संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 50 | प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास | अनुवाद: संध्या तिवारी | चित्र: शिशिर दत्ता
पुस्तक लिंक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
कहानी
विक्रमपुर से थोड़ी दूर देवला में पर्यटकों का शिविर था जहाँ क्षेत्र का सबसे बड़ा साप्ताहिक बाजार लगता था। रामू, शेखर और जय उस दिन अपने गाँव विक्रमपुर से आकर यहीं पर फिल्म देखने गए थे जब लौटते हुए अचानक आयी बाढ़ ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया।
नदी की इस बाढ़ में वह किसी तरह बच तो गए लेकिन इस दौरान उन तीनों की ज़िंदगी में एक और दोस्त जुड़ गया।
यह उनका चौथा मित्र था जिससे इस बाढ़ से बचने के दौरान उनकी मित्रता हुई थी।
आखिर कौन था ये चौथा मित्र?
मुख्य किरदार
घानू – विक्रमपुर के जमींदार का एक चौकीदार जिसकी उधर काफी पूछ थी और जो घानू गुंडे के नाम से मशहूर था
बिपिन – जय के मामा के गाँव सुमनपुर में रहने वाला एक व्यक्ति जिसने कभी चिड़ियाघर में कार्य किया था
विचार
‘चौथा मित्र’ उड़िया और अंग्रेजी भाषा के कथाकार मनोज दास की अंग्रेजी कथा द फोर्थ फ्रेंड का हिंदी अनुवाद है। यह पुस्तक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) द्वारा प्रकाशित की गई है।
यह मूलतः विक्रमपुर के तीन बच्चों शेखर, रामू और जय की कहानी है। यह तीनों अपने गाँव से दूर देवला नामक जगह से जब सिनेमा देखकर लौट रहे होते हैं तो बाढ़ और तूफान की चपेट में आ जाते हैं। इस तूफान में उन्हें एक दोस्त मिलता है। यह दोस्त कौन है और कैसे वो इस दोस्त को उसकी सही जगह पहुँचाते हैं यही कथा बनती है।
यह कथा चार अध्यायों में विभाजित है। पहले अध्याय में दोस्तों की मुलाकात अपने चौथे दोस्त से होती है। दूसरे में बाढ़ से बचकर चारों गाँव के लिए निकलते हैं। तीसरे में वो गाँव पहुँचकर दोस्त को छुपाते हैं, उसके खाने-पीने का इंतजाम करते हैं। चौथे और आखिरी अध्याय में दोस्त के चक्कर में गाँव में हड़कंप मचता है और कथा आखरी पड़ाव तक पहुँचती है।
कथानक की बात करूँ तो यह थोड़ा ज्यादा ही सरल है। कथानक में रोमांच और बढ़ाया जा सकता था। बच्चों द्वारा दोस्त का ख्याल रखने के लिए जिन मुसीबतों से जूझना पड़ा उनकी संख्या बढ़ाई जाती तो कथानक और रोमांचक हो सकता था। फिर बाघ के गाँव में पहुँचने के बाद की चीजों को केवल बताया गया है। यह चीज अलग अध्यायों में दर्शाई जाती तो शायद और रोमांचक हो जाती। फिर भी कथा पठनीय है।
जहाँ एक तरफ यह कथा चार दोस्तों की हैं वहीं दूसरी इस कथा के माध्यम से लेखक ने कई मुद्दों पर बात की है।
कहानी एक गाँव की है जो अभी भी आधुनिक दुनिया से दूर है। यहाँ के लोग अभी भी अंधविश्वासों से जुड़े हैं और बच्चे ये बहस करते हैं कि सिनेमा में दिखती चीजें शायद तंत्र मंत्र से जुड़ी है। यह जकड़ कहानी में मौजूद दादी और ग्रामोफोन वाले प्रसंग से भी उजागर होती है।
गाँव के नायब और उनके दामाद के माध्यम से ये दर्शाया है कि कैसे दहेज प्रथा के चलते कई बार एक बेटी के बाप को मजबूर किया जाता है।
वहीं गाँव में होने वाले घानू गुंडा के प्रसंग से यह दर्शाया है कि कैसे कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए मंदिरों से मूर्तियों की चोरी करने लगे हैं।
चूँकि इस कथा में ग्रामोफोन का जिक्र है तो यह तो तय है कि यह कथा काफी पुरानी है लेकिन आज के समय में भी हम देखें तो आज भी समाज में अंधविश्वास है, दहेज प्रथा भी है और मंदिरों से मूर्तियों की चोरी भी चल ही रही है। ऐसे में यह कथा भले ही ग्रामोफोन के जमाने में लिखी गई हो लेकिन आज भी प्रासंगिक है।
कहानी की कमी की बात करूँ तो रोमांच की थोड़ा कमी जिसे मैं ऊपर बता ही चुका हूँ के अलावा इसका अनुवाद थोड़ा बेहतर हो सकता था। अभी कुछ-कुछ जगहों पर अनुवाद खटकता है और ऐसे लगता है जैसे अंग्रेजी से सीधे ही अनुवाद कर दिया गया है। अनुवाद का संपादन थोड़ा होता तो सही रहता। उदाहरण:
“तुमने ऐसा कैसे सोच लिया? क्या हम आदमी नहीं हैं? हम अपने जीवन में क्या कर पाएँगे, अगर हम बकरी के मामूली से बच्चे को भी पकड़कर न ला पाए तो?” को अगर यूँ करते तो बेहतर न होता: “तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया? क्या हम मर्द नहीं है? अगर हम एक छोटे से बच्चे को भी पकड़कर न ला पाए तो आगे जाकर हम अपनी ज़िंदगी में क्या कर पाएँगे?” (पेज 27)
ऐसी कई जगहें थी जहाँ मुझे लगा अनुवाद पर काम हो सकता था। यह चीज डायलॉग्स में सबसे ज्यादा बार लगी थी।
पुस्तक के विभिन्न पहलुओं की बात कर रहे हैं तो कथानक में प्रयोग किए गए चित्र भी इस पुस्तक का एक पहलू हैं। चित्र शिशिर दत्ता द्वारा बनाए गए हैं और सुंदर हैं। यह कथानक पढ़ने के अनुभव को और अच्छा बनाते हैं।
अंत में यही कहूँगा कि मनोज दास की चौथा मित्र एक बार पढ़ा जा सकता है। इसमें रोमांच के तत्व और अधिक समाहित होते और अनुवाद पर थोड़ा और काम होता तो कहानी और बेहतर बन सकती थी।
पुस्तक लिंक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
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