किसी भी उपन्यास, कथा या फ़ेसबुक पोस्ट का पहला वाक्य एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। आज के समय में पहला वाक्य पढ़ कर ही लोग रचना जाँच लेते हैं, पर यह पहले भी था। शातिर प्रकाशक भी यह खूब समझते हैं। गर आप किताब लिखने बैठे, और पहले वाक्य को बार–बार काट कर ठीक कर रहे हैं, तो उस उपन्यास का श्रीगणेश ही बेड़ागर्क। पहला वाक्य तो बस दिल से आ जाना चाहिए। उस उपन्यास की किस्मत उसी वाक्य से लिखी जाएगी।
अब यहाँ निबंध और उपन्यास में अंतर है। निबंध का पहला वाक्य पूरे निबंध का एक सार भी हो सकता है। जैसे बचपन का मशहूर निबंध ‘गाय एक चौपाया जानवर है’। निबंध में हमें शुरूआत से सस्पेंस बनाने की जरूरत नहीं। हम सीधी बात कर मुद्दे पर पाठक को ला रहे हैं। अख़बारी लेखों में भले ही शुरूआत में कुछ सवाल पूछ कर रूचि जगाई जा सकती है। जैसे ‘क्या आप भी मानते हैं कि…’।
उपन्यास का मामला अलग है। मैं पुराने लेखकों की अभी बात नहीं करूँगा।
मानव कौल लिखते हैं, ‘कल रात एक सपना देखा।’
अब पाठक जाहिर है कि किताब वापस नहीं रखेगा। उससे जानना होगा कि आखिर सपना क्या देखा। और वो वक्त लेकर ही यह बताएँगे। तब तक किताब पाठक को जकड़ चुकी होगी।
संदीप नैयर लिखते हैं, – ‘आपका नाम?’ उसकी सलेटी आँखों में मुझे एक कौतुक सा खिंचता दिखाई दिया।
किसकी आँखों में? लेखक ज़रूर किसी आकर्षक स्त्री से बात कर रहे है। आगे क्या हुआ? देखिए! लेखक ने फिर बाँध लिया। अब आगे कुछ हो न हो।
यह ‘सस्पेंस बिल्डिंग’ एक पहलू है। जासूसी उपन्यासों में भी यही तरीका है। पर कई लेखक इससे अलग भी शुरूआत करते है।
जैसे आर. के. नारायण लिखते हैं, ‘सोमवार की सुबह थी।’
अब इससे नीरस शुरूआत क्या होगी? पर आर.के. नारायण लघु वाक्यों के उस्ताद हैं। जब तक आप राही मासूम रज़ा का पहला वाक्य निपटाते हैं। आर.के. नारायण के चार निपटा चुके होंगे। ऐसे कई लेखक हैं, जो शुरूआत वाक्य से न कर एक रोचक अंतरा से करते हैं। और वो अंतरा इतना दमदार होता है कि आप किताब वापस नहीं रख सकते। बल्कि कई किताबों का वह पहला पैराग्राफ़ आप कभी नहीं भूलते। जैसे ‘लव स्टोरी’ का पहला अंतरा। या डॉन क्विक्ज़ॉट की शुरूआत, ‘ला मान्चा का वो गाँव, जिसका नाम याद करने की मुझे कोई इच्छा नहीं…’
एक और प्रारंभ है, माहौल बनाना। मंच सजाना। यह नाटकों का तो मूल ही है। आप सीधे कथा नहीं शुरू कर सकते। आपको एक–एक बारीकी बतानी होगी कि कहाँ कौन सी चीज कैसे रखी थी। उपन्यास में भी सम्भव है।
नीलोत्पल मृणाल लिखते हैं, ‘अभी सुबह के पाँच बजे थे। चिड़िया चूँ–चूँ कर रही थी। हल्का–हल्का धुँधलापन छितराया था…’
अरूंधति राय भी एमेनेम स्थान के मौसम और उस ग्राम्य वातावरण पर दो पैराग्राफ़ लिख जाती हैं। यह काव्यात्मक गद्य संरचना है। इसमें पाठक वाक्य–संरचना का लुत्फ़ लेता है, माहौल में जाता है। वो किसी सस्पेंस का इंतजार नहीं करता। उसे बस वो गद्य आनंदित करता है।
एक बात तो तय है कि कोई भी लेखक शुरूआत क्लिष्ट और भारी–भरकम भाव से नहीं करता। आरम्भ सहज ही होता है, तभी पाठकों के लिए ग्राह्य होता है। अज्ञेय की ‘शेखर:एक जीवनी’ की शुरूआत आगे की किताब से सहज ही है। राहुल सांकृत्यायन भी कथा/संस्मरण के मध्य में ही गहरे होते हैं। आप यह अगर ठान लें कि पहले वाक्य से ही साहित्य और भावों की झड़ी लगा देंगे, तो यह घातक हो सकता है। मानवीय प्रवृत्ति के विपरीत भी। आप कलम लेकर बैठे, और सीधा गहराई में उतर गए? यह कैसे सम्भव है? इसका अर्थ है कि उपन्यास के साथ छेड़खानी हुई है। पहला वाक्य बदला गया है। आप सहजता से लिख नहीं पा रहे, तो कोई सहजता से पढ़ेगा कैसे?
लेकिन यह भी न हो कि पहला वाक्य कैज़ुअल तरीके से लिख गए। वो पढ़ने में सहज होगा, पर आप उस वाक्य को भूल नहीं पाएँगे। राग दरबारी की पहली पंक्ति देखिए, कितना हल्का, कितना भारी?
‘शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।’
फिर से कह दूँ। गर पहली पंक्ति में कोई लेखक असहज है, तो रुक जाए। कलम तभी उठाए, जब पहली पंक्ति बस यूँ ही सबकॉन्शस से लिख जाए। आगे भले ही वो तमाम जुगत लगा कर सोचता रहे। पर पहली पंक्ति दिल की ही आवाज हो।
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(यह लेख साहिंद में मई 1 2018 को प्रकाशित हुआ था।)