किताब 28 नवम्बर 2020 से 29 नवम्बर 2020 के बीच पढ़ी गयी
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई-बुक | प्रकाशक: डेलीहंट | पृष्ठ संख्या: 163 | एएसआईएन: B07W6NWK85
आशा – सुरेन्द्र मोहन पाठक |
पहला वाक्य:
आशा ने खोजपूर्ण दृष्टि अपने सामने रखे शीशे पर प्रतिबिम्बित अपने चेहरे पर डाली और फिर संतुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाती हुई अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करने लगी।
कहानी:
आशा एक ऐसी लड़की है जिसकी बहुत मामूली सी इच्छाएं हैं। बम्बई जैसे नगर में जहाँ लड़कियाँ आसमान में उड़ने की इच्छाएं लेकर आती हैं वहाँ पर आशा बस इतना चाहती है कि कोई हो जो उसे उसके उसकी सीरत के लिए चाहे न कि उसकी सूरत और शरीर के लिए।
पर आशा की आकाँक्षाओं के विपरीत उसकी जिंदगी में जो भी आता है वह उसकी सूरत पर फ़िदा होकर उसके शरीर को ही पाना चाहता है। आशा ऐसे लोगों से जितना दूर जाती है वे उतना उसके करीब आने की कोशिश करते हैं।
मुख्य किरदार:
आशा – बम्बई में रहने वाली एक युवती
सरला – आशा की दोस्त और रूममेट
सिन्हा साहब – आशा के बॉस और एक फिल्म वितरक कम्पनी फेमस सिने बिल्डिंग के मालिक
देव कुमार – फ़िल्मी धमाका नामक पत्रिका का मालिक
अमर – आशा के ऑफिस में काम करने वाला एक क्लर्क
अशोक – एक इंश्योरेंस एजेंट
जे पी – एक बड़ा फिल्म फाइनेंसेर
अर्चना माथुर – एक फिल्म स्टार
कामतानाथ – एक फोटोग्राफर
आशा की बात की जाए तो यह उपन्यास प्रथम बार 1968 में प्रकाशित हुआ था। जैसे कि शीर्षक से जाहिर है यह आशा की कहानी है। आशा एक खूबसूरत लड़की है जो कि बम्बई में एक फिल्म वितरक कम्पनी के मालिक सिन्हा की सेक्रेटरी है। आशा खूबसूरत है यह बात वह जानती है। उसकी खूबसूरती के चलते किस तरह के लोग उसकी जिंदगी में अक्सर आते हैं वह यह भी जानती है। यह अमीर लोग हैं जिनके पास तरह तरह के प्रलोभन है। ऐसे प्रलोभन जिसे देकर वह लड़कियों को अपने बस में करना चाहते हैं। बम्बई और फिर फ़िल्मी दुनिया में कई ऐसी लड़कियाँ भी हैं जो कि इन प्रलोभनों और अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते ऐसे लोगों का शिकार भी हो जाती हैं लेकिन आशा ऐसी लड़कियों में से नहीं है। आशा को तो ऐसे व्यक्ति की तलाश जो कि अकूत दौलत का मालिक भले ही न हो लेकिन वह उसे केवल उसकी सीरत के लिए चाहे। आशा को यह व्यक्ति किस प्रकार मिलता है यही उपन्यास का कथानक बनता है।
उपन्यास की पृष्ठभूमि बम्बई है और चूँकि उपन्यास की नायिका आशा एक फिल्म वितरक कम्पनी में सेक्रेटरी है तो उसे जो फ़िल्मी दुनिया के जो अनुभव होते हैं वह भी इस उपन्यास में पाठक को पढ़ने के लिए मिलते हैं। तरह तरह के लोग उसके जीवन में इस दुनिया से आते हैं और ये लोग आशा को ही नहीं पाठकों को भी इस दुनिया से वाकिफ करवाते हैं।
यहाँ आशा की दोस्त सरला जैसी लड़कियाँ हैं जो कि अपने शरीर को अपनी दौलत मानकर इसके बलबूते पर अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ती करना चाहती हैं। इनमें से कुछ लड़कियाँ तो सफल हो जाती हैं लेकिन कुछ अँधेरे में खो जाती हैं। यहाँ अर्चना माथुर और तिवारी जैसे कलाकार हैं जिनका चेहरे रील पर कुछ और असल जिंदगी में कुछ और होता है। किस तरह स्वार्थ के चलते ये लोग अपना आचार विचार बदलते हैं यह उपन्यास में लेखक के बाखूबी दर्शाया है। पैसे के आगे किस तरह लोग नतमस्तक होते हैं यह भी लेखक ने बाखूबी दर्शया है।
ऐसा नहीं है कि फ़िल्मी दुनिया में ही यह सब कुछ ही है लेकिन चूँकि फिल्म लाइन में एक साथ कई अतिमहत्वकांक्षी और आंतरिक रूप से असुरक्षित महसूस करने वाले लोगों का जमावड़ा होता है तो उधर यह ज्यादा देखने को मिलता है। एक दूसरे की टांग खींचना, ताकतवर के आगे बिछ जाना और कमजोर को कीड़े मकोड़े की तरह समझना यह सब कुछ ऐसी चारित्रिक विशेषताएं हैं जो कि उधर कई बार देखने को मिल जाती हैं।
ऐसे में कौन अच्छा है और कौन अच्छा होने का केवल नाटक कर रहा है यह कहना मुश्किल हो जाता है। यही कारण है इधर जे पी जैसे लोग है जो कि हर किसी को पैसे में तोलना चाहते हैं या उन्हें शक की निगाहों से देखते हैं। वह इसलिए भी क्योंकि वह जितने लोगों से मिलते हैं उनमें से निन्यानवे प्रतिशत ऐसे ही पैसे के पीछे चरित्र या शरीर गिरवी रखने वाले लोग होते हैं। और इसे ही उपन्यास में दर्शाया गया है।
मुझे यह तो नहीं पता कि लेखक ने इस उपन्यास को लिखने से पहले क्या क्या रिसर्च की लेकिन हाल फिलहाल में जैसी बातें फिल्मी दुनिया से निकल कर आ रही हैं तो उसे देखकर इतना ही कहना है कि उस वक्त और आज के हालातों में ज्यादा फर्क नहीं है। लोग शोषण करने के लिए तैयार रहते हैं और सरला जैसे लोग अपनी महत्वकांक्षाओं के चलते शोषित होने के लिए भी तैयार रहते हैं।
पर मैं इधर यह भी कहना चाहूँगा कि अगर इन किरदारों के बीच में इसी दुनिया से जुड़े ढंग के लोग भी दर्शाए जाते तो बेहतर होता। कोई भी समाज फिर चाहे वो फ़िल्म क्षेत्र से जुड़े लोगों का क्यों न हो वह एक तरह का नहीं होता है। हर तरह के लोग उसमें मौजूद रहते हैं लेकिन अक्सर बुरे तरह के लोगों के विषय में खबरे बनती हैं तो यही आम लोगों के उस क्षेत्र के लोगों के प्रति मौजूद पूर्वाग्रह को पोषित करते हैं। ऐसे में उपन्यास में अगर एक ही तरह के लोगों को दर्शाया जाये तो यह भी एक तरह से पूर्वाग्रह को पोषित करेगा। इसलिए हर तरह के लोग उपन्यास में दर्शाये जाते तो बेहतर होता। यह मैं इसलिए भी कह रहा हूँ क्योंकि सुरेन्द्र मोहन पाठक ने कई बार अपने अपराध गल्प में पुलिस वालों के घूसखोर और कार्य के प्रति लापरवाह होने के जो पूर्वाग्रह है उन्हें तोड़ा है। वह कई बार अंडरलाइन करके कहते हैं कि ऐसा नहीं है सभी पुलिस वाले एक जैसे नहीं है। ऐसा ही इधर देखने को मिलता तो अच्छा रहता।
हाँ, आशा को प्रेम का अहसास जिस तरह होता है और उसका प्रेम किस तरह अपनी मंजिल तक पहुँचता है यह थोड़ा बेहतर तरीके से दर्शाया जा सकता था। अंत में जिस तरह से एक संयोग के चलते सब ठीक हो जाता है वह भी कहानी को थोड़ा कमजोर कर देता है। इसे थोड़ा बेहतर किया जा सकता था।
अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। मुझे तो यह पसंद आया। मैं सामाजिक उपन्यास कम ही पढ़ता हूँ, इससे पहले शायद वेद प्रकाश शर्मा का एक मुट्ठी दर्द 2015 में पढ़ा था, लेकिन अब मैं दूसरे लेखकों द्वारा लिखे गये ऐसे उपन्यास भी पढ़ना चाहूँगा। उपन्यास पढ़कर यह भी लगता है कि सुरेन्द्र मोहन पाठक को इस तरह के और उपन्यास भी लिखने चाहिए थे। जिस तरह से उन्होंने इसमें फ़िल्मी दुनिया का चित्रण किया है उसी तरह से अगर वह समाज के अन्य क्षेत्रों या जीवन के अन्य पहलुओं को ऐसे अन्य उपन्यासों में दर्शाते तो बहुत अच्छा रहता।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाइयेगा। अगर आप सामाजिक उपन्यास पढ़ते हैं तो अपने द्वारा पढ़े गये पाँच बेहतरीन सामाजिक उपन्यासों के नाम कमेंट्स में जरूर साझा कीजियेगा। मुझे उन्हें पढ़ना चाहूँगा।
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© विकास नैनवाल ‘अंजान’
उपयोगी जानकारी।
गुरु नानक देव जयन्ती
और कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
जानकारी आपको पसंद आई यह जानकर अच्छा लगा। आपको भी गुरुनानक देव जयंती और कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
'आशा' मैंने कल ही पढ़ा। आपकी समीक्षा और मूल्यांकन से मैं पूरी तरह सहमत हूँ।
लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा सर। आभार।