संस्करण विवरण
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 117 | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | शृंखला: विजय रघुनाथ
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
होटल डी गारिका के रेस्तराँ में जब विजय रघुनाथ के साथ दाखिल हुआ था तो उसका मकसद रघुनाथ के साथ थोड़ा मौज मस्ती करने का था।
लेकिन उसका मकसद तब धरा का धरा रह गया जब किसी ने गोली चलाकर वहाँ मौजूद व्यवसायी मीर कासिम की हत्या कर दी।
पर हत्याओं का ये खेल तो अब शुरू हुआ था। शहर में अभी और हत्याएँ होनी बाकी थी।
आखिर होटल में हुई इस हत्या के पीछे कौन था?
यह हत्या क्यों हुई थी?
क्या विजय इस हत्या के पीछे के रहस्य का पता लगा पाया?
किरदार
मीर कासिम – मेहताब क्रीम का मालिक। उसकी डी गारिका होटल में हत्या हुई थी
अशरफ – एक सीक्रेट एजेंट
प्रताप – एक अपराधी
लखीराम – एक जौहरी
राज नारायण सिन्हा – एक व्यक्ति जिसे ब्लैक मेल किया जा रहा था
भवानी शंकर – सुप्रीम कोर्ट का वकील
विचार
‘तीन हत्या’ लेखक वेद प्रकाश काम्बोज का लिखा विजय रघुनाथ शृंखला का उपन्यास है। उपन्यास नीलम जासूस कार्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया है।
यह एक अपराध कथा है जिसकी शुरूआत होटल डी गारिका में हुए एक कत्ल से होती है। होटल में संयोग से विजय भी रघुनाथ के साथ मौजूद रहता है और वो घटना स्थल पर दो ऐसे लोगों को देख लेता है जिन्हें वह पहचानता है। यही लोग मामले में आगे बढ़ने में उसकी मदद करते हैं। इनसे मिली जानकारी के चलते वो आगे बढ़ता है और उसे पता चलता है कि यह मामला क्या है और किससे जुड़ा हुआ है।
उपन्यास का कथानक 117 पृष्ठों में फैला हुआ है और इसमें घटनाक्रम तेजी से घटित होते हैं। अपनी तहकीकात के चलते जो जानकारी विजय पाता है उस रास्ते पर वो आगे बढ़ता चला जाता है। कथानक इतना पेचीदा नहीं है। रहस्य के बजाए उपन्यास में गति को अधिक महत्व दिया गया है। ऐसे में रहस्य के तत्व होते हुए भी उपन्यास एक रोमांचकथा अधिक बन पड़ा है।
उपन्यास में रहस्य के तत्व भी हैं लेकिन वह इतने मजबूत नहीं है। अपराधी कौन है इसका अंदाज़ा आखिर में आसानी से हो जाता है। वैसे मुझे पढ़ते हुए लगा था कि कहानी में कोई ट्विस्ट होगा। मुझे लगा था की अपराधी के विषय में मेरा अंदाजा गलत होगा लेकिन ऐसा होता नहीं है। ये बात भी रोचक रही कि जिस बात ने अपराधी को मेरी नज़रों में चढ़ाया उसी बात को पकड़कर विजय भी अपराधी की पहचान तक पहुँचता है।
यह उपन्यास काफी वर्षों पहले आया था। ऐसे में जो ट्रिक इधर विजय अपराधियों से राज उगलने के लिए लगाता है वो हो सकता है कि प्रकाशन के समय नवीन लगी हो लेकिन अब आज के समय में उतनी नवीन नहीं लगती है।
किरदारों की बात करूँ तो भले ही इसमें विजय रघुनाथ दोनों शुरुआत में आते लेकिन विजय ही मुख्य तहकिकात करते दिखता है। रघुनाथ उपन्यास में है लेकिन उसका गेस्ट अपीयरेंस ही दिखता है। चूँकि विजय इधर मौजूद है तो उसकी बेतुकी बातें भी उपन्यास में रहती हैं जो कि कभी कभी आपके चेहरे पर मुस्कान भी ला जाती हैं। विजय की रघुनाथ, अशरफ और बाकी किरदारों से की जारी बातें कहानी में रोचकता लाती हैं।
उपन्यास में बाकी किरदार कथानक के अनुरूप हैं।
उपन्यास की भाषा सहज सरल है। उपन्यास छोटे छोटे अध्यायों में विभाजित है। सहज सरल भाषा के चलते उपन्यास पठनीय बन पड़ा है।
उपन्यास की कमी की बात करूँ तो इसकी एक कमी तो यह है कि रहस्य के तत्व इतने मजबूत नहीं है। अगर आपको जटिल घुमावदार कथानक पसंद आते हैं तो यह आपको थोड़ा निराश कर सकता है। विजय के पास शुरुआत में ही मामले में आगे बढ़ने के लिए काफी धागे मौजूद होते हैं जिन्हें पकड़कर वह आगे बढ़ता चला जाता है। फिर जब वो फँसता भी है तो खलनायक इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि उसके पास क्लूज पर्याप्त मात्रा में रहें। ऐसे में विजय को ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं पड़ती है।
उपन्यास के अतिरिक्त प्रस्तुत संस्करण में प्रूफ रीडिंग और सम्पादन की काफी कमी देखने को मिलती है। उपन्यास में कई वाक्य ऐसे हैं जो या तो अधूरे हैं या लिए उनमें मौजूद शब्दों में वर्तनी की गलतियाँ हैं। जैसे कई जगह अ और आ की जगह प्र और प्रा हो गया है। आदेश है तो उसे प्रादेश लिखा गया है। अथवा प्रथवा लिखा गया है। चूँकि उपन्यास इतना बड़ा नहीं है तो ऐसी गलतियाँ खलती हैं और पढ़ने के अनुभव को खराब करती हैं। उदाहरण के लिए:
डी गारिका पहुँचे। मैं चचा कासिम को साथ रखे रहा। लगभग साढ़े छः बजे के कासिम की मेज पर पहुँचा।
ठीक छः बजे हम दोनों होटल में अलग रहे किन्तु उन पर ही नजर रही। (पृष्ठ 20)
मामले में अभी तक केवल दो ही आदमी हैं जिन्हें ब्लैकमेल किया जा रहा था और वह जो कि तक ब्लैकमेलर का सवाल है उसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती कि वह अपने आसामी की फोटो ले। (पृष्ठ 24-25 )
मैंने हाँ कहते से पूर्व उससे काम पूछा तो उसने बताया कि होटल डी गारिका में कुछ आदमियों की फोटो उतारनी है। (पृष्ठ 31)
किन्तु वहाँ से जाने से पहले उन्होंने विजय को ऊपर से नीचे अवश्य देखा किन्तु प्रताप भी और उनमें से किसी ने भी नजर नहीं डाली। (पृष्ठ 39)
अंत में यही कहूँगा कि अगर आप गुजरे जमाने की रोमांचकथाएँ पढ़ने के शौकीन हैं तो विजय के इस कारनामें को पढ़ सकते हैं। उपन्यास पठनीय है और मामला सरल होने के बावजूद आपको अंत तक बाँधकर रखता है।
पुस्तक लिंक: अमेज़न
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