पुस्तक टिप्पणी: विधवा का पति – वेद प्रकाश शर्मा

पुस्तक टिप्पणी: विधवा का पति - वेद प्रकाश शर्मा

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 252 | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स

पुस्तक लिंक: अमेज़न

कहानी

उस युवक को जख्मी हालत में अस्पताल लाया गया था। ट्रक से उसकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया था। उसके तन पर महँगे कपड़े थे और बटवे में काफी पैसे पड़े थे।

पर उस युवक को अपने विषय में कुछ याद नहीं था।

डॉक्टर का मानना था कि वह युवक असल में अपनी याददाश्त खो चुका था।

वहीं पुलिस के लिए उसकी याददाश्त का लौट आना बहुत जरूरी था।

आखिर कौन था ये युवक?

क्या वो सच में अपनी याददाश्त खो चुका था?

पुलिस के लिए उसकी याददाश्त का आना इतना जरूरी क्यों था?

विचार

वेद प्रकाश शर्मा हिंदी लोकप्रिय लेखन के वो लेखक रहे हैं जिनके उपन्यासों की अपने समय में काफी धूम रहती थी। उनके उपन्यास जहाँ अपने घुमावदार कथानक के लिए जाने जाते थे वहीं अपने आकर्षक शीर्षकों के लिए भी मशहूर थे। पुस्तक का शीर्षक कुछ यूँ होता था कि पाठक बरबस ही ये सोचने को उत्सुक हो जाता था कि इस शीर्षक से आये उपन्यास की कहानी क्या होगी। अब प्रस्तुत उपन्यास को ही देख लीजिए। ‘विधवा का पति’ अपने नाम से ही एक जिज्ञासा आपके मन में जगाता है कि जब कोई लड़की पति के गुजरने के बाद विधवा होती है तो उसका पति कैसे हो सकता है और अगर है तो उसकी कहानी क्या है?

प्रस्तुत उपन्यास की बात की जाए तो इसमें शीर्षक तो जिज्ञासा जगाने वाला है ही साथ ही कथानक का काफी हिस्सा ऐसे ट्विस्ट और टर्नस से भरा है कि आपको उपन्यास पढ़ते चले जाने पर विवश सा कर देता है।

उपन्यास के केंद्र में एक युवक है जिसका एक्सीडेंट हो चुका है और उसे अस्पताल में लाया गया है। वह युवक कपड़े और चेहरे मोहरे से एक अच्छे घर का खानदानी युवक लगता है लेकिन अपनी याददाश्त खो चुका है। पुलिस को उसके बारे में कुछ ऐसी बातें पता चलती है जो कथानक को उलझाती चली जाती हैं। वहीं जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता है युवक की पहचान और उसके व्यवहार के संबंध में ऐसी बातें पाठक के तौर पर आपको पता चलती हैं कि आप सोचने को मजबूर हो जाते हो कि वह आखिर कौन है? यहाँ ये बताना उचित है कि कथानक में उसकी तीन पहचान सामने आती है और आप सोचने लगते हो कि आखिर इन तीनों पहचान में से उसकी असली पहचान कौन सी है? कई षड्यन्त्र भी उसके खिलाफ होते दिखते हैं और यह क्यों हो रहे हैं इसका जानने की इच्छा भी आपके अंदर बलवती होती चली जाती है।

कथानक तेज रफ्तार है। चीजें आपको तब तक बाँधकर रखती हैं जब तक उसकी तीसरी पहचान आपके सामने नहीं आ जाती है। इसके बाद कथानक थोड़ा अलग दिशा में बढ़ जाता है।

90 के दशक की फिल्मों और उपन्यासों में ऐसे खलनायकों का बोलबाला था जो चेहरे ढक कर और गुप्त संस्था बनाकर अपराध किया करते थे। यह अक्सर सफेदपोश लोग होते थे जो कि चोरी छुपे ये काम करते थे। ऐसा ही कुछ उपन्यास में घटित होने लगता है। ऐसे किरदारों का उपन्यास में आगमन होता है और एक तरह से फंटासी के तत्व इसके चलते आ जाते हैं। यहाँ वर्दी पहने खलनायक हैं, गुप्त संगठन है, रहस्यमय दरवाजे हैं और हाईटेक यंत्र भी हैं। ऐसी बाते अब पढ़ते हुए थोड़ा सा ओवर द टॉप लगती हैं। मुझे लगता है कि अगर लेखक बिना इस दिशा में जाए इस उपन्यास के सस्पेंस को बनाए रख पाते तो बेहतर होता।

फिर भी लेखक की तारीफ इस बात के लिए करनी होगी कि लेखक भले ही इस दिशा में बढ़ते हैं लेकिन ट्विस्ट कथानक में बनाए रखते हैं। जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता जाता है कथानक में हैरान करने वाली चीजें वो लाते चले जाते है। वहीं जितने सवाल उपन्यास पढ़ते हुए पाठक के दिमाग में आते हैं उनके जवाब आखिर में वो दे देते हैं।

कथानक में रहस्य तो है लेकिन कई जगह उपन्यास भावना प्रधान भी हो जाता है। विशेषकर केंद्रीय पात्र और विशेष, जो कि एक आठ साल का बच्चा है, के बीच का रिश्ता बड़ा खूबसूरती से दर्शाया गया है। वह आपके मर्म को छू देता है।

उपन्यास के अन्य किरदारों की बात की जाए तो चटर्जी नामक पुलिस किरदार बड़े रोचक ढंग से गढ़ा गया है। वो आम पुलिसिया नहीं है बल्कि ऐसा पुलिस वाला है जो कि जटिल मामले खोजता है और अपनी सूझ बूझ से उन्हे सुलझाता है। उपन्यास में उसका आना माहौल को और रोमांचक बना देता है।

उपन्यास में एक किरदार रश्मि भी है। उसके पति को गुजरे चार माह गुजर चुके हैं। वह एक सशक्त चित्र की स्वामिनी है जो कि अपने पति की मौत का बदला लेना चाहती है। वह अपने बेटे से प्यार भी करती है और कई बार उसके लिए ऐसे निर्णय ले लेती है जो कि वह लेना नहीं चाहती है। केन्द्रीय पात्र के साथ उसके सीन भी रोचक बन पड़े हैं।

जैसा कि ऊपर बताया है कि उपन्यास में एक समय के बाद कथानक फिल्मी होने लगता है। ऐसे में किरदार भी वैसे हो जाते हैं। जैसे 80 के दशक के मुजरिमों से प्रेरित रंगा बिल्ला की जोड़ी है जो कि खूंखार है, एक तरह के कपड़े पहनती है और डायलॉग भी फिल्मी खलनायकों सरीखे बोलती है। उनके बारे में पढ़कर रंजीत और सुधीर की तस्वीर दिमाग में अपने आप आ जाती है। फिर इधर एक डॉन है जो चेहरा छुपाकर रखता है और उसका मातहत भी है जो कि चांदी के रंग के कपड़े और मास्क लगाये घूमता फिरता है।

कथानक की कमी की बात करूँ तो आखिरी का यह फिल्मी हिस्सा ही इसे थोड़ा कमजोर बनाता है। अचानक से कथानक में आया ये बदलाव कभी कभी ऐसे लगने लगता है जैसे आप दो अलग अलग उपन्यासों को पढ़ रहे हैं।

इसके अतिरिक्त कथानक में एक प्रसंग केन्द्रीय पात्र के अंदर एक जुनून सा आना भी है। इसको थोड़ा बेहतर तरह से क्रियान्वित किया जाता तो बेहतर होता। इसके कुछ चिन्ह उसकी गुजरी ज़िंदगी में भी देखने को मिलते या फिर दर्शाये जाते तो बेहतर होता। अभी ऐसे लगता है जैसे कि केवल कथानक को आगे बढ़ाने के लिए इसे लाया गया है क्योंकि जिस हिसाब से केंद्रीय पात्र का किरदार दर्शाया गया है उससे ये नहीं लगता कि उस कारण से उस पर कोई ऐसा जुनून सवार होगा।

कथानक में मैंने ऊपर बताया है कि मुख्य अपराधी का एक माथात है जो कि चांदी के रंग की वर्दी पहने रखता है। उपन्यास का एक दृश्य है जिसमें वो एक धनाढ्य व्यक्ति के यहाँ जाकर एक कत्ल करता है और कत्ल करते हुए अपनी ये चांदी के रंग की वर्दी पहने हुए होता है। यह हास्यजनक लगता है। उस वक्त आप खुद को ये सोचने से नहीं रोक पाते हो कि इतनी रात गए कोई व्यक्ति अपने जिस्म पर ये वर्दी डाले घूमेगा तो क्या पुलिस की नज़रों में न आ जाएगा? ऐसा भी हो सकता है कि उसने ये वर्दी केवल कत्ल करने के लिए पहनी हो पर ऐसा कोई क्यों करेगा। कोई समझदार व्यक्ति होगा तो वो तो रुमाल चेहरे पर बाँधकर ही हत्या कर सकता था। यहाँ तो केवल केन्द्रीय पात्र का काम आसान करने के लिए लेखक ने करवाया था जो कि सीन को कमजोर कर देता है।

इसके अतिरिक्त आखिर में एक ट्विस्ट आता है जहाँ गुनाहगार को उसके गुनाहों की सजा दी जाती है। वह भी थोड़ा अविश्वसनीय लगता है। यहाँ इतना ही कहूँगा कि एक आठ वर्षीय बालक को शायद ही इस बात की जानकारी हो कि डॉक्टर के यहाँ मौजूद कौन सी चीज प्राणघातक होगी। इसे थोड़ा और विश्वसनीय बना पाते तो बेहतर होता।

अंत में यही कहूँगा कि ‘विधवा का पति’ एक बार पढ़ा जा सकता है। उपन्यास का काफी हिस्सा आपको बाँधकर रखेगा। हाँ, जहाँ पर कहानी अपना रूप परिवृतित करती है और कथानक फिल्मी होने लगता है वहाँ के बाद अगर आप लेखक की बनायी इस दुनिया पर विश्वास कर पाए तो आप इस हिस्से का आनंद ले सकेंगे लेकिन अगर विश्वास न कर पाए तो शायद आखिरी का ये हिस्सा आपको निराश कर दे।

पुस्तक लिंक: अमेज़न


FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

2 Comments on “पुस्तक टिप्पणी: विधवा का पति – वेद प्रकाश शर्मा”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *