‘एक गोली तीन चीख’ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा का लिखा उपन्यास है। उपन्यास राजा पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया था। एक बुक जर्नल पर पढ़ें उपन्यास का एक छोटा सा अंश- (मोडरेटर)

जगत जब हीराभवन पहुँचा तो रात हो चुकी थी।
यूँ एक रसोईघर खुलवाकर उसने अर्थात पंडित सुंदरलाल उर्फ काला बामन ने भोजन की व्यवस्था करनी चाही थी।
रसोई में बहुत से साधन भी उपलब्ध थे।
परंतु जगन ने उससे खाना बनाने के लिए इस आधार पर मना कर दिया था कि सम्भव है रात का डिनर गुरु जगत लेकर आएँ और सचमुच ही जगत रात का डिनर अपने साथ लेकर आया था।
बंदूकसिंह ने परिचय कराया – “यह महाराज हमारे ही विभाग के हैं, बहुत हद तक तांत्रिक भी हैं। इन्हें हम यहाँ ले आए हैं और यह साथ में अपना एक पालतू प्रेत बिल्ला भी लाए हैं। महाराज तुमने राजेश जी के दोस्त जगत का नाम तो सुना ही होगा, यहीं हैं हमारे गुरु जगत।”
हाथ जोड़कर वह बोला – “जय झुनझुना जगत जी।”
–”क्या?”
-“झुनझुना मन बहलाने का प्रतीक है। जब झुनझुना बच्चे को खुश कर सकता है तो निश्चय ही बड़ों को भी खुश करेगा। मैं नमस्ते, सलाम वालेकुम और गुड इवनिंग में विश्वास नहीं रखता। मेरा तो बस एक ही अभिवादन है जय झुनझुना।”
–”जय झुनझुना।” मुस्कराते हुए जगत ने कहा – “महाराज सचमुच आप पहुँचे हुए आदमी हैं। शुभ नाम जान सकता हूँ।”
–“काला बामन। असली नाम तो यही है।”
–”नकली नाम भी बता दीजिए।”
–”अपने आप को पंडित सुंदरलाल कहलवाना मुझे पसंद नहीं है। मुझे काला बामन कहकर ही सम्बोधित करेंगे तो अति प्रसन्नता होगी।”
–”बहुत बढ़िया बात है, कुछ अपने बारे में और भी बताइए।”
–”विद्यार्थी था तब तांत्रिक बनने का शौक चर्राया।”
–”यानी तांत्रिक हैं।”
–”परंतु पूरा नहीं आधा-अधूरा। तंत्रविद्या में जो अघोरी मत है उससे मैं सहमत नहीं हो सका। जब एक अघोरी जैसा काम गुरु को करते देखा तो मन टकटका उठा। गुरु की अच्छी-खासी मरम्मत की और फिर गुरु की रंगारंग पिटाई करने के बाद मैं नदी पार छोड़ आया।”
–”सचमुच आप तो बहुत हिम्मत वाले हैं पंडितजी।”
–”जी हाँ इसके बाद हिम्मत भी जुटानी पड़ी।”
–”मतलब नहीं समझा।”
–”गुरु भैरवी बनाने के लिए एक लड़की को बहकाकर ले आए थे। अब सवाल यह था कि उसका क्या हो, वह तो न घर की रही न घाट की।”
–”तो फिर उसका क्या किया?”
–”उसे मरघट के शिवालय में ले गया और वहाँ उससे विवाह कर लिया। बिना जात की लड़की से विवाह किया था सो घर पहुँचने पर बापजी ने जूते से स्वागत किया। अच्छी बात यह थी कि जेब में कुछ रकम थी तो उसे साथ लेकर दिल्ली पहुँचा एक धर्मशाला में अड्डा जमाया। यही कहिए कि भगवान कृपालु थे। खुफिया विभाग में ट्रेनिंग के लिए भर्ती होनी थी और् भर्ती के लिए टेस्ट लिए जा रहे थे। मैंने टेस्ट दिया और पास हो गया। यानी इज्जत आबरू के साथ रोटी मिलने लगी और् मैं सड़क पर ठेला खींचने से बच गया।”
–”तंत्रविद्या तो आती ही है?”
–”जी हाँ, श्मशान साधना को छोड़कर और सभी साधनाएँ की हैं।”
–”तंत्रविद्या की दुकान भी तो खोल सकते थे?”
उसने अपने दोनों कानों से हाथ लगाया – “अगर जुगाड़ नहीं हो गया होता तो मजदूरी कर लेता, ठेला खींच सकता था परंतु तंत्रविद्या को व्यवसाय बनाना तो पाप है।”
–”इस ढंग को सोचिए कि अगर किसी परेशान व्यक्ति को तांत्रिक की आवश्यकता है तो उसकी आवश्यकता पूरी कर देना क्या उचित नहीं है?”
–”उचित है परंतु बदले में उससे कुछ लेना अनुचित है।”
–”मान गया पंडितजी।”
–”काला बामन कहिए।”
–”मैंने ऐसा सुना है कि वायुमंडल में भी अनेकों साधारण प्रेत विचरण करते हैं।”
–”जी हाँ वह प्रेत साधारण होते हैं।”
–”क्या किसी साधारण प्रेत को आप दिखा सकते हैं।”
–”साधारण प्रेतों की शरीर रूप में आने की न कामना होती है न वह चाहकर ऐसा कर सकते हैं। आपको साधारण प्रेत दिखा तो नहीं सकता अलबत्ता साधारण प्रेत का चमत्कार दिखा सकता हूँ।”
–”ठीक है वही दिखाइए।”
–”देखना ही चाहते हैं।”
–”अगर आपको कोई ऐतराज न हो।”
–”ऐतराज जैसी कोई बात नहीं है। मैं आपको प्रमाणरूप में एक छोटा-सा प्रमाण देता हूँ अथवा दिखाता हूँ।”
–”दिखाइए।”
उसने एक गिलास लिया, उस गिलास को अच्छी तरह बेसिन में ले जाकर धोया और फिर उसमें पानी भर लाया। पूछा–”कहिए पानी का पानी जैसा ही रंग है न?”
–”हाँ।”
–”यह छलिया कुमार बिल्ले के रूप में एक प्रेत ही है।”
–”मान लेता हूँ।”
–”जय झुनझुना, छलिया कुमार आओ और् इस पात्र को छू दो। तुम्हारा स्पर्श इस पात्र से होना चाहिए।”
आज्ञा पाते ही बिल्ला उछलकर मेज पर चढ़ गया और उसने अपने अगले पाँवों से शीशे के उस गिलास को छू दिया।
पानी के रंग में परिवर्तन हुआ, पानी एकदम लाल रंग का हो गया।
–”जगतजी पानी का रंग देख रहे हैं?”
–”हाँ, पानी का रंग बदलकर लाल हो गया है।”
–”प्रेत स्पर्श पाकर अब यह पानी एक प्रकार की शराब बन गया है। इसे पीकर आदमी विलक्षण नशा अनुभव करेगा। वह ऐसा अनुभव करेगा मानो भूमि पर न होकर आकाश में उड़ा जा रहा हो। नुकसान भी है, इसे पीने से व्यक्ति में एक प्रकार का उन्माद उत्पन्न होता है अर्थात वह किसी ऊँची जगह पर जाकर नीचे छलाँग लगा सकता है। नदी को भी वह साधारण भूमि ही समझेगा और उसमें चलने की चेष्टा करते हुए डूब भी सकता है।”
यह कहते हुए उसने वह गिलास उठाया और् उसे बेसिन में ले जाकर उलट दिया। फिर गिलास को अच्छी तरह धोकर उसने उसमें स्वच्छ पानी भरा और गिलास को मेज पर लाकर रख दिया।
–”जय झुनझुना, देख रहे हैं आप।”
–”यानी इस पानी को किसी प्रेत का स्पर्श लिया है।”
–”जी हाँ इसे साधारण सही परंतु दो प्रेतों का स्पर्श मिला है।”
–”सचमुच पंडितजी आप बहुत विद्वान व्यक्ति हैं।”
–”यह झुनझुना, जगतजी अभी ऐसा कुछ मत कहिए।”
–”क्यों?”
–”उत्सुकता इस बात की है कि यहाँ मंडरानी वाली जो प्रेतात्मा है वह कैसी है और उसका स्वभाव कैसा है। जगनजी जो चाहते हैं वह सहज ढंग से हो पाएगा या नहीं, यही देखना है।”
समय बातों-बातों में बीत गया।
वह समय हुआ जिसकी प्रतीक्षा थी।
दीवार घड़ी ने ग्यारह बजाए, अर्थात दीवार घड़ी से यांत्रिक चिड़िया बाहर आयी और् ग्यारह बार चिंचियाकर फिर अंदर चली गयी।
उसके बाद यकायक ही ऐसा लगा जैसे कमरे में प्रकाश बहुत मद्धिम हो गया हो।
साथ ही कमरे में तीन बार हृदय द्रावक चीख गूँजी और दूसरे ही क्षण कमरे के एक कोने मे वही कल वाली नारी प्रगट हुई जिसका एक ओर का भाग खून से भीगा हुआ था।
उसने कल की भाँति ही उन चारों की ओर हाथ जोड़ दिए।
उसके साथ ही काला बिल्ला अजीब से स्वर में रोने लगा मानो उसे कोई पीड़ा हो।
–”चुप।” सुंदरलाल ने आदेश के स्वर में कहा–”देवी जी हम चारों में से कोई भी आपका शत्रु नहीं है। हम तो केवल इतना चाहते हैं कि जो जुल्म आप पर हुआ है उसका प्रतिकार किया जाए। आशा है आप शांत रहकर मेरे प्रश्नों का उत्तर देंगी।”
सामने खड़ी वह स्त्री आकृति खिलखिलाकर हँसी।
–”हँसने जैसा तो कोई कारण नहीं है, क्या जो कुछ मैंने कहा है उस पर आपको विश्वास नहीं है?”
उत्तर में वह कहती है–”विश्वास अविश्वास का प्रश्न नहीं है।”
–”क्या आप विशेष रूप से चाहती हैं?”
–”हाँ, मैं चाहती हूँ कि आप चारों सुखी और् सम्पन्न रहें, परंतु साथ-साथ यह भी चाहती हूँ कि आप मेरे बारे में अपनी जिज्ञासा समाप्त कर दें और रात अपने-अपने घरों में शांति के साथ बिताएँ।”
–”आप हमारी क्यों उपेक्षा कर रही हैं? क्या यह बताने की कृपा करेंगी?”
–”जो होना था वो हो चुका।”
–”फिर भी हमारी इच्छा है कि आपकी आत्मा को शांति मिले।”
–”कभी नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैं जा रही हूँ।”
और सचमुच वह स्त्री आकृति कमरे से बाहर दिखाई पड़ी, परंतु ऐसा नहीं लग रहा था जैसे वह अपने पाँवों से चलकर दरवाजे के बाहर पहुँची हो।
तभी बिल्ला भी दरवाजे की ओर लपका।
–”क्षमा कीजिएगा, स्त्री प्रेतात्मा बहुत ही जिद्दी है। मैं उसके पीछे जा रहा हूँ।”
–”अगर अनुचित न हो तो हम भी आपके साथ चलें पंडित जी?”
–”अनुचित तो नहीं है परंतु आवश्यक भी नहीं है।” इतना कहकर वह बाहर की ओर लपका।
वह तीनों भी उसके पीछे-पीछे ही तेज कदमों से बढ़े।
वही पिछली रात जैसी प्रक्रिया। सभी तेजी से सीढ़ी चढ़ते हुए ऊपर छत पर पहुँचे।
परंतु सबसे पहले पंडित ही पहुँचा था।
चाँदनी में उन्होंने देखा कि वह स्त्री आकृति छत के एक छोर पर खड़ी है, और् पंडित भी उसके निकट ही खड़ा है। उन दोनों में अब भी कुछ बातें हो रही थीं।
वह कह रहा था – “साफ-साफ कहिए क्या हम लोगों के बारे में कोई संदेह है?”
उत्तर था – “नहीं।”
– “फिर, आप हमें सच्ची बात बताने में क्यों संकोच कर रही हैं?”
– “अधिक कुछ नहीं काह सकती केवल इतना ही कह सकती हूँ कि मैं आपकी शुभचिंतक हूँ। परंतु साथ-साथ यह भी कहना चाहती हूँ कि आप सभी मेरे मामले में न पढ़ें। मैं प्रेतात्मा के रूप में नर्क भोग रही हूँ और् शायद यही मेरी नियति है। जो हो गया उसे कोई रोक नहीं सका और मैं नहीं चाहती कि जो अब हो रहा है उसमें कोई बाधा पड़े। फिर भी मैं आप सभी की शुभचिंतक हूँ, मैं जा रही हूँ और मुझे रोकने की चेष्टा मत करना।”
दूसरे ही क्षण नारी कंठ की खिलखिलाहट युक्त हँसी गूँजी – “आप मुझे रोकना चाहते हैं। भ्रम में मत रहिए, रुक नहीं सकूँगी। रोके से भी नहीं रुक सकूँगी–अब मैं जा रही हूँ, अब मैं जा रही हूँ।”
फिर सभी ने देखा कि वह नारी आकृति धुएँ में परिवर्तित होकर आकाश की ओर उठने लगी।
तभी बिल्ला छत से ऊँचा उछला और धड़ाम से फिर छत पर गिरा।
अब वह धुआँ आकाश में छोटी सी बदली के रूप में दिखाई पड़ रहा था।
परंतु आज खून की वर्षा नहीं हुई। वह बदली-सी दिखाई पड़ने वाली छाया अब लुप्त हो चुकी थी।
पंडित ने पराजय के स्वर में कहा – “आज तो घाटा रहा।”
–”कोई बात नहीं, कल की अपेक्षा आज कुछ अधिक वार्तालाप हुआ है। कल फिर कोशिश कीजिएगा।”
–”सो तो करूँगा ही, परंतु आज का जुआ तो हार गया।”
–”इसमें जुए जैसी क्या बात है?”
–”कबाड़ी निकल भागा।”
–”कौन कबाड़ी?”
–”वही अपना छलिया कुमार।”
–”सामने ही तो पड़ा है।”
–”परंतु जिंदा नहीं मरा हुआ पड़ा है। इसकी जीवात्मा निकलकर चली गयी। साला मुझे दगा दे गया, अब इसे प्रेतात्मा बनकर क्या इसे खाने को लड्डू मिल जाएँगे।”
जगत ने पूछा–”क्या सचमुच मर गया?”
–”जी हाँ, फिलहाल तो मर ही गया।”
जगत आगे बढ़ा। उसने बिल्ले को कई स्थानों से स्पर्श करके देखा – “सचमुच पंडित जी यह तो मर गया।”
–”जी हाँ फिलहाल तो मर ही गया है।”
–”इसका क्या मतलब है, आप कह रहे हैं फिलहाल तो मर ही गया है।”
–”फिलहाल इसलिए कि मैं इसे आसानी से छोड़ देने वाला नहीं हूँ। थोड़ा-सा आकाश में घूमकर जब चारों ओर प्रेतात्माओं का रुदन सुनेगा तो आशा यही है कि लौट आएगा।”
–”आप यह कहना चाहते हैं कि यह बिलाव जिंदा हो जाएगा।”
–”अभी तो कुछ नहीं कहूँगा सुबह तक प्रतीक्षा करके देखूँगा तभी कुछ कह सकूँगा।”
वैसे यह तीनों के लिए ही अचरज की बात थी। परंतु सहज होने का प्रयत्न करते हुए जगन ने कहा – “क्या विचार है महाराज नीचे चलें?”
–”जी हाँ, उस दुखी प्रेतात्मा का तो यहाँ आने का समय निश्चित है। इसका अर्थ है कि फिर लगभग चौबीस घंटे प्रतीक्षा करनी होगी।”
–”यानी की चलें।”
–”जी हाँ चलिए।”
–”इस बिलाव की लाश को साथ ले चलेंगे।”
–”जी नहीं। मुझे आशा है इसलिए सुबह तक प्रतीक्षा करूँगा। फिलहाल इसे यही पड़ा रहने दीजिए।”
जगत ने सुंदरलाल के कंधे पर हाथ रखकर चलते हुए कहा – “पंडित जी।”
–”जी।”
–”यह किस प्रकार की प्रेतात्मा है जो ठीक समय पर प्रगट तो होती है पर विशेष कुछ कहती नहीं और इसी प्रकार छत पर जाकर धुएँ की बदली बन जाती है।”
–”जय झुनझुना, दो ही बातें हैं श्रीमान जी।”
–”वह क्या?”
–”निश्चय ही जिस कमरे में वह प्रगट होती है उस कमरे से और् रात के विशेष समय से इसका अधिक लगाव प्रगट होता है। परंतु आज मैं चाहकर भी यह नहीं जान पाया कि यह प्रेतात्मा सरल है अथवा कुटिल है।”
–”मुझे आशा है इस बात का पता भी आप लगा लेंगे।”
–”जी हाँ प्रयत्न तो करूँगा ही परंतु जब तक कुछ कर न सकूँ तब तक जय झुनझुने के अतिरिक्त कुछ कह नहीं सकता। वैसे मुझे आप सभी से शिकायत है। आप मुझे पंडित जी नहीं काला बामन कहिए।”
हीराभवन में नहीं, उस कोठी में जहाँ हीरालाल आजकल रहता था।
समय– रात के बारह बज रहे थे।
वह कमरा ड्रॉइंगरूम के बाद था जहाँ श्यामा के माता-पिता सोये हुए थे। उधर ही एक-दूसरे कमरे में मोतीलाल सो रहा था।
जिस कमरे में श्यामा सोई हुई थी उस कमरे के बराबर ही एक दूसरा कमरा था। जिसमें श्यामा के दो अविवाहित छोटे भाई सोये हुए थे। एक का नाम सोनेलाल और् दूसरे के नाम रूपलाल।
परंतु जिस कमरे में श्यामा सोई हुई थी वह कमरा दूसरे कमरे में न खुलकर ड्रॉइंग-रूम में खुलता था।
संयोग यह था कि घर पहुँचकर श्यामा ने थोड़ा-सा खाना खाया और फिर अपने बिस्तरे पर आ लेटी।
एक जमाना वह भी था जब श्यामा को उजाले में नींद नहीं आती थी और अपने कमरे कमरे में उसे नाइट बल्ब भी सहन नहीं होता था।
परंतु जब से वह दुर्घटना घटी थी वह कमरे में ट्यूबलाइट ऑन करके सोती थी।
इस प्रकार रोशनी में भी भयानक सपनों के कारण उसकी नींद उचट जाती थी।
आमतौर से ऐसा होता था कि सपने में वह गोली चलने की आवाज और चीखे सुनती थी। फिर वह सपने में देखती थी कि खून से सनी राजेश्वरी उसके निकट ही है और उसके हाथ उसका गला दबा देने के लिए बढ़ रहे हैं।
यकायक वह नींद से जाग जाती थी और् खूब सर्दियों में भी अपने आपको पसीने में भीगा हुआ पाती थी।
परंतु आज।
आज उसने दूसरे प्रकार का सपना देखा।
वह निर्णय नहीं कर पायी थी कि वह कहाँ है– उसने केवल यही देखा कि उसके सामने राजेश्वरी खड़ी है।
सहज और शांत राजेश्वरी।
वह कह रही थी – “दीदी तुम खुश तो हो!”
श्यामा थी जो कि अचरज से उसकी ओर देख रही थी।
–”ऐसे क्या देख रही हो दीदी।”
–”तुम तो मर गयी थी भाभी।”
–”सो तो देख ही रही हो मरना चाहकर भी कहाँ मर सकी।”
–”क्या तुमने सचमुच मरना चाहा था?”
–”तुम क्या कहती हो दीदी?”
–”मैं क्या कहूँ।”
–”अगर कहना ही है तो सच कहो दीदी।”
–”यह सब तुम मुझसे क्यों कह रही हो मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?”
–”किसी ने भी मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ा है।”
–”फिर तुम मेरे पास क्यों आयी हो?”
–”क्या मुझे अपनी दीदी के पास नहीं आना चाहिए था?”
–”हाँ, नहीं आना चाहिए था, क्या मैंने नहीं देखा है कि तुम चिता में जलकर राख हो गयी थीं।”
राजेश्वरी सहज ढंग से मुस्कराती है। वह देख रही है एकटक श्यामा की ओर।
–”मेरी ओर ऐसे क्यों देख रही हो?”
–”तुम्हें मैं दीदी कहती हूँ।”
–”तो?”
–”एक तुम ही हो जो सच कह सकती हो।”
–”मुझे किससे सच कहना होगा?”
–”सभी से सच कहो, सच कहने में तुम्हें डर नहीं होना चाहिए।”
–”मैं डरती नहीं हूँ।”
–”स्वार्थ को भी त्याग दो।”
–”मेरा स्वार्थ, कैसा स्वार्थ?”
–”यह तो तुम जानो। जब तुम डरती नहीं हो जब तुम्हारा कोई स्वार्थ नहीं है, फिर मन में सच को क्यों छुपा रखा है।”
–”सच तो सभी जानते हैं।”
–”सभी की बात मैं नहीं कह रही हूँ, सबके कर्म तो राक्षसों जैसे हैं। मुझे तो तुमसे ही आशा है।”
–”तुम जाओ भाभी।”
–”यानी तुम सच नहीं कहोगी दीदी?”
–”मैं कुछ नहीं जानती और् जो सच है वो सभी जानते हैं।”
यकायक सामने खड़ी राजेश्वरी का रूप बदल गया।
खून से भीगी राजेश्वरी खिलखिलाकर हँसी – “दीदी।”
–”ओह तुम यहाँ से जाओ।”
–”सच नहीं काह सकती न तो फिर मेरी तरह यह झूठी और् मक्कार दुनिया छोड़ दो। इस जीवन से मैं तुम्हें मुक्ति दिला दूँगी। तुम तो मेरी दीदी ही नहीं सहेली भी हो।”
तभी राजेश्वरी के दोनों हाथ श्यामा की ओर बढ़े।
श्यामा को ऐसे लगा कि अभी इसी क्षण वह उसका गला दबा देगी।
वह चीखी। नींद से जाग की स्थिति में इतनी जोर से चीखी कि सारी कोठी गूँज उठी।
तो यह था जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा के लिखे उपन्यास एक गोली तीन चीख का अंश। उम्मीद है यह अंश उपन्यास के प्रति आपकी उत्सुकता जगाने में कामयाब हुआ होगा।