संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | प्रकाशक: प्रकाशन विभाग | पृष्ठ संख्या: 61 | चित्रांकन: शिवानी | आवरण सज्जा: बिंदु वर्मा | सम्पादक: फरहत परवीन
पुस्तक लिंक: अमेज़न
डॉ. विमला भण्डारी ने बाल साहित्यकार के रूप में तो एक विशिष्ट पहचान बनाई ही है, साथ ही बाल साहित्य के उन्नयन में भी उन्होंने असाधारण कार्य किया है। बाल मन को वह बखूबी समझती हैं और विभिन्न विधाओं में उनकी कलम बहुत सहजता से चलती है। एक बार फिर उन्होंने एक रोमांच से भरपूर जासूसी उपन्यास लिखकर यह सिद्ध कर दिया है कि वह जासूसी की बारीकियों को भी उकेरने की क्षमता रखती हैं।
‘द ऑरबिट आई-मंजूरानी और मूर्तिचोर’, यह बाल उपन्यास मूर्ति चोरी की गुत्थी को तो सुलझाता ही है साथ ही इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने अन्य पहलुओं को भी रेखांकित किया है। जैसे लड़की किसी केस को सुलझा सकती है, यह बात लोगों के लिए स्वीकार कर पाना या फिर उसका सहजता से लोगों से मित्रता कर पाना। लड़कियाँ जो चाहे कर सकती हैं, उपन्यास इस विषय के इर्द-गिर्द भी लगातार बहुत सूक्ष्म ढंग से घूमता प्रतीत होता है। इस विषय को उठाना इसलिए भी जरूरी है ताकि आज के समय के बच्चे यह जान सकें और उस पुरानी धारणा से बाहर निकल सकें कि कठिन काम लड़कियों के लिए कर पाना असम्भव है।
उदयपुर जैसे शहर की पृष्ठभूमि में लिखे उपन्यास में जंगल की कहानी भी है और गाँव के जीवन की झलक भी। यहाँ प्रकृति चित्रण भी है और उससे जुड़ी अनोखी जानकारियाँ भी जो गुत्थी सुलझाने के बीच कहानी के आकर्षण को और बढ़ा देती हैं।
प्राइवेट जासूस मंजूरानी को दिल्ली से उदयपुर से सटे गाँव में होने वाली मूर्तियों की चोरी का पता लगाने के लिए गाँव की सरपंच मुन्नी देवी द्वारा बुलाया जाता है। मंदिर में हुई मूर्ति की चोरी की वजह से उन्हें जन आक्रोश का तो सामना करना ही पड़ रहा था साथ ही प्रशासन और सत्तारूढ़ पार्टी का विरोध भी सहना पड़ रहा था। सरपंच और उसके पति धूला भाई की मदद से मंजूरानी ने वहाँ के पुलिस अधिकारी से सम्पर्क किया और दो कांस्टेबल के साथ केस सुलझाने में जुट गयी। इस दौरान उसकी मुलाकात कचरू नामक लड़के से हुई जिसकी काबिलियत से प्रभावित हो उसने उसे अपना असिस्टेंट बना लिया। कचरू की खासियत थी कि वह किसी भी तरह की खुशबू को पहचान सकता था। मंजूरानी के शक के घेरे में जितने लोग आते हैं और जितने सुराग मिलते हैं, सब की बारीकी से पड़ताल करती है। हालाँकि लड़की होने की वजह से कई बार उस पर संदेह भी किया जाता है कि वह मूर्ति चोरी के मामले को सुलझा पाएगी भी कि नहीं। लेकिन आत्मविश्वास और निडरता के साथ मंजूरानी अपनी जाँच जारी रखती है।
मंजूरानी के व्यक्तित्व को लेखिका ने बहुत कुशलता से गढ़ा है। वह कैसे निर्णय लेती है और एक-एक सिरे को जोड़कर किस तरह मामला सुलझाती है, कहानी में बहुत ही दिलचस्प ढंग से दिखाया गया है।
जासूसी कहानी के तमाम तत्वों का समावेश इस उपन्यास में है। अचानक किसी पर शक जाना और जब लगे कि वही अपराधी है तो कोई और सुराग हाथ लग जाना… कौतूहल बनाए रखने के लिए आवश्यक होता है।
पुराने रहस्यमय जल कुंड में उतरकर मंजूरानी का मूर्तियों का पता लगाना कहानी को चरम पर पहुँचा देता है। अपराधी कौन है, यह जानने के लिए उपन्यास पढ़ना होगा पाठकों को। अंत में मंजूरानी का कचरू को अपने साथ दिल्ली ले जाना एक भावनात्मक पक्ष की ओर इंगित करता है। कचरू भी उसके जैसा जासूस बनना चाहता है और वह भी उसकी योग्यता को निखारना चाहती है। उन दोनों की दोस्ती को भी लेखिका ने बहुत ही सुंदर ढंग से व्यक्त किया है।
पर्यावरणीय मुद्दों पर भी लेखिका ने प्रकाश डाला है। जैसे आग लग जाने की वजह से जंगलों का वीरान हो जाना। थूला भाई उसे बताता है:
“अब केवड़े की नाल के जंगल पहले जैसे नहीं रहे। इन जंगलों में न तो अब इतने अधिक हिंसक जानवर हैं और न ही बड़े पेड़, न ही बहते झरने। इन जंगलों में अब तो केवल मवेशियों के खाने के लिए चारा उगता है। वह भी जलकर राख हो गया तो क्या होगा? कुछ जानवर बचे हैं वह भी इस आग में जलकर खत्म हो जाएंगे तो फिर जंगल में बचेगा ही क्या?”
पृष्ठ संख्या 6
महुआ के बीजों को एकत्र करने और पहाड़ की चोटी पर बीज की गेंद फेंक देने जैसी रोचक जानकारी बाल पाठकों को ही नहीं, वयस्कों को भी बहुत पसंद आएगी। बीज की गेंद के बारे में कचरू की माँ बताती है कि:
“पहाड़ पर पेड़ लगाने के लिए जाना मुश्किल है इसलिए हम पहाड़ के बीच जाकर थोड़ा नीचे से पहाड़ की चोटी पर यह बीज की गेंद फेंक देते हैं। इस एक गेंद में कई तरह के बीज हैं जो मौसम के अनुकूल होने पर उग जाते हैं और पहाड़ी हरी-भरी हो जाती है।”
पृष्ठ संख्या 32
गाँववालों की आस्था और सरलता का वर्णन बहुत खूबसूरती से किया गया है।
वे ग्रामीण महिलाएँ स्थानीय भाषा में भजन गाने लगीं। उनके भजन के साथ ढोलक की थाप और मंजीरे की टनकार वातावरण में रस घोल रही थी। मंजूरानी के चेहरे के हाव-भाव से स्पष्ट था कि उसे भाषा समझ में नहीं आ रही थी परंतु इस सुर-लय में बहुत आनंद आ रहा था। लगभग आधे घंटे तक भजन कीर्तन का भक्ति रस बरसता रहा।
पृष्ठ संख्या 14 -15
शिवानी द्वारा बनाए गए कहानी के चित्र आकर्षक हैं और कहानी पढ़ने के अनुभव को बढ़ा देते हैं। बाल पाठकों को आकर्षित करने में यह चित्र पूरी तरह से सफल होते हैं।
कहानी की कमियों की बात करें तो एक दो चीजें थीं जिन पर ध्यान दिया जा सकता था। मसलन एक ही वाक्य में एक ही शब्द दो बार प्रयोग करने से बचा जा सकता था। जैसे:
मंजूरानी ने दरवाजे की मजबूती परखने के लिए दरवाजे की चौखट पर हाथ लगाने से पहले अपना बैग खोला।
पृष्ठ संख्या 10
उपन्यास की शैली, संवाद और भाषा सुरुचिपूर्ण है, हालाँकि अंग्रेजी के कई शब्दों की जगह हिंदी शब्द आसानी से प्रयोग किए जा सकते थे ताकि निरंतरता बनी रहे। जैसे कनेक्टिविटी की जगह सम्पर्क, कस्टडी की जगह हिरासत, नोटिस की जगह गौर, आदि। साथ ही रेस्ट हाउस और कहीं-कहीं विश्रांतिग्रह लिखा गया है। चाहे तो केवल रेस्ट हाउस का ही प्रयोग किया जा सकता था।
अंत में यही कहूँगी कि ‘द ऑरबिट आई मंजूरानी और मूर्तिचोर’ निस्संदेह जासूसी बाल उपन्यास की श्रेणी में उपन्यास अपनी एक जगह बनाएगा।
पुस्तक लिंक: अमेज़न