‘वैरागी नाले का रहस्य’ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा का लिखा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उपन्यास है। कहा जाता है जब यात्राएँ कठिन हुआ करती थीं तब प्रयागराज और बनारस के बीच एक बैरागिया नाला हुआ करता था जहाँ साधु धूनी रमाये जमे करते थे। इस दौरान कई यात्रियों को इस नाले के इर्द गिर्द लूटा जा रहा था। इसी घटना को केंद्र में रखकर जनप्रिय लेखक ने इस उपन्यास को लिखा था। उपन्यास नीलम जासूस कार्यालय द्वारा पुनः मुद्रित किया गया है। पढ़िए उपन्यास का एक रोचक अंश।
अष्टमी का चाँद उदय हो गया था।
लगभग एक कोस चलने के बाद जीवनराम ने सोचा कि क्यों न थोड़ी नींद ले ली जाए! अपने घोड़े की रास उसने सैनिक को थमा दी और स्वयं गाड़ी में लेट गया।
ऊँघता सा गाड़ीवान निश्चिंत था। एक सैनिक मार्ग-प्रदर्शन के लिए उनके आगे-आगे था।
कई कोस का रास्ता भली प्रकार कट गया। अब रात का अंतिम पहर हो चुका था।
बस एक नींद लेकर जीवन उठ बैठा था। सुभागी को मन में बसाये वह आकाश की ओर देख रहा था।
जैसे ही गाड़ी एक घने वृक्ष के नीचे से गुजरी, एक साथ मानो वृक्ष से रस्सियाँ बरस पड़ीं! यह फंदे थे। सौभाग्य से जीवन और दोनों घुड़सवार सैनिकों पर निशाना ठीक-ठीक नहीं बैठा… परंतु गाड़ीवान सैनिक के फंदा ठीक गले में बैठा।
“सम्भलो।” जीवन जोर से चीखा और सैनिक गाड़ीवान के गले में पड़े फंदे की रस्सी पकड़ कर झूल गया।
परिणाम यह हुआ कि उस रस्सी के साथ ही एक व्यक्ति ऊपर वृक्ष से नीचे आ गिरा। गाड़ीवान सैनिक को अवसर मिला और वह वृक्ष से गिरे व्यक्ति पर बाघ की तरह टूट पड़ा।
अब तक वह दोनों सैनिक भी सम्भल चुके थे। एक ने वृक्ष को लक्ष्य बनाकर कराबीन दागी, दूसरे ने ललकारा, “उतरो नीचे!”
गदागद लगभग दस आदमी वृक्ष से कूदे… परंतु मुकाबले पर एक भी न ठहरा। तेजी से भागकर वह अँधेरे में विलीन हो गए। अलबत्ता एक को गाड़ीवान सैनिक दाबे हुए था, दूसरा एक सैनिक की बर्छी से घायल हुआ। उसे जबरन जीवन ने पकड़ लिया।
जीवन ने गाड़ी में बँधी रस्सी खुलवाकर उन दोनों को बँधवा दिया और गाड़ी में डलवा कर उसने आदेश दिया, “जल्दी चलो।”
जीवन को यह आशा थी कि भागे हुए व्यक्ति पुनः एकत्र होकर प्रतिरोध करेंगे परंतु उसकी धारणा निर्मूल सिद्ध हुई। बाकी मंजिल निर्विघ्न कट गयी। तेज चलने के कारण वह भोर होने से कुछ समय पूर्व ही कमलताल के तालाब पर पहुँच गए। जीवन ने वहीं रुकने का आदेश दिया। गाड़ी में पड़े घायलों को सम्बोधित करके पूछा, “कौन हो तुम लोग बदमाश?”
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा, परंतु कोई बोला नहीं।
“इंद्रनाथ… रामदीन, इन दोनों गाड़ी से खींच कर नीचे डालो और मार लगाओ। इतनी मार लगाओ कि यह मार जाएँ। इन दोनों को दफना कर फिर दूसरा काम करेंगे।”
रामदीन ने दोनों को नीचे उतारा। आबकी बार दोनों से एक हाथ बाँध कर बोला, “कुसूर माफ हो सरकार, हमसे गलती हुई। अगर हमें यह मालूम होता कि आप फौजी हैं तो हम कभी फंदा न चलाते।”
“तुम लोग कौन हो?”
“हम ठग हैं सरकार।”
“ठग! क्या ठग इस तरह फंदा फेंक कर लोगों की जान लेते हैं?”
“हुजूर, हम ठग बिरादरी के हैं।”
“ठग भी कोई बिरादरी होती है?” आश्चर्य से जीवन ने पूछा।
“हाँ हुजूर, बहुत बड़ी बिरादरी है।”
“तुम्हारा नाम?”
“बिहारी।” एक बोला।
“गफूर।” दूसरा बोला।
“बिहारी… गफूर! तुम हिन्दू हो तुम मुसलमान… फिर तुम्हारी एक बिरादरी कैसे हो सकती है?”
“हम हिन्दू मुसलमान नहीं हैं सरकार, हम लोग ठग हैं। काली की पूजा करते हैं।”
“और राहजनी करते हो…क्यों?”
“वह तो हमारा धर्म है हुजूर।”
“अच्छा! राहजनी करना तुम्हारा धर्म है? बहुत बढ़िया धर्म है तुम्हारा राहगीरों पर फंदा फेंक कर उनकी लेना धर्म है तुम्हारा? खैर, वैरागी नाला देखा है तुमने?”
दोनों ठगों ने एक-दूसरे की ओर रहस्यभरी दृष्टि से देखा और सिर हिला दिया।
जीवन निश्चय नहीं कर पाया कि क्या करें। उसने आज्ञा दी कि इन दोनों पर कड़ी नजर रक्खी जाए।
पुस्तक विवरण:
पुस्तक: वैरागी नाले का रहस्य | लेखक: जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | पुस्तक लिंक: अमेज़न