हैं।

लेकिन सारे किस्से तभी कलमबद्ध करूँगा, जब आपका प्यार मिलेगा और आप जानना चाहेंगे।

फिलहाल बस….!

(4 फरवरी 2023 को लेखक की फेसबुक वॉल पर प्रथम बार प्रकाशित।)


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Author

  • योगेश मित्तल

    25 मार्च 1957 को दिल्ली के चांदनी चौक के पत्थरवालान में जन्में योगेश मित्तल के बचपन के कुछ वर्ष सिविल लाइन्स, शाहदरा में व्यतीत हुए। शाहदरा के बाद उन्होंने कुछ वर्ष चुरू, राजस्थान में गुज़ारे। उसके बाद 1963 से 1968 तक वे अपने परिवार के साथ कलकत्ता में रहे और फिर 1969 में दिल्ली आकर दिल्ली में ही बस गए। तब से लेकर अब तक वह दिल्ली में ही रहते आये हैं।

    कलकत्ता में रहते हुए ही योगेश मित्तल की पहली कविता व कहानी 1964 में कलकत्ता के दैनिक समाचार पत्र 'सन्मार्ग' के 'बालजगत' स्तम्भ में छपी।

    1969 में दिल्ली आने के पश्चात उनकी रचना जब गर्ग एंड कम्पनी की पत्रिका 'गोलगप्पा' में छपी तो वो प्रकाशक ज्ञानेंद्र प्रताप गर्ग की नज़र में आये। इसके पश्चात शुरू हुआ लेखन का सिलसिला आज पाँच दशक से भी ऊपर का समय गुजरने के बाद भी अनवरत ज़ारी है।

    लेखन की पहली पारी में योगेश मित्तल का अधिकतर लेखन ट्रेड नाम के लिए किया गया है। उपन्यास लेखन के अतिरिक्त उन्होंने खेल पत्रकारिता, कॉमिक बुक लेखन और सम्पादन के क्षेत्र में भी कार्य किया।

    अपने लेखन की दूसरी पारी में अब अपने नाम से उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं।  प्रेतलेखन, वेद प्रकाश शर्मा: यादें बातें और अनकहे किस्से, शैतान: जुर्म के खिलाड़ी नीलम जासूस कार्यालय से और  चांदी की चोंच, लड्डू मास्टर की भैंस, लोमड़ी का दूल्हा, काठ की अम्मा लायंस पब्लिकेशंस से प्रकाशित हुई हैं।

2 Comments on “मैं मशहूर क्यों नहीं हुआ – योगेश मित्तल”

  1. सुन्दर प्रयास है। शायद यह किस्सा गोइ टाइप शैली है।
    लगे रहो,पता नहीं कब लाटरी निकल आए।

    1. जी लेख आपको पसंद आया जानकर अच्छा लगा। योगेश जी के लेख लोकप्रिय साहित्य में रुचि रखने वाले और भविष्य के लेखकों के लिए काफी मूल्यवान है। इसमें उनका अनुभव और उनकी आँखों से वह दुनिया दिखती है जो अब कहीं खो सी चुकी है। आपने यहाँ टिप्पणी की आपका हार्दिक आभार।

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