संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 44 | प्रकाशक: बुल्सआय प्रेस | शृंखला: ड्रैकुला #2
टीम:
कहानी: सुदीप मेनन | कला: दीप जॉय सुब्बा | शब्दांकन, संपादन और ग्राफिक डिजाइन: रवि राज आहूजा
कहानी
पोरस को हराने के बाद ड्रैकुला का सामना अब चंद्रगुप्त से था।
चंद्रगुप्त जो आर्यवर्त के सबसे बड़े राजाओं में से एक था। लोगों को चंद्रगुप्त से बहुत उम्मीदें थी। उन्हें लगता था कि चंद्रगुप्त इस निशाचर और उसके शैतान सेना को धूल चटा देगा पर ऐसा कुछ हो नहीं पाया।
ड्रैकुला ने चंद्रगुप्त को हरा दिया था। लोगों का मानना था कि चंद्रगुप्त या तो मर गया है या वो भाग गया है।
अब आर्यावर्त को ड्रैकुला के काले साये में ही जीना था। उसे उसके जुल्मों को सहना था।
क्या ड्रैकुला का आधिपत्य आर्यावर्त पर कायम रहा?
चंद्रगुप्त कहाँ चला गया था? क्या वो सचमुच मर चुका था?
क्या कभी कोई ऐसा होगा जो कि इस धरती को ड्रैकुला के जुल्मों से निजाद दिला पाएगा?
मेरे विचार
‘ड्रैकुला रेवेलेशन्स’ बुल्सआय प्रेस द्वारा प्रकाशित ड्रैकुला शृंखला का दूसरा भाग है। जहाँ पहले भाग ड्रैक्युला: रक्तिमभूमि में पाठक ने यह देखा कि ड्रैकुला कैसे और क्यों भारतवर्ष की धरती पर आया और कैसे उसने पोरस को अपने जाल में फँसाया। अब दूसरे भाग में पाठक आगे की कहानी देखते हैं। यह कहानी सुदीप मेनन द्वारा लिखी गयी है।
कहानी की शुरुआत ड्रैकुला और चंद्रगुप्त के बीच युद्ध से शुरू होती है। लेखक दो पृष्ठ में यह युद्ध समाप्त कर देते हैं और कहानी को कुछ वर्ष आगे ले जाते हैं। फिर लाल कोठी नाम के वैश्यालय से कहानी शुरू होती है जहाँ देवा नाम के किरदार के माध्यम से हम यह देखते हैं कि चंद्रगुप्त के हार जाने के बाद उसके राज्य का क्या हाल हो चुका है। लेकिन इस राज्य में अभी कुछ लोग हैं जो कि इन निशाचरों के खिलाफ लड़ रहे हैं। यह लोग कौन हैं, देवा से क्या चाहते हैं और क्यों निशाचरों से लड़ रहे हैं? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो आपको पृष्ठों को पलटने के लिए मजबूर कर देते हैं।
कहानी तेजी से भागती है और नए किरदार कहानी में जुडते चले जाते हैं। फिर कहानी में कुछ मोड़ आते हैं और ड्रैकुला को अपना ऐसा प्रतिद्वंदी मिलता है जो कि उसे मात देने की कुव्वत रखता है।
यह प्रतिद्वंदी कौन है? ड्रैकुला को मात किस तरह दी जाती है? इस चाल को कौन चलता है और क्यों चलता है? इन सब प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए आपको इस कॉमिक बुक को पढ़ना पड़ेगा।
कॉमिक बुक की कहानी तेज रफ्तार है और तेजी से चीजें घटित होती हैं। पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे लेखक का मकसद अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ना है और वो किरदारों से केवल उतना काम लेते हैं जितना की जरूरी है। आप पढ़ते हुए सोचते हो कि यह चीज क्यों हो रही है और जब सीन का अंत होता है तो आपको उसका कारण पता लग जाता है पर कुछ अधूरापन भी आपको लगता है। आपको लगता है कि लेखक अगर इधर थोड़ा समय लेते तो बेहतर होता। कई चीजें कहानी में तेजी से भागती हैं। क्योंकि चीजें उस तरह होनी हैं इसलिए वो बस हो जाती हैं। फिर वो देवा का लाल कोठी पहुँचना हो, उसको बचाने वाले का उधर पहुँचना हो, उनका आगे ड्रैकुला के बड़े योद्धा भेकी की माँद में जाना हो, ड्रैकुला के खिलाफ एक व्यक्ति का लोगों को एक जुट करना हो और फिर ड्रैकुला की सेना का हार जाना हो। ये सब चीजें ऐसी थी जो अधिक समय माँग रही थी। जितने भी प्रसंग मैंने दिए हैं अगर लेखक चाहते तो उन प्रत्येक प्रसंगों को दर्शाने के लिए एक कॉमिक बुक लिख सकते थे। पर ऐसा होता नहीं है और लेखक की यह तेजी अंत तक बरकरार रहती हैं।
वैसे तो पढ़ते हुए पाठक चाहता है कि एक तेज कथानक उसे मिले लेकिन अगर यह तेजी के चक्कर में कथानक को विकसित करना रह जाए तो यह कथानक की कमजोरी भी बन जाता है। मुझे लगता है कि यही इस कथानक की कमी भी है।
इसकी तुलना अगर पहले भाग से की जाए तो उधर पोरस की कहानी को काफी समय लेकर कहा गया था। उसके द्वंद, उसकी इच्छाओं, उसकी असुरक्षाओं को लेखक द्वारा काफी अच्छे से दर्शाया गया था। अगर ऐतिहासिक तौर पर देखें तो चन्द्रगुप्त और चाणक्य पोरस से रोचक किरदार हैं। लेखक अगर चाहते तो ड्रैकुला के चंद्रगुप्त और चाणक्य से हुए इस टकराव को और बेहतर तरीके से दर्शा सकते थे।
कहानी का अंत रोचक है। लेखक इसमें ट्विस्ट भी लाते हैं जो कि कथानक में आपकी रुचि बरकरार रखता है पर जिस तरह से ड्रैकुला को काबू किया जाता है वो जल्दबाजी में किया गया लगता है।
कथानक के अंत तक पहुंचते पहुंचते लेखक कहानी को बुल्सआय की यज्ञा शृंखला के अंक तीन चार आए एक किरदार से जोड़ देते हैं और साथ ही अगले भाग का संकेत भी दे देते हैं। यह दोनों बातें ही मुझे अच्छी लगी।
मुझे लगता है कि ड्रैकुला शृंखला का अगला भाग आएगा तो मैं उसे जरूर पढ़ना चाहूँगा लेकिन ये भी चाहूँगा कि लेखक उस कथानक को लिखने में अधिक तेजी न दिखाए और प्लॉट को ढंग से डेवलप करे। अगर वो आर्क दो के बजाए पाँच कॉमिक बुक तक जा रहा है तो उसे कहानी को दो में न ठूँसे।
आर्टवर्क की बात करूँ तो इसका आर्टवर्क मुझे काफी पसंद आया। भले ही कहानी का अधिकतर हिस्सा रात को घटित होता है लेकिन कहानी के उतार चढ़ाव को दर्शाने के लिए कलरिस्ट द्वारा अलग अलग तरह के टोन जैसे हल्का लाल या गुलाबी, पीला, नीला, काला इत्यादि का प्रयोग किया गया है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर कलर टोन की इतनी समझ नहीं है लेकिन जो इफेक्ट इनके होने से पैदा होता है वह आपकी नजर कॉमिक बुक के पैनल पर टिका कर रख देता है।
अंत में यही कहूँगा कि ड्रैकुला का यह दूसरा भाग चंद्रगुप्त और चाणक्य जैसे ऐतहासिक किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाता है। मुझे लगता है कि कथानक को और पृष्ठ दिए होते तो कुछ चीजों को लेखक विस्तार दे पाते और इस कारण कथानक काफी अच्छा बन सकता था। अभी यह एक्शन से भरपूर कॉमिक बुक जरूर है लेकिन एक तरह की असंतुष्टि और अधूरेपन का भाव भी मन में जगाता है। एक बार पढ़ सकते हैं।
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