संस्करण विवरण
फॉर्मेट: ई बुक | प्रकाशन: डेलीहंट | पृष्ठ संख्या: 115 | श्रृंखला: सुनील सीरीज #5 | प्रथम प्रकाशन: 1966
किताब लिंक: किंडल
कहानी:
दीवानचंद वर्मा एक ऑटो मोबाइल कम्पनी में मैनेजर था। वह विवाहित था और उसका डेढ़ वर्ष का बच्चा भी था। कुछ दिनों पहले जब वो विशालगढ़ गया तो एक लड़की सोनाली से मिला और वही लड़की अब उसकी मुसीबत का बायस बनी थी।
वहाँ उनके बीच कुछ ऐसा हो गया था जिसके कारण कोई था जो उसे ब्लैकमेल कर रहा था।
दीवानचंद अब सुनील के पास आया था ताकि वह इस मुसीबत से उसे छुड़वा सके। वह चाहता था कि सुनील विशालगढ़ जाए और इस मुसीबत से उसका पीछा छुड़ाए।
सुनील विशालगढ़ तो पहुँचा और उसने ब्लैकमेलर का पता भी लगाया लेकिन सुनील के ब्लैकमेलर के पास पहुँचने से पहले ही उसकी हत्या कर दी गयी।
आखिर कौन था जो दीवानचंद को ब्लैकमेल कर रहा था?
ब्लैकमेलर की हत्या किसने की थी?
क्या सुनील इस राज से पर्दा उठा पाया?
मुख्य किरदार:
सुनील कुमार चक्रवर्ती – ब्लास्ट का करसपोंडेंट
प्रमिला – सुनील की पड़ोसी और ब्लास्ट में सहकर्मी
दीवानचंद – ऑटो कम्पनी में मैनेजर
मगन भाई – विशालगढ़ में आयोजित कॉन्फ्रेंस का प्रेसिडेंट
सोनिया – कांफ्रेंस में शामिल एक लड़की
चन्द्रशेखर – सोनिया का पति
निर्मला – दीवानचंद की पत्नी
बिहारी – चंद्रशेखर का जीजा
जानकी – चंद्रशेखर की बहन
पाल – सीक्रेट सर्विस का अफसर
रामसिंह – पुलिस सुपरिटेंडेंट
माधुरी – नर्स
विचार:
ब्लैकमेलर की हत्या सुनील श्रृंखला का पाँचवा उपन्यास है। यह एक छोटे कलेवर का उपन्यास है जो कि प्रथम बार 1966 में प्रकाशित हुआ था। मैंने जिस संस्करण को पढ़ा है वह ई-बुक के फॉर्मेट में डेलीहंट द्वारा प्रकाशित किया गया संस्करण था। आप यह उपन्यास अब किंडल पर भी पढ़ सकते हैं।
अगर आप सुरेन्द्र मोहन पाठक के किरदार सुनील कुमार चक्रव्रती से वाकिफ नहीं है तो संक्षिप्त में इतना बताना काफी होगा कि सुनील कुमार चक्रव्रती एक खोजी पत्रकार है जो कि राजनगर नाम के शहर में रहता है और ब्लास्ट नामक अखबार में कार्य करता है। अक्सर अपने पेशे के चलते या किसी की मदद करने के कारण वह ऐसे मामलों की तहकीकात में शामिल हो जाता है जो कि किसी अपराध से जुड़ा होता है। वह इन मामलों को किस तरह सुलझाता है यही इस उपन्यास का कथानक बनता है।
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प्रस्तुत उपन्यास ब्लैकमलेर की हत्या में भी जो घटनाक्रम होता है वह सुनील के रुपयों के एवज में दीवानचंद नाम के शख्स की मदद करने के कारण ही होता है। दीवानचंद की परेशानी को हल करने के लिए सुनील विशालगढ़ नामक जगह जाता है जहाँ उपन्यास का काफी घटनाक्रम घटित होता है।
ब्लैकमेलर की हत्या सुनील के बाकी उपन्यासों से काफी अलग है। एक तरफ तो यहाँ पर सुनील एक प्राइवेट डिटेक्टिव की तरह कार्य करता दिखता है। वह ब्लास्ट के पत्रकार की हैसियत से नहीं बल्कि दीवानचंद द्वारा काम पर लगाये जाने के कारण मामले के बीच में पड़ता है। वो जुदा बात है कि आखिर में वह इससे भी अपने लिए एक खबर निकलवा ही लेता है। वहीं दूसरी तरफ जहाँ ज्यादातर उपन्यासों में उसके लिए लेग वर्क रमाकांत और यूथक्लब के दूसरे लोग करते दिखते हैं यहाँ वह अपना काम ज्यादातर खुद ही करता दिखाई देता है।
उपन्यास ब्लैकमेल से शुरू होकर एक हत्या के मामले में तब्दील हो जाता है। हत्या में सुनील और उसका क्लाइंट के फँसने की सम्भावना हो जाती है इसलिए सुनील के लिए असल कातिल का पता लगाना जरूरी हो जाता है। जैसे जैसे मामले के भीतर सुनील जाता है उसे कथानक में शामिल किरदारों के विषय में ऐसी जानकरियाँ उसे पता लगने लगती हैं जिससे हत्या का शक कई किरदारों पर उसे होने लगता है। उपन्यास की खूबी यह है कि अंत तक यह पता लगाना मुश्किल होता है कि कातिल असल में कौन है? यह जुदा बात है कि कातिल की पहचान से पाठक ही नहीं सुनील भी आश्चर्यचकित दिखाई देता है।
उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो सुनील इधर अपनी लच्छेदार बातों से अपना काम निकलता दिखाई देता है। उसके काफी सीन रोचक बन पड़े हैं जो कि हास्य भी पैदा करते हैं। वहीं अगर आप सुनील श्रृंखला के उपन्यास पढ़ते हैं तो सुनीलियन पुड़िया से वाकिफ होंगे। सुनील अक्सर मामले की जाँच कर रहे अफसर को एक बोगस थ्योरी पकड़ा कर अपना काम निकलवा देता है और इसे उसके जानने वाले सुनीलियन पुड़िया कहते हैं। इस उपन्यास भी उसकी यह कलाकारी दिखती है लेकिन उसे सुनीलियन पुड़िया नहीं कहा गया है। अगर आप जानते हैं कि सुनील के किस उपन्यास में पहली बार ‘सुनीलियन पुड़िया’ का जिक्र हुआ था तो मुझे बताइयेगा जरूर।
उपन्यास में मौजूद सुनील और प्रमिला की नोकझोंक रोचक है। उपन्यास में रमाकांत नहीं है लेकिन यह जोड़ी भी मुझे पसंद आई है। ये लोग रमाकांत की कमी महसूस नहीं होने देते हैं। उपन्यास में एक और बात मुझे रोचक लगी। प्रमिला सुनील को सोनू कहती है। यह बात मुझे रोचक लगी क्योंकि बाद के उपन्यासों में उसे इन नामों से पुकारने वाला कोई नहीं दिखाई दिया था। सुनील को सोनू और कौन कौन कहता होगा?? अगर आपको पता हो तो जरूर बताइयेगा।
उपन्यास के दूसरे किरदार कहानी के अनुरूप ही गढ़े गये है। पाल एक सीक्रेट सर्विस का अफसर है जिसका किरदार मुझे पसंद आया। इस उपन्यास में प्रभुदयाल नहीं है लेकिन पाल उसकी कमी कुछ हद तक पूरी करता है।
कहानी की कमी की बात करूँ तो एक ही चीज थी जो कि मुझे खटकी थी। सोनिया जब अपने पति चन्द्रशेखर से अलग हुई तो वह जाफरी मैंशन में ही क्यों रहने आई जबकि जानती थी वहीं चन्द्रशेखर की बहन जानकी रहती थी और जानकी के साथ सोनिया के सम्बन्ध अच्छे भी नहीं थे। अक्सर जब आप किसी को पसंद नहीं करते तो उनके नजदीक नहीं रहना चाहते हो। वहीं सोनिया को पता होना चाहिए था कि चूँकि जानकी वहाँ पहले से रहती है तो सोनिया के पति चन्द्रशेखर का वहाँ आना जाना लगा रहेगा। अब चूँकि उनके बीच तलाक की प्रक्रिया चल रही है तो उसे दिक्कत होनी ही थी। इस दिक्कत का जिक्र सोनिया कहानी में करती भी है। सोनिया का वहाँ आकर रहना कहानी के लिए जरूरी तो था लेकिन इसका अगर एक पुख्ता कारण दिया होता तो बेहतर रहता। अभी तो लगता है कि कहानी के कुछ सीन सोनिया के जाफरी मैंशन में होने से लिखने में सरल हो रहे थे इसलिए लेखक ने इसे किया है।
अंत में मैं यही कहूँगा कि ब्लैकमेलर की हत्या एक कसे हुए कथानक वाली रहस्यकथा है। कहानी में कुछ भी अनावश्यक नहीं है और यह आखिर में आपको चौंकाने में कामयाब भी होती है। अगर आपने नहीं पढ़ी है तो एक बार पढ़कर अवश्य देखिएगा। आप निराश नहीं होंगे।
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सुनील को 'सोनू' पहले प्रमिला कहती थी लेकिन उसके सीरीज़ से विदा हो जाने के बाद केवल 'रेणु' ही है जो उसे इस नाम से पुकारती है। रमाकान्त तो अपने पंजाबी रंग में आ जाने के बाद अब उसे 'प्यारयो' ही कहता है (कभी-कभी 'काकाबल्ली' भी कह देता है)। सुनील सीरीज़ के बाद के उपन्यासों में उसे केवल एक सुनीता नाम की युवती के प्रति ही आकर्षित होते हुए दिखाया गया है। यह उपन्यास सुनील का सत्तरवां कारनामा 'जासूस की हत्या' है जो कि पाठक साहब का सौवां प्रकाशित उपन्यास भी था। अगर आपने सुनील का बेहतरीन उपन्यास 'घर का भेदी' नहीं पढ़ा है तो मेरे कहने से पढ़िए जिसमें उपन्यास का एक (करोड़पति) पात्र नरेश चटवाल सुनील को अपनी बेटी से शादी करने का ऑफ़र देता है और सुनील उस ऑफ़र को ठुकरा देता है। चूंकि आपने 'ब्लैकमेलर की हत्या' की समीक्षा की है और बहुत सही की है, मैं यह बात अपनी ओर से कहना चाहता हूँ कि छोटे उपन्यास जिसमें कहानी को ज़बरदस्ती फ़ैलाया नहीं जाता, ही अच्छे होते हैं और पढ़ने वाले को संतोषजनक मनोरंजन देते हैं। अगर उपन्यास लम्बा है तो वह अपनी कहानी की लम्बाई से होना चाहिए, लफ़्फ़ाज़ी और फ़ालतू की घटनाओं से नहीं। हिंदी के लुगदी साहित्य की श्रेणी वाले उपन्यासों की लोकप्रियता और बिक्री घटने का एक कारण यह भी रहा कि दाम बढ़ाने के लिए अधिक पृष्ठ संख्या वाले उपन्यास लिखे जाने लगे। बाद में पाठक साहब लम्बे-लम्बे लेखकीयों से भी उपन्यासों की पृष्ठ संख्या बढ़ाने लगे। लेकिन इस सबसे ऐसे उपन्यासों के पाठक घटे ही, बढ़े नहीं। जो पाठक अपने ख़ून-पसीने की कमाई से उपन्यास ख़रीदता है, उसे रीडिंग मैटर मिलना चाहिए जिसके एक पृष्ठ को भी वह बिना पढ़े छोड़ न सके। मोटे-मोटे उपन्यास जिनमें रीडिंग मैटर उनकी मोटाई से मैच न करता हो, उन्हें ख़रीदने वाले पाठकों के साथ बेइंसाफ़ी ही हैं। आज लुगदी साहित्य इस वजह (और कुछ और वजूहात) से ख़त्म हो चुका है और उसकी जगह वाइट पेपर पर ऊंची क़ीमत में जो उपन्यास छपते हैं; उनकी कितनी कॉपियां बिकती हैं, यह आप मुझसे बेहतर जानते हैं। बहरहाल मेरे पसंदीदा उपन्यास 'ब्लैकमेलर की हत्या' की अच्छी समीक्षा के लिए आपका शुक्रिया।
जी सुनील के विषय में जानकारी देने के लिए हार्दिक आभार।
आपकी बात से सहमत कि कथानक को बिना वजह बढ़ाना पुस्तक की आत्मा को मार ही देता है। उससे बेहतर रहता है कि किताब के साथ लघु-कथा या लघु उपन्यास प्रकाशित कर पृष्ठ संख्या बढ़ाई जाए। लेखकीय मुझे पसन्द आते हैं तो इसलिए मुझे वह पृष्ठ की बर्बादी नहीं लगता है। लेकिन फिर भी मेरा मानना है कि 200-250 के भीतर ही उपन्यास होना चाहिए। एक चुस्त कथानक के लिए यह काफी है।
किताब की कीमत से मैं भी सहमत हूँ कि कम होनी चाहिए 150-200 रुपये के भीतर अगर उपन्यास आता है तो कीमत वाजिब है। उससे ज्यादा जेब पर भारी पड़ जाता है। कीमत इससे कम रखी जा सकती है बशर्ते पढ़ने वाले हज़ारों में हो जो कि मुश्किल से मिलते हैं।
घर का भेदी अभी तक पढ़ा नहीं है। जल्द ही पढ़ने की कोशिश रहेगी।
उपन्यास 'हाॅंगकाॅग में हंगामा' में राम सिंह सुनील को कहता है।
“सुनील ! सोनू डियर ।” – राम सिंह बोला – “तुम थे कहां ? …लेकिन …लेकिन …तुम्हारे चेहरे को क्या हुआ है ?”
वाह होंगकोंग में हंगामा इस श्रृंखला का अगला उपन्यास ही है। मैं उसे जल्द ही पढ़ने वाला हूँ। मुझे लगता है शुरुआती नोवल में रहा होगा ये सब। बाद में पाठक साहब ने इतना नहीं इस्तेमाल किया होगा।
अंत तक हत्यारे का पता न लगा पाने का कारण यही है क्योंकि उसके खिलाफ कभी शक पैदा ही नही किया और न ही कोई भी सबूत उसके खिलाफ जाते दिखे। केवल एक ही बात थी उसके खिलाफ की वह मक़तूल का रिश्तेदार है और उसके पते को जानता था। उसके पास कोई खास मोटिव भी नही था हत्या करने का। मकतूल की बहन की नकली चोटी का कोई काम नही था कहानी मे। वह तो ऐसा लगा कि लेखक उस बिंदु से कहानी घुमाना चाहते थे पर उन्होंने अंत होते हुए ही उसे छोड़ दिया। तीसरी कमी यह कि उस लापता बच्चे का कनेक्शन अचानक से आ गया। भले ही वह सुनील की पुड़िया जैसा कुछ था, मगर एकाएक किसी अन्य केस को वर्तमान केस से कनेक्ट कर देना अटपटा सा लगता है। उदहारण के लिए आरुषि हत्याकांड को बुराड़ी घटना से जोड़ देना। शायद आरुषि के अभिभावको ने काले जादू और अपने पुरखो की आत्माओ के प्रभाव मे उसकी हत्या कर दी। आत्माओ ने आश्वासन दिया था कि आरुषि जी उठेगी पर ऐसा हुआ नही।
ये सुनने को लॉजिकल लग सकता है पर है बेतुका। पाल इनाम के लालच मे मान गया था। क्योंकि सुनील की नकली थिओरी इत्तेफाक पर ही टिकी थी। यदि निर्मला के बच्चे की उम्र कम ज्यादा होती, तब क्या ही कर लेता सुनील?