किताब परिचय: वन मिसिंग डे – अशफाक अहमद

क्या हो अगर आपकी याद से आपका एक दिन गायब हो जाए और आपका जिंदा रहना इसी एक दिन पर निर्भर करता हो? समीर के सामने अभी यही सवाल ‘वन मिसिंग डे’ (One Missing Day) में मुँह बाये खड़ा था। 

‘वन मिसिंग डे’ (One Missing Day) लेखक अशफाक अहमद (Ashfaq Ahmad) की लिखी रहस्यकथा है। आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए अशफाक़ अहमद (Ashfaq Ahmad) के उपन्यास वन मिसिंग डे (One Missing Day) का प्रथम अध्याय। 

किताब परिचय: वन मिसिंग डे  - अशफाक अहमद

किताब परिचय:

कभी-कभी इंसान के साथ यह हादसा भी हो जाता है कि किसी झटके या चोट से उसकी मेमोरी का एक छोटा सा हिस्सा ही ग़ायब हो जाये और मुश्किल यह हो कि उसी हिस्से में कुछ बहुत महत्वपूर्ण राज़ दफन हो गये हों। ऐसा ही एक हादसा समीर के साथ होता है जब वह पूरा एक दिन ही भूल जाता है और उस दिन की उसकी गतिविधियाँ भी कम हंगामाखेज नहीं थीं।

उसकी जान के पीछे ऐसे लोग पड़ गये थे जो उसकी औकात से ही बाहर के लोग थे और उसके लिये वह सारे अजनबी लोग थे… उनका जो सबसे अहम सवाल था, वह भी उसके लिये एक अबूझ पहेली था जिसका कोई जवाब उसके पास नहीं था और उसकी अज्ञानता उसके बड़े अहित का कारण बन रही थी।

उसके पास सिवा इसके कोई चारा नहीं था कि वह किसी तरह हर जानने वाले से उस भूले हुए दिन की बिखरी-बिखरी बातें इकट्ठा कर के उनकी एक सिक्वेंस बनाये और उस अहम पल को खोजने की कोशिश करे जिसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल का जवाब छुपा था… लेकिन क्या यह आसान था?

उसकी दिमाग़ी हालत से वह लोग तो अनजान थे, जिन्हें उससे अपने किसी सामान की रिकवरी करनी थी और समीर की अपनी कोशिशों में वह हर जगह अड़ंगा लगाने की कोशिश कर रहे थे, जिससे उसका काम मुश्किल से मुश्किल होता जा रहा था। उसे उन लोगों से अपनी जान भी बचानी थी और उस खोये हुए दिन से वह राज़ भी खोज निकालना था जो उसकी जान का बवाल बना हुआ था।

पुस्तक लिंक: अमेज़न

वन मिसिंग डे

एकदम ‘छपाक’ से चेहरे से आ टकराये पानी ने उसकी रगों में थरथरी पैदा कर दी और स्नायुओं में हलचल— बंद पपोटों में हरकत हुई और कुछेक सेकेंड मिचमिचा कर उसने ऑंखें खोल दीं।
सामने जो भी लोग मुसल्लत थे, वे बिखरे-बिखरे हवासों की वजह से एकबारगी तो समझ में न आये… दिमाग़ कुछ स्थिर हुआ तो समझ में आया कि वे तीन लोग थे जो सामने खड़े उसे घूर रहे थे। तीनों ही शक्ल से मवाली टाइप लग रहे थे, जिनकी चढ़ी हुई ऑंखें, खिंचाव लिये होंठ, निशान जदा चेहरे उनके नेक न होने की चुगली कर रहे थे। बीच वाले की उँगलियों में फँसी चौड़े मुँह वाली बोतल इस बात का पता दे रही थी कि उसी ने पानी की वह चोट दी थी, जो उसके होश में आने की वजह बनी थी।
एक ज़ोर की झुरझुरी लेते हुए उसने आसपास देखा— एक बड़ा सा कमरा था जहाँ वे लोग मौजूद थे।
तीन तो सामने ही खड़े थे, जबकि दो एक तरफ मौजूद खिड़की के पास खड़े बाहर झाँक रहे थे। कमरे में एक पीले बल्ब का प्रकाश भर रहा था जो देखने के लिये काफी था। ख़ुद उसने अपने आप पर ग़ौर किया तो पाया कि उसे स्टील की एक कुर्सी पर अच्छी तरह से बांधा गया था। कुर्सी में हत्थे नहीं थे तो हाथ पीछे कर के बांध दिये गये थे।
फिर उसकी नज़र अपने दाहिनी तरफ फर्श पर पड़े एक शरीर पे गयी तो फिर शरीर में एक लहर-सी गुज़र गई… वह कोई आदमी ही था जो औंधा पड़ा था लेकिन उसके शरीर में हरकत नहीं थी और न सिर्फ़ उसके कपड़ों में खून लगा दिख रहा था, बल्कि उसके सीने के पास फर्श पर भी खून फैल रहा था।
“क्या पूछ रहा हूँ?” उसके कानों में गुर्राहट भरी आवाज़ पहुँची तो उसने चेहरा घुमा कर बोलने वाले को देखा— यह वही था जिसने उस पर पानी मारा था। उसकी खास पहचान यह थी कि उसकी मोटी-मोटी मूँछे थीं जबकि बाकियों की हल्की शेव ही बढ़ी हुई थी।
“क्या?” उसने सकपकाये भाव से पूछा और सवाल करने वाले का चेहरा और सख़्त हो गया।
उस मूँछ वाले शख़्स ने उल्टा हाथ घुमाया जो तेज आवाज़ के साथ उसके गाल से टकराया और गाल में मिर्च सी भर गयी— आँख से भी पानी छलक आया।
“अरे क्यों मार रहे हो भाई… मैंने क्या किया है।” वह रुआँसे से अंदाज़ में बोला।
“वह बैग कहाँ है?” सामने वाला फिर सख़्त स्वर में बोला।
“कक-कौन सा बैग?” उसके कुछ न पल्ले पड़ा।
अगले पल में फिर उसका दूसरा गाल भी एक भरपूर थप्पड़ से झनझना गया और सामने वाले ने उसका गिरेबान पकड़ कर झंझोड़ डाला।
“मेरे सब्र का इम्तिहान मत ले भोस… वर्ना यहीं छोटे-छोटे टुकड़े कर के डाल दूँगा। उसे देख रहा है—” सवाल करने वाले ने फर्श पर पड़े शख़्स की तरफ इशारा किया, “इसने तुझे जो बैग दिया था— वह बैग कहाँ है?”
“अरे भाई साहब… कौन है यह? मैं इसे नहीं जानता… और इसने मुझे कब कोई बैग दिया।” उसकी हालत रो देने वाली हो गई।
“यह वही है जो तेरी स्कूटी से टकराया था।” पूछने वाले ने यूँ उसकी आँखों में देखते हुए कहा जैसे उसे निगाहों से भेद डालेगा।
“यह टकराया था।” उसने फिर हैरानी से फर्श पर पड़े उस आदमी को देखा, लेकिन उसे पहचान के कोई सबूत न मिले।
उसे एकदम याद आया कि वह चंदनपुर से लौटते वक़्त जब रिदा से बात कर रहा था, तभी कोई एकदम से उसके सामने आ गया था और वह उसे लिये ढेर हो गया था… लेकिन उसके बाद का उसे कुछ याद नहीं था। शायद सर पर चोट लगने से बेहोश हो गया था और उस पल में उसे कुछ भी देखने-समझने का इतना कम वक़्त मिला था कि सवाल ही नहीं था कि उसे टकराने वाला याद रह जाता। वह वक्फा याद आते ही उसका ध्यान इस बात की तरफ गया कि उसकी गर्दन की मांसपेशियों में काफी दर्द था जो सर को इधर-उधर करने में और बढ़ जाता था। यह ज़रूर उसी चोट की निशानी थी।
उस एक्सीडेंट में वह पक्का बेहोश हो गया था और तब से अब होश में आया था तो भला वह पूछे जाने वाले सवालों का क्या जवाब दे सकता था।
“हाँ— यही टकराया था और इसने तुम्हें एक बैग दिया था। वह बैग कहां है?” सामने वाला यूँ ही झुका उसकी आँखों में झाँकता हुआ बोला।
“अरे मम-मुझे कोई बैग नहीं दिया था उसने… वह टकराया था और हम वहीं ढेर हो गये थे… फफ-फिर शायद मैं बेहोश हो गया था।” उसने थूक गटकते डरे-डरे अंदाज़ में कहा।
“तू मुझे अब वह कर रहा है… वह— क्या बोलते हैं बे लेड़ू, अंग्रेजी में जो लोग करते हैं?”
“क्या दादा… उँगली?” पास खड़ा दूसरा बंदा लपक के बोला।
“उँगली अंग्रेजी में होती है बहन… इरिटेट कर रहा है तू मुझे। फिर हाथ भारी हो गया तो वापस बेहोश हो जायेगा।”
“मैं सच कह रहा हूँ… मुझे इसने कोई बैग नहीं दिया।” इस बार जैसे वह गिड़गिड़ा उठा।
“बेटा हलक में हाथ डालूँगा न तो जो मुरादाबादी बिरयानी भकोसी है, आँतों से वापस खींच लाऊँगा। बहुत हरामी आदमी हूँ… तपाने वाला काम मत कर, चुपचाप से बक दे कि वह बैग किधर है।” मूँछ वाले के स्वर की सख़्ती के साथ आँखों से छलकती बेरहमी भी बढ़ गई।
उसे कुछ बोलते न बना… दिल अनियंत्रित हो कर जैसे पसलियाँ तोड़ने पर उतारू हो गया था, हलक सूख कर काँटा हो गई थी और चेहरा बता रहा था कि अब बस उसके रो देने की ही कसर रह गई थी। सच भी था कि वह एक आम सा युवक था, जिसका शायद ही कभी ज़िंदगी में ऐसे बदमाशों से कोई सीधा सामना हुआ हो… लड़कों की आम घूँसे लात की बात और थी।
मूँछ वाले ने एक ठंडी साँस ली और सीधा हो गया। उसने इधर-उधर देखा तो निगाहें एक कोने पर टिक गईं, जहाँ कुछ सामान पड़ा था। उसने चार क़दमों में वहाँ तक की दूरी नाप ली और उस सामान को उलटने-पुलटने लगा। उसमें उसे लकड़ी का एक हाथ भर का टुकड़ा मिल गया जिसके एक सिरे पर एक कील निकली हुई थी। उसे लेकर वह वापस हुआ तो कुर्सी पर बंधे समीर के शरीर में ठंडी-ठंडी लहरें दौड़ गईं।
चेहरे पर क्रूरता लिये पास आ कर उसने हाथ उठाया ही था कि कोई फोन बज उठा। उसके चेहरे पर झुँझलाहट के आसार नज़र आये, हाथ गिराते उसने गंदी सी गाली बकी और पतलून की जेब में हाथ डाल कर फोन निकाल लिया।
“हाँ विधायक जी।” कॉल रिसीव करते हुए उसने कहा… दूसरी तरफ से क्या कहा गया, यह तो बाकी लोग नहीं सुन सकते थे, बस वह जो बोला वही उनके पल्ले पड़ा— “जी… बोले तो थे रामसरन बाबू को। हाँ… पकड़ लिया है उसे, सामने ही है… नहीं… मुँह खोला नहीं है अभी… थर्ड डिग्री का भूखा है शायद। जी… आप टेंशन मत लो… काम खतम कर के फोन करते हैं आपको।”
फिर कॉल कट हुई तो उसने फोन वापस जेब के हवाले किया और हाथ में थमी लकड़ी में उभरी कील को सामने बँधे समीर की जाँघ में चुभाने लगा।
“नाम क्या है तेरा?”
“सस-समीर।”
“कहाँ रहता है?”
“हुसैनाबाद में।”
“हुसैनाबाद में कहाँ?”
“इमामबाड़े और यूनिटी के पीछे… भाई, मैं सच कह रहा हूँ… मुझे वाकई नहीं पता कि आप लोग किस बैग के बारे में पूछ रहे हो।”
“हुसैनाबाद में रहता है तो रात में इधर क्या लेने आया था?”
“भाई… ज़रदोजी का काम है मेरा। इधर चंदन नगर में एक पार्टी रहती है, उसी का काम था तो देने आया था। वापस लौट रहा था कि यह एकदम से सामने आ कर टकरा गया और एक्सीडेंट हो गया। सच कह रहा हूँ भाई… यक़ीन करो मेरा।”
“यक़ीन तुझे करना चाहिये कि अगर भौंकना शुरू नहीं किया तो क्या गत बनाने वाले हैं हम तेरी।”
“दादा… सायरन।” तभी साथ वाला बंदा दखलंदाज़ हुआ।
“क्या?” मूँछ वाले ने भवें सिकोड़ कर उसे देखा।
“सुनो… लगता है पुलिस आ रही है।” वह हाथ उठा कर कहीं कान लगाता हुआ बोला जिसे मूँछ वाले ने लेड़ू के नाम से पुकारा था।
नज़दीक आती आवाज़ अब सबके कानों तक पहुँचने लगी थी और उनके चेहरों पे तनाव झलकने लगा था। कुर्सी पर बँधा समीर समझ सकता था कि इस तनाव का कारण वह नहीं, बल्कि फर्श पर पड़ा वह व्यक्ति होना चाहिये जो शायद मर चुका था।
“अबे तो ज़रूरी है कि हमारे चक्कर में आ रहे हों… आजकल वैसे भी बढ़िया गाड़ियाँ मिल गई हैं तो इन ठुल्लों के भी चुनने काटते रहते हैं इधर-उधर भटकने के।” मूँछ वाला ख़ुद को बहलाने वाले अंदाज़ में बोला।
“इधर ही आ रही हैं दद्दा।” तब उन दोनों में से एक बोला जो खिड़की के पास खड़े थे।
फिर मूँछ वाले के मुँह से एक गाली खारिज हुई और वे तीनों लपकते हुए खिड़की तक पहुँच के बाहर झाँकने लगे।
“इधर गिने चुने तो मकान हैं दद्दा… यहाँ तक आ गये तो फँस जाएँगे हम। अभी एक मौका है… निकल लेते हैं।” दूसरा बोला, आवाज़ में उद्विग्नता थी।
“ठीक है चलो… पर दूर नहीं जाएँगे। अगर यह यहीं आये तो खिसक लेंगे और अगर इधर-उधर गये तो वापस आ कर अधूरा काम पूरा करेंगे।” मूँछ वाले ने सर हिलाते हुए कहा।
बाकियों ने समीर पर बस उचटती हुई नज़र डाली लेकिन मूँछ वाले ने ऐसी निगाहों से देखा जैसे चेता रहा हो कि अभी तेरी मुसीबत खत्म नहीं हुई… बस छोटा सा कामर्शियल ब्रेक है, पिच्चर उसके बाद पुनः स्टार्ट हो जायेगी। बेचारा समीर… दयनीय दृष्टि से उन्हें देखता बस थूक निगल कर रह गया।
फिर वे बाहर निकल गये और सन्नाटे ने लंगर डाल लिया।
वह मन-ही-मन मन्नत माँगने लगा कि पुलिस इधर ही आये ताकि उसे छुटकारा मिल सके। इस बार पक्का शाहमीना पर दस फकीरों को खाना खिलायेगा। पिछली बार रिदा से सेटिंग होने की सूरत में दस फकीरों को खिलाने की मन्नत माँगी थी जो उसे आज याद आ पाई थी… लेकिन इस बार पक्का याद रखेगा और पिछली मन्नत का ब्याज समझ के दो एक्सट्रा फकीरों को भी खिला देगा।
फिर आवाज़ें शायद इसी घर के आगे थम गई थीं… उसे अपने लिये मौका नज़र आया।
“बचाओ… बचाओ। मैं यहाँ हूँ… बचाओ।” वह इतनी ज़ोर लगा कर चिल्लाया कि थोड़ी आवाज़ तो नीचे से भी निकल गई, लेकिन गनीमत रही कि बाहर वालों तक उसकी गुहार पहुँच गई।
“क्या अंदर कोई और है?” बाहर से पूछा गया।
“नहीं… वे लोग भाग गये।” उसने भी चिल्ला कर जवाब दिया।
फिर ढेर से क़दमों की आहटें गूँजी जो उसके नज़दीक पहुँच रही थीं और उसने राहत की साँस ली।
कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला और कई खाकी वर्दी वाले धड़धड़ाते हुए भीतर घुसे। उनके साथ ही एक लड़की भी थी जो दिखने में काफी ख़ूबसूरत थी— उसने जींस और गर्म टी-शर्ट पहन रखी थी। उन्होंने उसे देखा और फिर फर्श पर पड़े व्यक्ति को देखने लगे।
“किसने मारा इसे… कौन था यहाँ?” एक पुलिस वाले ने उसे घूरते हुए पूछा।
“वव-वह पाँच लोग थे… आप लोगों को आते देख भाग गये। अभी पास ही कहीं होंगे।” वह जल्दी-जल्दी बोला।
उन्होंने आपस में इशारा किया और उनमें से कुछ लोग बाहर निकल गये, जबकि दो कांस्टेबल और वह लड़की वहीं रह गये। दोनों में से एक आगे बढ़ कर उसे खोलने लगा।
“अबे ढक्कन है क्या?” खोलने वाला भुनभुनाया।
“कक-क्या हुआ?” उसने सकपका कर कांस्टेबल को देखा।
“तेरे हाथ ही तो बँधे थे, पैर तो आजाद थे… जब वे भाग गये थे तो तू भी तो उठ के कुर्सी लिये-लिये बाहर निकल सकता था। यहाँ बैठ के महबूब के इंतज़ार में शायरी गढ़ रहा था क्या।”
“मम-मैं डर गया था।”
“मूत तो न दिया।”
“अभी नहीं पर निकलने वाली है।”
“भग यहाँ से और नीचे ही रहियो।” रस्सी खोलने के बाद कांस्टेबल ने उसकी पीठ पर धौल जमाई।
वह कंपकंपाती पिंडलियों पर खड़ा हुआ और लहराते क़दमों से बाहर की तरफ बढ़ा। उसे बाहर की तरफ बढ़ते देख लड़की के शरीर में भी हरकत हुई और वह भी उसके पीछे बढ़ ली।
“बैग और सागर अंकल के बारे में मुँह बंद रखना।” वह उससे सट के बाहर निकलते हुए इस अंदाज़ में बोली जैसे ख़ुद में बड़बड़ाई हो।
और वह रुक कर ऑंखें फैला कर उसे देखने लगा। लखनऊ में रहते उसे बीस साल हो गये थे, पर यह सूरत कभी नज़र से न गुज़री थी और वह उससे ऐसे कह रही थी जैसे उस पर कोई होल्ड रखती हो… फिर यह बैग तो उसके लिये पहेली बना ही हुआ था, अब सागर अंकल के रूप में एक नई उलझन वह उसके गले मंढ़ रही थी। उसने सर खुजाते उल्लुओं के अंदाज़ में उस लड़की को देखा।
“अब पैंट में ही करोगे क्या?” लड़की ने दांत किटकिटाये।
“क्या?” वह सकपका गया।
“क्या करने भाग रहे थे स्टुपिड।”
“अच्छा वह… सॉरी।”
वह झेंप कर बाहर की तरफ बढ़ा तो लड़की भी साथ ही लपक ली। बाहर तीन इनोवा खड़ी थीं रोशनियां फेंकती और उन पर बस ड्राइवर ही मौजूद थे, बाकी शायद उन बदमाशों की तलाश में इधर-उधर गये थे। ड्राइव करने वाले भी लड़की के साथ उसे देख कर सतर्क हो गये थे और नीचे उतर आये थे।
“तुम्हें भी करना है?” उसने रुक कर लड़की को देखा।
“क्या… जस्ट शटअप।” लड़की एकदम झेंप गई और उससे अलग हो कर एक गाड़ी के पास जा खड़ी हुई।
उसने बाहर निकल कर सामने खाली पड़े प्लॉट में धार मारते हुए अपनी टेंशन रिलीज की और आसपास देखते सोचने लगा कि यह जगह कौन सी थी।
थोड़ी देर की हलचल के बाद बदमाशों की तलाश में गये सारे लोग वापस आ गये… पता चला कि कोई हाथ नहीं आया था। उन्होंने पहले ही कहा था कि पुलिस अगर उनके लिये आई है तो वे खिसक लेंगे और उन्होंने शायद वही किया था।
फिर एक गाड़ी उसे ले कर वापस चल पड़ी, जबकि बाकी आगे की कार्रवाई के लिये वहीं रह गये। उन्हें वापस होते देख लड़की भी साथ हो ली थी। वापसी के रास्ते से उसे समझ आया कि यह इंटीग्रल के सामने से अंदर गई सड़क के लगभग आखिरी सिरे का वह इलाका था जहां नई आबादी बस रही थी और अभी छुटपुट मकान ही थे।
वे गुडंबा थाने ले आये गये थे जहां लड़की को तो रुख़्सत कर दिया गया था और फिर उसका बयान कलमबद्ध किया गया था। उसने यही बताया था कि वह ज़रदोजी का काम करने वाला एक कारीगर है, कुकरैल की तरफ चंदनपुर इतनी रात में एक पार्टी का अर्जेंट काम देने आया था कि वापसी में एक आदमी से एक्सीडेंट हो गया था, जिसमें वह बेहोश हो गया था और वापस होश आया था तो वह उसी मकान में आया था, जहां उससे टकराने वाला उसी मरी हालत में पड़ा था। तब उसे नहीं पता था कि वह ज़िंदा था या मर चुका था जो कि अब कनफर्म हो चुका था कि मर चुका था। जाने क्यों लड़की की बात पर अमल करते उसने यह बात बताने की ज़रूरत नहीं समझी कि वे लोग उससे किसी बैग के बारे में पूछ रहे थे। सागर अंकल का तो उसे ख़ुद ही अता-पता नहीं था।
उसने यह तो नहीं बताया कि जब एक्सीडेंट हुआ तब वह गाड़ी चलाते हुए फोन पर किसी से बात कर रहा था, लेकिन यह ज़रूर बताया कि उसका बटुवा तो उसके पास अभी भी था, लेकिन उसका फोन और उसकी एक्टिवा नदारद थी।
पुलिस ने उससे उन लोगों के स्केच बनवाने को कहा जो वहां थे तो उसने यह कह कर असमर्थता जता दी थी कि यह उसके लिये मुश्किल था, क्योंकि वह कभी भी किसी का चेहरा इतनी बारीकी से याद नहीं रख पाता था कि उनकी डिटेल के सहारे स्केच बनवा सके… हां, वापस वे सामने आ जायें तो पहचान ज़रूर सकता था।
फिर उसे खलासी दे दी गई।
वहां से निकल कर उसे अपनी एक्टिवा की याद आई तो एक ऑटो पकड़ा और फिर चंदनपुर की तरफ पहुंचा, जहां उसका एक्सीडेंट हुआ था।
लेकिन वहां ऐसा कुछ नहीं था जो किसी एक्सीडेंट की चुगली करता हो। रात काफी हो चुकी थी तो सड़क भी सूनसान ही थी। सड़क तो कुछ बताने से रही और इंसान नदारद थे, जो कुछ आते-जाते लोग दिखे भी, उनसे उम्मीद नहीं थी कि कुछ बता पायेंगे।
कुछ देर पहले जान बचने की राहत न हावी होती, तो तय था कि वहीं खड़ा हो कर अपने बाल नोचता हवा में ढेर सारी गालियां बकता… लेकिन फिलहाल मन मसोस कर वापसी ही बेहतर समझी।
खुर्रम नगर चौराहे पर पहुंच कर ऑटो छोड़ दिया और टेम्पो पकड़ लिया जिसने उसे मड़ियांव पहुंचा दिया। वहां से कैसर बाग जाता टेम्पो पकड़ कर पक्के पुल तक पहुंच गया, लेकिन वहां से कोई सवारी न मिली तो पैदल ही चल पड़ा।
उसका घर छोटे इमामबाड़े के पीछे की बस्ती में था, जहां वक़्त ज्यादा हो जाने की वजह से इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आये और वह बिना किसी के सवालों का सामना किये अपने घर तक पहुंच गया। हालांकि किसी को क्या पता था कि उसके साथ क्या हुआ था जो उससे कुछ पूछता, लेकिन यह उसके मन का चोर ही था कि उसे ऐसा लग रहा था।
घर तक पहुंचते ही एकदम गड़बड़ा गया।
सामने ही गली में उसकी स्कूटी खड़ी थी।
यह उसके लिये बड़ी हैरानी की बात थी कि उसे यहां कौन लाया… इसे तो चंदनपुर में होना चाहिये था। यहां कौन ले आया? उसने लपक कर उसे नज़दीक से चेक किया… कुछ टूट-फूट तो नहीं लग रही थी, हां स्क्रैच ज़रूर थे जो सड़क के साथ उसके घर्षण की दास्तां बयान कर रहे थे। चाबी की तलाश में उसने अपनी जेबें टटोलीं— हालांकि उसे ऐसा याद कुछ नहीं था कि उसने एक्सीडेंट के बाद चाबी इग्नीशन से निकाली हो।
पर ताज्जुब था कि चाबी उसी के पास थी, और वह अकेली नहीं थी बल्कि उसके छल्ले में घर के ताली की चाबी भी संगत कर रही थी, क्योंकि घर पे भी फिलहाल वह अकेला ही था।
“यह मेरे पास है तो गाड़ी यहां कौन लाया?” बड़बड़ाते हुए जैसे उसने ख़ुद से पूछा।
लेकिन ज़ाहिर है कि जवाब देने के लिये वहां कोई नहीं था। उसने हसरत भरी निगाहों से गली में इधर-उधर देखा कि कोई उसके सवाल का जवाब देने निकल आये, लेकिन कमबख्त कोई न निकला तो मुंह बिचका कर उसने ताला खोला और अंदर आ गया।
घर में फैला सन्नाटा उसे मुंह चिढ़ा रहा था।
छोटा ही घर था उनकी औकात के हिसाब से… दो कमरे थे, छोटा सा नाम का आंगन जो शुरू होते ही खत्म हो जाता था, एक तरफ किचन और एक तरफ गुसलखाना पैखाना। एक कमरे में अम्मी अब्बू कब्ज़ा किये थे तो दूसरे में दोनों बहनें लंगर डाले थीं। ऊपर भी दो कमरे थे जिसमें से एक में बड़े भाई अपनी सयानी बीवी के साथ कयाम किये थे तो विरासत के तौर पर दूसरा कमरा उसके हवाले था, जहां उसने जब तक बिना खूंटे का सांड बने रहने की सुविधा थी, तब तक के लिये आरी ज़रदोजी का अड्डा लगा रखा था, जो उसकी कमाई का ज़रिया था।
वैसे एक कारीगर और एक चेला उसके पास थे, जो दिन में काम करते थे, लेकिन कारीगर को वायरल हुआ था तो दो दिन से वह मेडिकल लीव पर था और चेला था डेढ़ सयाना कि कारीगर नहीं आ रहा था तो ख़ुद भी छुट्टियां एंजाय करने में लगा हुआ था।
घर में वैसे तो सन्नाटा विरले ही पांव पसारने का मौका पाता था, लेकिन आज सारे घर वाले गांव गये थे मामू के यहां मैलानी, जहां उनके टेंगन से लौंडे की मंगनी थी तो घर में इतनी शांति उपलब्ध थी। बहुत अरसे बाद उन लोगों का गांव जाना हुआ था तो तय हुआ था कि दो तीन दिन रुक कर आयेंगे और तब तक उसे अकेले मल्हारें गाने की छूट थी।
यूं तो उसे भी ले जाते जबरिया, लेकिन कुछ अर्जेंट काम होने की वजह से छूट मिल गयी थी और कल उसे एक मैडम से पेमेंट भी लेनी थी, जो परसों दो हफ्तों के लिये पंजाब जा रही थीं तो रुकने का बहाना सहज ही उपलब्ध हो गया था। यह बात और थी कि उसे जाना ही नहीं था… उसे गांव में बस दो-चार घंटे ही अच्छा लगता था, इसके बाद उसकी बैट्री जवाब दे जाती थी।
नीचे बिना रोशनी किये वह ऊपर अपने वाले कमरे में आ गया जहां रोशनी करनी पड़ी कि बिस्तर बिछा सके… लेकिन फिर उसके दिमाग़ को एक झटका और लगा।
टंका हुआ पीस उतारने के बाद उसने अड्डा समेट कर किनारे कर दिया था और जिस स्टूल पर अड्डे की फंटी टिकी थी, उसी पर उसका मोबाइल भी मौजूद था, जिसकी बदशक्ल हो चुकी स्क्रीन अपने शहीद हो चुकने की गवाही दे रही थी।
यह मोबाईल यहां कैसे आया? इस वक़्त यह सवाल उसके लिये केबीसी के सात करोड़ के लेवल का था और सामने चार छोड़ो, एक ऑप्शन भी उपलब्ध नहीं था। स्कूटी का मान सकते हैं कि एक्सीडेंट की जगह के आसपास मौजूद किसी खैरख्वाह ने मामले की नज़ाकत समझ कर स्कूटी ई-रिक्शा पर लाद कर घर तक पहुंचा कर टिका दी हो कि उसका चार्ज अगले दिन वसूल कर लेगा, लेकिन बंद घर के अंदर उसका टूटा हुआ फोन कैसे पहुंच गया?
वह उकड़ू बैठ कर दोनों हाथ फैलाये मोबाईल को ऐसे घूरने लगा जैसे उसी से जवाब मिलने की उम्मीद कर रहा हो… उसने दिमाग़ पर ज़ोर दिया कि रिदा, जो मेन सड़क के उस पार रहने वाली उसकी गर्लफ्रेंड थी— से तय हुआ था कि वे रात में सेक्स चैट करेंगे लेकिन उसे चंदनपुर जाने-आने में देर हो गयी थी तो गाड़ी चलाते वक़्त ही उसका फोन आ गया था और वह दूसरे के इलाके में घुसने पर विपक्षी श्वानों द्वारा पकड़े गये श्वान की तरह रिरिया कर अपनी सफाई दे रहा था कि वह बंदा सामने आ गया था और दोनों धराशायी हो गये थे। फोन की आबरू उसी वक़्त लुटी होगी, लेकिन उस हिसाब से फोन को वहीं पड़ा होना चाहिये था या उसे वहां से उठाने वाले उन बदमाशों के पास होना चाहिये था… लेकिन कमाल है कि वह शहादत दे चुकी डिस्प्ले वाला फोन उसके बंद घर में मौजूद उसे मुंह चिढ़ा रहा था।
“पागल हो जाऊंगा मैं… भग भो…” एक फैंसी गाली के ज़रिये उसने अपनी झुंझलाहट रिलीज की और अपना बिस्तर बिछा के उसपे पसर गया।
रात वैसे भी काफी हो चुकी थी तो नींद ही बुरी तरह ऊबे, उक्ताये, झुंझलाये मस्तिष्क की अंतिम शरण स्थली थी और उसे ज्यादा देर भी न लगी सारे घोड़े बेचने में, जिसकी पुष्टि उसके बआवाज़े बुलंद खर्राटों ने की।
*****
पुस्तक लिंक: अमेज़न 

लेखक परिचय

किताब परिचय: सर्वाइवर्स ऑफ द अर्थ - अशफाक अहमद

अशफाक अहमद लेखक, ब्लॉगर और प्रकाशक हैं। वह वर्डस्मिथ, आखरवाणी पत्रिका, लफ़जतराश,परिहास पत्रिका जैसी कई वेबसाईट चलाते हैं। उन्होंने अब तक दस से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। वह ग्रेडिआस पब्लिशिंग हाउस नामक प्रकाशन चलाते हैं और प्रतिलिपि जैसे ऑनलाइन प्लैटफॉर्म भी पर भी लिखते हैं।
वन मिसिंग डे, जूनियर जिगोलो, सावरी, आतशी, CRN-=45, द ब्लडी कैसल, गिद्धभोज इत्यादि उनकी कुछ पुस्तकें हैं। 
संपर्क

नोट: ‘किताब परिचय’ एक बुक जर्नल की एक पहल है जिसके अंतर्गत हम नव प्रकाशित रोचक पुस्तकों से आपका परिचय करवाने का प्रयास करते हैं। 

अगर आप चाहते हैं कि आपकी पुस्तक को भी इस पहल के अंतर्गत फीचर किया जाए तो आप निम्न ईमेल आई डी के माध्यम से हमसे सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:

contactekbookjournal@gmail.com

This post is a part of Blogchatter Half Marathon 2023

FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *