ध्रुवतारे – गुलज़ार सिंह संधू

रेटिंग : 3/5
उपन्यास फरवरी 11 ,2017 से फरवरी,13 2017  के बीच में पढ़ा गया

संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 112
प्रकाशक : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास , भारत (नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया)
अनुवादक : गुलबीर सिंह भाटिया
मूल भाषा : पंजाबी
आई एस बी एन /आई एस बी एन-13: 8123766232 / 9788123766232

पहला वाक्य :
‘क़त्ल, बड़ो अम्मा, क़त्ल!’

कई देशों और शहरों से होता हुआ विक्टर सरस्वती अम्मा के मेनन हाउस पहुँचा था। विक्टर एक अमेरिकी इंजीनियर था जो कि अपने लिए बीवी की तलाश में भारतीय उपमहाद्वीप के चक्कर लगा रहा था। इस तलाश में वो अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और फिर कई भारतीय शहरों से होते हुए कोइम्बटूर में सरस्वती अम्मा के मेनन हाउस में आया था। उसे उम्मीद थी कि इधर जाकर उसकी तलाश समाप्त होगी।

सरस्वती अम्मा महात्मा गांधी से प्रभावित एक सामजिक कार्यकर्ता थीं जिन्होंने कई आश्रमों और अनाथालयों की स्थापना की थी। अब जब उनकी उम्र हो चुकी थी तो अम्मा ने आश्रम की जिम्मेदारी नई पीढ़ी को सौंप दी थी। और वे खुद मेनन हाउस में बहुत सारे बच्चों के साथ रहती थीं।

जब सरस्वती अम्मा ने विक्टर की परेशानी सुनी तो उसे डिंडीगुल शहर के रूद्रापट्टी आश्रम की तरफ यह दिलासा देकर भेज दिया कि उधर उसकी तलाश अवश्य खत्म हो जाएगी। इस आश्रम को राधा कृष्णन, सुम्मा लक्ष्मी और स्कॉटिश महिला मिस एलिज़ाबेथ मिलकर गांधीवादी तरीके से चलाते थे।

उधर अक्सर लोग शादी के लिए लड़की देखने आते थे। हाँ, विक्टर पहला अमेरिकी था जो उधर ले जाया गया था।

कृष्णा, प्रभा और राजू रुद्रापट्टी आश्रम में रहने वाले अनाथ बच्चे थे। उन तीनों में प्रगाड़ मित्रता थी। जहाँ राजू और प्रभा तेज तरार थे वहीं कृष्णा की पहचान सीधी, कम बुद्धि वाली और एक कामचोर लड़की की बनी हुई थी।

जब विक्टर ने कृष्णा को अपनी जीवन संगिनी के तौर पर चुनने का फैसला किया तो सभी हैरान थे।

आगे विक्टर, कृष्णा, राजू और प्रभा के जीवन कैसे बीता यही कहानी है। ध्रुवतारा पृथ्वी से दिखने वाला सबसे रोशन तारा है।  ऐसा क्या हुआ कि आश्रम के साधारण बच्चे कृष्णा, राजू और प्रभा आश्रम के ध्रुवतारे बनकर उभरे।

ध्रुवतारे उपन्यास पंजाबी के जाने माने साहित्यकार गुलज़ार सिंह संधू का पहला उपन्यास था। यह उपन्यास पंजाबी में पहली बार १९८५  (1985)  में कंधी जाय (दीवारों की संतान) के नाम से छपा था। २००५ (2005) में ध्रुवतारे के नाम से इसका पुनः प्रकाशन किया गया। और २०१२ (2012) में  इसका अनुवाद गुलबीर सिंह भाटिया जी ने हिंदी में किया।

कहानी में आने से पहले अनुवाद की ही बात करते हैं। अनुवाद मुझे अच्छा लगा। मेरे हिसाब से एक अच्छे अनुवाद की सबसे बड़ी खूबी ये होती है कि उसे पढ़ते वक्त पता ही न चले कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं। ऐसा लगे की यह लेखक की मूल कृति  है और इस मामले में यह अनुवाद सफल है। इसलिए गुलबीर जी का धन्यवाद।

अब बात किताब की करें तो मैंने ये पुस्तक २०१६ सितम्बर में हुए दिल्ली पुस्तक मेले में ली थी। उसके बाद लेकर रख दी। ये छः महीने का अंतराल मेरे लिए कम ही वक्त है क्योंकि कई उपन्यास ऐसे हैं जिन्हें लिए एक दो साल हो गये और उनका नम्बर ही नहीं आया।

 खैर, उस वक्त जब इस किताब को मैंने उठाया था तो एक बात ने मुझे आकर्षित किया था। इस  उपन्यास की घटनायें डिंडीगुल, तमिल नाडू में घटित होती हैं जो कि एक तमिल बोलने वाला प्रदेश है। लेखक पंजाबी है और उन्होंने पंजाबी में ही इसे लिखा था। और मेरे हाथ में ये अनुवाद हिंदी में था। यानी मैं एक पंजाबी बोलने वाले व्यक्ति की नज़र से तमिल बोलने वाले किरदारों को देख रहा था। ये एक अनूठा अनुभव है। अक्सर जब हम कोई रचना पढ़ते हैं तो जिस भाषा में वो लिखी गयी है उस रचना के पात्र वही भाषा बोलते हैं जैसे अंग्रेजी लिखने वाला व्यक्ति के ज्यादातर पात्र अंग्रेजी बोलने वाले ही होंगे। या पंजाबी वाले के पात्र पंजाबी ही होंगे। ऐसा अनूठा संगम से मैं पहली बार रूबरू हुआ था तो इसलिए मुझे इस उपन्यास को खरीदना ही था।

उपन्यास का नायक विक्टर है जो कि एक अमेरिकन इंजीनियर है और वो  भारतीय उपमह्द्वीप में अपने लिए बीवी की तलाश में आया है। पश्चिमी महीला से हुई शादी के उसके कटु अनुभव रहे है और इसलिए वो ऐसी लड़की चाहता है जो कि कम पढ़ी लिखी हो, जो उसे दबाकर न रखे और जिसका रंग भी श्याम हो। उसकी ये सोच भले ही कटु अनुभव से उभरी हो लेकिन कोई भी कह सकता है गलत है।

वहीं इस उपन्यास की नायिका कृष्णा है। उसे आश्रम में एक मंदबुद्धि लड़की समझा जाता है। वो किसी भी काम में ध्यान नहीं लगाती है और अक्सर कामचोर ही समझी जाती है। वो ऐसा क्यों करती है इसके पीछे भी अपना कारण है।  यह मनोवैज्ञानिक कारण मुझे काफी दिलचस्प और सटीक लगा। वो क्या था ये बताना चाहता तो हूँ लेकिन फिर कहानी पढने में आपको क्या मज़ा आएगा इसलिए उपन्यास में ही पढ़िएगा।

जब विक्टर कृष्णा को देखता है तो उसे महसूस होता है कि यही वो लड़की है जिसके लिए वो दर दर भटक रहा था। आश्रम की अनुमति से उनकी शादी होती है और उनका शादी शुदा जीवन शुरू होता है। लेकिन विक्टर को शादी के बाद पता चलता है कि जो चीज सोच कर उसने कृष्णा से शादी की थी ऐसा नहीं है। उसे लगा था कि वो उसे आसानी से दबा कर रखेगा। उसे ऐसा लगता है कि अगर वो ऐसा नहीं करता है तो उसे इस शादी में भी ऐसा ही दबा रहना पड़ेगा जैसा पिछली शादी में था और वो ऐसा नहीं चाहता है। इसी कारण उन्हें शुरुआत में आपसी सामंजस्य बैठाने में दिक्कते होती हैं। लेकिन वक्त के साथ वो कैसे अपनी गलतियों से सीखते हुए तालमेल बैठाते हैं ये देखना रोचक था। अक्सर हम रिश्तों को पॉवर स्ट्रगल बना लेते हैं। ऐसा कहा भी गया है कि दो व्यक्तियों के बीच में अगर रिश्ता है वो एक व्यक्ति अक्सर ऐसा होता है जिसका उसमें ज्यादा प्रभाव होता है और ऐसे में रिश्ता रिश्ता का पावर की रस्साकस्सी ज्यादा बन जाता है जो रिश्ते में मौजूद दोनों ही के लिए नुक्सानदेय  होता है।

विक्टर और कृष्णा के इलावा उपन्यास के कुछ और महत्वपूर्ण पात्र है। प्रभा और राजू  आश्रम में कृष्णा के सबसे अच्छे दोस्त थे। कृष्णा के विवाह के बाद इनके जीवन में जो बदलाव होते हैं और कैसे जीवन में आगे चलकर ये तीनो दोस्त आश्रम के ध्रुवतारे बनकर उभरते हैं, इस सब के विषय में पढना उपन्यास को पठनीय बना देता है।
इसके इलावा सरस्वती अम्मा किस तरह से इतनी बड़ी सामजिक कार्यकर्ता बनी वो भी उपन्यास का रोचक एव्म प्रेरक हिस्सा है। मिस एलिज़ाबेथ का किरदार भी रोचक है। वो आश्रम में कैसे आई। आश्रम के लोगों से उनके कैसे सम्बन्ध हैं। उधर  उनकी स्थिति कैसी है और वो क्यों इतने साल बाद भी अपने देश स्कॉटलैंड नहीं जाना चाहती है? ये सब पढ़ने से एक नया दृष्टिकोण मिलता है।

अंत में इतना ही कहूँगा उपन्यास पठनीय है। सारे किरदार जीवंत हैं और उपन्यास मुझे पसंद आया। उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है।

इस उपन्यास ने  गुलज़ार सिंह संधू साहब की अन्य कृतियों की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित किया है। अगर मुझे उनका हिंदी अनुवाद मिलता है तो मैं उन्हें जरूर पढूँगा।

अगर आपने उनकी कोई और किताब पढ़ी है और वो आपको पसंद आई तो जरूर कमेंट करके बताईयेगा।


FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *