कहानी: सतरंगी अरमानों की उड़ान – सुमन बाजपेयी

कहानी: सतरंगी अरमानों की उड़ान - सुमन बाजपेयी

उसका आना वैसा ही होता था जैसे गर्मिर्यों में मीठी बयार का बहना, जैसा सर्दियों में खिली चटकती धूप। उसके आने से कमल के पत्ते पर बिछी ओस सचमुच मोती के मानिंद लगने लगती थी। पत्ता-पत्ता, फूल-फूल खिल उठते थे, रसपान करने के लिए भँवरे मंडराने लगते थे और तितलियाँ अपने रंग-बिरंगे पंखों की आँचल ओढ़े यहाँ-वहाँ इठलाने लगती थीं। सतरंगी अरमानों को उड़ान देती एक गुनगुनाती बहार अपने हवा के झोंकों में प्यार भरी खुशबू भर एक ओढऩी की तरह शरीर से लिपट जाती थी। वह घंटों, दिनों और कई बार तो महीनों तक उस खुशबू को अपने भीतर महसूस करती थी।

किसी का हरदम साथ बने रहना एक खूबसूरत जज्बा जरूर है, पर साथ न होने पर भी उसका वजूद का हर पल बने रहना उससे भी खूबसूरत अनुभूति है।

फिर इंतजार लम्बा नहीं लगता।

फिर तनहाइयाँ काटती नहीं हैं।

फिर सन्नाटे में बेचैनी कचोटती नहीं है।

फिर जीवन निष्प्रयोजन नहीं लगता है।

ये सब बातें न तो किताबी हैं, न ही मन की कल्पना के जाल से छनकर निकलीं। ये भोगी हुई संवेदनाओं का निचोड़ हैं।

कहाँ गयीं अब उसकी ये संवेदनाएँ। सर्दियों की गुनगुनी धूप हो या बारिश की भीगी फुहारें, गीली घास पर चलना हो या घंटों यों ही बैठे-बैठे गीत गुनगुनाना। पुराने गानों को सुन एक रुमानियत सी छा जाती थी। प्रकृति से सारा सम्पर्क ही टूट गया है। सतरंगी अरमानों की उड़ान अपना आकाश ही ढूँढ रही है अब।

डेक पर चिल्लाता तेज म्यूजिक, तीन मंजिला आलीशान कोठी के संगमरमरी फर्श और खिड़कियों पर टँगे खास कनाडा से मँगाए परदे, अपनी गरिमा को दर्शाते हुए मानो उसकी भावनाओं का उपहास उड़ाने को तत्पर रहते हैं।

मैं जो मिसेज पराग गुप्ता, अनुभव और अरुणिमा की मम्मी, प्रतिष्ठित व अकूत सम्पत्ति के स्वामी गुप्ता खानदान की बहू के रूप में जानी जाती हूँ, उसका अपना नाम तो भूली-बिसरी याद की तरह सिर्फ शादी के कार्ड पर ही अंकित होकर रह गया है। हीरे के व्यापारियों के विशाल और विदेशी कलाकृतियों से सजे ड्राइंगरूम के ग्लास कैबिनट में क्रिस्टल की बेशकीमती क्रॉकरी के बीच सजा वह कार्ड भी गुप्ता खानदान की रईसी व खुले दिल का परिचायक है।

‘पूरे 1000 रूपए का एक कार्ड बना था। डिजाइनर। साथ में पिस्ते की लौज का डिब्बा कार्ड के साथ दिया गया था।’ पिछले 10 बरसों से वह यह वाक्य न जाने कितनी बार सुन चुकी है। बस जब भी वह उस कार्ड में पूर्णिमा वेड्स पराग पढ़ती है तो अपना नाम ही उसके भीतर एक सिहरन सी पैदा कर देता है।

उसके नाम को कितने प्यार से लेता था वह। ‘‘पूर्णिमा की चांदनी की तरह ही खिली लगती हो तुम हमेशा। जब हँसती हो तो न जाने कितनी कलियाँ एक साथ चटक जाती हैं। हर ओर जगमगाहट फैल जाती है, बस अब जल्दी से मेरी दुनिया में आ जाओ और उसे सतरंगी बना दो। चांदनी के हर रूप को मैं अपने में उतारना चाहता हूँ।” प्यार की उत्कृष्ट ऊँचाइयों को छूने लगती थीं उसकी आँखें और वह लजाकर अपनी पलकें झुका लेती थी। फिर झट से वह उसकी काँपती पलकों को चूम लेता था।

कॉलेज के दिनों में परवान चढ़े उनके प्यार का रंग हर गुजरते दिन के साथ गहरा होता जा रहा था। बस अब इंतजार था तो एक हो जाने का। जिस दिन विराट को नौकरी मिली, पूर्णिमा को लगा था कि अब उसके सपनों को सच होने में देर नहीं है। उदास थे तो बस दोनों इस बात से कि नौकरी उसे दूसरे शहर में मिली थी।

पर एक-दूसरे के वजूद का दोनों के साथ हरदम बने रहने ने इस दूरी की भी आधारहीन बना दिया। फिर फोन तो था ही दिलों के तार जोड़े रखने के लिए। उस बार जब दो महीने बाद वह लौटा तो बहुत खुश था। “पूर्णिमा, वहाँ मैंने सारी व्यवस्था कर ली है। एक छोटा-सा फ्लैट भी किराए पर ले लिया है। अपनी गृहस्थी बसाने का हर सामान एकत्र कर लिया है। आज शाम को मम्मी-पापा के साथ तुम्हारे घर आऊँगा। मेरा इंतजार करना।”

रोम-रोम उमग उठा था उसका। ऐसे तैयार हुई मानो आज ही दुल्हन बनने वाली हो। उसके घरवालों को उन दोनों के रिश्ते के बारे में कुछ भी पता न था, पर उसे यकीन था कि उसके मम्मी-पापा अपनी इकलौती बेटी की बात नहीं टालेंगे। फिर यहाँ तो जाति की भी समस्या नहीं थी। फर्क था तो केवल हैसियत का, लेकिन उससे क्या। वह निशिचत थी।

“तुमने इस तरह की कल्पना की भी तो कैसे?” पापा की आवाज ड्राइंगरूम में गूँजी तो घबराकर वह बाहर आयी।

“रिश्ता बराबर वालों में किया जाता है। प्यार का रंग जिम्मेदारियों की पलस्तर चढ़ते ही फीका होने लगता है। घर चलाने की मशक्कत जज्बातों पर पैबंद लगा देती है। यही सच है। खुश रहने के लिए जितना जरूरी प्यार है, उतना ही पैसा भी।”

“आप पूर्णिमा की इच्छा की तो कद्र करेंगे न?” विराट ने किसी तरह अपने को संयत करते हुए पूछा था।

“बिलकुल करूँगा, पर अगर उससे उसकी जिंदगी बदरंग होगी तो बाप होने के नाते ढाल बनकर उसके सामने खड़ा भी हो जाऊँगा।”

“पापा, पर।”

“बस…” पूर्णिमा के विरोध को पल भर में ही झटक दिया गया था।

“मेहमानों को चाय-नाशता सर्व कर आदर से विदा करो।”

कितना कहा था उसने विराट को कि वह सब कुछ छोडक़र आने को तैयार है, लेकिन वह उसके पापा की इज्जत को खाक में नहीं मिलाना चाहता था। माँ-बाप चाहे कितनी मनमानी करें, पर उनका कर्ज बच्चे कभी नहीं चुका सकते।

विराट चला गया और उसके बाद से ही न तो कमल के पत्ते पर ओस मोती की तरह दिखी न ही सतरंगी अरमानों ने उड़ान भरी।

वह मिसेज पराग गुप्ता बन गयी। पापा की हैसियत और गुप्ता खानदान दोनों की इज्जत व सम्मान का मान रखना उसका दायित्व बन गया। उसकी सुंदरता पराग के लिए गर्व का विषय बन गयी, वह जहाँ जाती, केवल उसके रूप का बखान होता। उसके गुण सास-ससुर के लिए अच्छे संस्कार होने का विषय थे पर कभी गुणों की चर्चा नहीं होती, बस हीरे की परख जौहरी ही जानता है, के जुमले हवा में तैरते, उसे एहसास कराते कि देखो हीरे के व्यापारियों ने कैसा हीरा ढूँढा है। उसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़नी चाहिए, नहीं तो शोकेस में रखा अच्छा नहीं लगेगा। बच्चों के लिए वह एक स्मार्ट माँ थी। सबका प्यार, स्नेह और आदर पा वह भी बहुत खुश थी, क्या सचमुच खुश थी—नाखुश होने की वजह कोई थी भी नहीं, पर वह इसलिए खुश थी क्योंकि दूसरे उससे ऐसी उम्मीद रखते थे कि गुप्ता खानदान की हीरे जैसे बहु हमेशा खिलखिलाते हुए अपनी सुंदरता की चमक उनके घर में बिखेरती रहे और उन्हें हर पल एक गर्व के एहसास से सराबोर रहने दे। वरना वह तो इन सबके बीच भी अपने होने के एहसास को हमेशा तलाशती रहती।

होंठों पर थिरकते व्याकुल गीतों को सुन स्वयं भी चटकती कलियों की तरह खिलखिलाना चाहती है। उसकी बंद पलकें उस चुम्बन के लिए आकुल हो उठतीं तो घबरा जाती वह। कितना लम्बा इंतजार हो गया है इस बार। दस साल बीत गए हैं। इस बीच न तो कभी विराट से मुलाकात ही हुई न ही फोन पर बात। मन तो किया कई बार उसका कि नेट पर चैटिंग कर ले, पर शायद कुछ पल उसके लिए चुरा पाना जैसा मुश्किल ही हो गया था।

हर साल की तरह इस बार भी छुट्टियों में घूमने का प्रोग्राम बन रहा था।

“इस बार सिडनी का टूर बनाते हैं।” पराग ने सुझाया तो अनुभव बोला, “नो पापा, न्यूयार्क चलिए। लास्ट ईयर हमने वहाँ कितना एंजॉय किया था।”

“तभी तो इस बार न्यू प्लेस जाएँगे बुद्धू।’’ अरूणिमा ने अपने छोटे भाई को समझाया। सिडनी की जगमगाती रातों में, मखमखली सडक़ों पर से गुजरते, शॉपिंग करते और होटलों में खाना खाते, अपने परिवार को मौज-मस्ती करते देख पूर्णिमा संतुष्ट थी।

पर सतरंगी उड़ान और गुनगुनाती बहार और उसकी मीठी छुअन की चाह उसका मन बार-बार भटका देती। संडे था उस दिन। बच्चे होटल में ही रहकर गेम्स खेलना चाहते थे और पराग अपने किसी मित्र से मिलने गया था। अकेली ही निकल गयी वह सिडनी की सड़कों पर सैर करने। इंडियन फूड सर्व करने वाले होटल में कॉफी पीने के खयाल से घुसी। सोच के पाखी उसके अंतस से निकल यहाँ-वहाँ उड़ने लगे।

“कैन यू गेट मी ए कप ऑफ कॉफी एंड सम स्नैक्स।”

ये आवाज… अचानक पूर्णिमा को लगा जैसे चटकती धूप के टुकड़े उसकी टेबल पर आ नृत्य कर रहे हैं, उसके वजूद में बसी खुशबू चारों ओर गमकने लगी है। उसकी भावनाएँ पायल की रुनझुन की तरह हो गयीं हैं। छन-छन की मीठी सी धुन बजने लगी है हर तरफ।

उसने पलटकर देखा। दोनों की नजरें मिलीं और धडक़नें तेज हो गयीं।

“पूर्णिमा तुम? तभी सोच रहा था कि आज सिडनी की सुबह इतनी चटकीली कैसे हो गयी है।” वही चिर-परिचित अंदाज, आँखों में प्यार और चेहरे पर मासूम मुसकान। विराट से इस तरह मुलाकात होगी, सोचा तक नहीं था।

“कैसी हो?”

“अच्छी हूँ।”

“और तुम?”

उसके बाद मौन पसर गया दोनों के बीच। मानो दस बरसों के उस अंतराल को दोनों इन क्षणों में अपनी मुट्ठी में कैदकर लेना चाहते हों।

“मुझे कभी माफ कर पाओगे विराट?”

“तुमसे कोई शिकायत ही नहीं है। वैसे भी दूरियों कभी भी प्यार के रंग को फीका नहीं कर पाती हैं। तुम आज भी मेरे साथ हो। मेरा वजूद तुमसे ही है।”

“लेकिन मैंने अपना वजूद खो दिया है विराट। इस पूर्णिमा ने बस अलग-अलग भूमिकाओं में अपने को बाँट रखा है। खुद के लिए कभी कुछ करने को मन ही नहीं करता।” उसकी पलकें थरथरा रही थीं।

“नहीं, तुम गलत कह रही हो। अलग-अलग भूमिकाओं में अपने को ढालना बाँटना नहीं होता, बल्कि अपने वजूद को और मजबूत बनाना होता है। मुझे खुशी है कि तुमने सुख और संतोष के बीज अपने परिवार में अंकुरित किए हुए हैं। एक बार अपने दिल के दरवाजे को खोलकर होंठों तक गीतों को आने दो, फिर देखना कैसे वे थिरकेंगे। हमारा प्यार जितना सच है, उतना ही सच तुम्हारा परिवार भी है। तुम सम्बंधों को जिम्मेदारियों की तरह बखूबी निभा रही हो, पर मन के दरवाजे पूरी तरह खोलकर नहीं।”

शाम हो गयी थी। दोनों को ही लौटना था। पर इस बार पूर्णिमा के कदमों में अपने लिए किसी अलग रास्ते को तलाशने के लिए सबसे कट कर चलने की अकुलाहट नहीं थी। उसका वजूद है… रिश्तों के ओर-छोर में लिपटा… पराग, बच्चे, घर-परिवार… क्या इनके बीच रहकर वह अपने वजूद को पंख नहीं दे सकती… सभी तो उसे कितना प्यार करते हैं। कार में बैठकर पलकें बंद कीं तो महसूस हुआ जैसे अब भी हवा में खुशबू तैर रही है, उसके सतरंगी अरमानों को जैसे आसमान मिल गया है।


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Author

  • सुमन बाजपेयी

    सुमन बाजपेयी पिछले तीन दशकों से ऊपर से साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं। 'सखी' (दैनिक जागरण की पत्रिका ), मेरी संगिनी और 4th D वुमन में वो असोशीएट एडिटर रह चुकी हैं। चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट में उन्होंने सम्पादक के रूप में कार्य किया है। सम्पादक के रूप में उन्होंने कई प्रकाशकों के साथ कार्य किया है। अब स्वतंत्र लेखन और पत्रकारिता कर रही हैं। कहानियाँ, उपन्यास, यात्रा वृत्तान्त वह लिखती हैं। उनके बाल उपन्यास और बाल कथाएँ कई बार पुरस्कृत हुई हैं। वह अनुवाद भी करती हैं। सुमन बाजपेयी अब तक 150 से ऊपर पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कर चुकी हैं। हाल ही में प्रकाशित उनके उपन्यास 'द नागा स्टोरी ' और 'श्मशानवासी अघोरी' पाठकों के बीच में खासे चर्चित रहे हैं। उनके बाल उपन्यास तारा की अनोखी यात्रा, क्रिस्टल साम्राज्य, मंदिर का रहस्य बाल पाठकों द्वारा पसंद किये गए हैं।

2 Comments on “कहानी: सतरंगी अरमानों की उड़ान – सुमन बाजपेयी”

    1. कहानी आपको पसंद आयी जानकर अच्छा लगा। उम्मीद है साइट पर मौजूद अन्य कहानियों का भी आस्वादन लेंगे।

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