ब्लैकमेलर की हत्या लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा लिखा गया उपन्यास है। यह उपन्यास सुनील श्रृंखला का पाँचवा उपन्यास है जो कि 1966 में प्रथम बार प्रकाशित हुआ था।
सुनील श्रृंखला के इस उपन्यास की ख़ास बात सुनील और उसकी पड़ोसन और सहकर्मचारी प्रमिला के बीच की नोकझोंक है जो कि पाठक का मनोरंजन करती है। आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए ब्लैकमेलर की हत्या में मौजूद सुनील और प्रमिला का एक वार्तालाप।
आशा है यह वार्तालाप आपको पसंद आएगा।
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सुनील अपने फ्लैट में जाने के स्थान पर प्रमिला के फ्लैट का द्वार खुला देखकर उसमें घुस गया। प्रमिला अपने बिस्तर में बैठी ‘लाइफ’ पढ़ रही थी।
“हैलो।” – सुनील एक कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला।
“तुम?” – प्रमिला आश्चर्यचकित स्वर में बोली।
“हैरान क्यों हो रही हो?”- सुनील बोला- “मेरे सिर पर सींग उग आये हैं क्या?”
“सोनू तुम्हारे सिर पर सींग उग आना मेरे लिए कतई हैरानी की बात नहीं है। हैरानी तो इस बात की होती है कि तुम्हारे सिर से सींग गायब कहाँ हो गये।”
“तो मैं गधा हूँ?”- सुनील गरजकर बोला।
“अब मैं अपने मुँह से तुम्हारी तारीफ कैसे कर सकती हूँ?”
सुनील उछलकर खड़ा हो गया।
“लड़की।”- वह नाटकीय स्वर में गरजा – “तूने हमारे अस्तित्व को चैलेंज किया है।”
“तो तुम्हारा भी कोई अस्तित्व है!”- प्रमिला व्यंग्य से बोली।
“अगर तुम अपने शब्द वापिस ले लो तो हम अब भी तुम्हारी जान बख्शी कर सकते हैं वरना…”
“वरना क्या?”
“वरना हम तुम्हें हजम कर जायेंगे और डकार भी नहीं लेंगे।”
“घास खाओ, घास।”- प्रमिला उसे पुचकारती हुई बोली-“गधों को माँस हजम नहीं होता।”
“बस लड़की! हमारे अब सब्र का प्याला भर चुका है। अब देख हम कैसे तेरी इस कोमल काया को क्षण भर में छिन्न-भिन्न और नष्ट-भ्रष्ट करते हैं।”
और सुनील प्रमिला की ओर झपटा।
“ओ सोनू के बच्चे।”- प्रमिला जल्दी से चिल्लाई- “मैं दीवानचंद की बात नहीं बताऊँगी।”
सुनील वहीं धमक गया।
“अभी क्या था तुमने?”- सुनील उत्सुक स्वर में बोला।
“गधा।”- प्रमिला होंठ दबाकर बोली।
“वह तो मैं हूँ ही।”- सुनील नम्र स्वर में बोला- “उसके बाद तुमने क्या कहा था?”
“उसके बाद मैंने तुम्हें घास खाने के लिए कहा था।”
सुनील का पारा चढ़ने लगा लेकिन वह सब्र करके बोला- “दीवानचंद के विषय में तुम क्या कह रही थी?”
“कुछ नहीं।”
“नहीं बताओगी?”
“ये कौन सा तरीका है पूछने का? तुम तो धमकी दे रहे हो। मेरी मिन्नत करो, प्लीज कहो।”
“अच्छा प्रमिला देवी जी।”- सुनील हाथ जोड़कर बोला – “सुनील कुमार चक्रवर्ती, स्पेशल कोरेस्पोंडेंट ब्लास्ट आपसे प्रार्थना करता है कि आप दीवानचंद के बारे में जो जानती हैं बता दें।”
“हाँ, यह हुई न बात।”
“अब कह भी चुको।”- सुनील झुँझला कर बोला।
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पुरानी यादें ताज़ा कर दीं विकास जी आपने। यह छोटा-सा उपन्यास मेरे पसंदीदा उपन्यासों में से एक है जो 'एक तीर दो शिकार' के नाम से भी प्रकाशित हुआ था। चूंकि आप उपन्यास पढ़ चुके हैं, आपको पता चल ही गया होगा कि क़ातिल की शिनाख़्त कैसी चौंका देने वाली निकलती है और उपन्यास का अंत में बताया गया तथ्य कैसे मज़ेदार ढंग से सुनील को (और पाठकों को भी) अचम्भित कर देता है। जहाँ तक सुनील और प्रमिला के संबंध का प्रश्न है, अपने आरंभिक उपन्यास में पाठक साहब ने लिखा था कि सुनील प्रमिला से प्यार करता था लेकिन शीघ्र ही पाठक साहब को प्रमिला का बार-बार सुनील पर हावी हो जाना अखरने लगा और उन्होंने प्रमिला को सीरीज़ से ही विदा कर दिया। दो दशक के अंतराल के उपरांत उन्हें ऐसा ही 'क्रानिकल' समाचार-पत्र की संवाददाता रूपा गुप्ता के साथ भी करना पड़ा। रूपा गुप्ता केवल तीन उपन्यासों में आई। प्रमिला को सीरीज़ में फिर से लाए जाने की कोई भी दरख़्वास्त पाठक साहब को मंज़ूर नहीं हुई। लेकिन प्रमिला जिन उपन्यासों में है, उनको सुनील के साथ अपनी चुटीली नोक-झोंक से चटपटा बना देती है (बाद में यह काम रेणु करने लगी)। 'ब्लैकमेलर की हत्या' एक ऐसा ही उपन्यास है जिसे सुनील सीरीज़ के श्रेष्ठ उपन्यासों में गिना जा सकता है।
जी आपने सही कहा। मैंने सुनील के पुराने उपन्यास पहले पढ़े तो रेणु से ही वाकिफियत थी। रूपा से मैं काला कारनामा में मिल चुका था। प्रमिला से मिलना अच्छा लगा। पाठक साहब अंत में प्रमिला को बुलाकर चिर कुँवारे सुनील का घर भी बसवा सकते हैं। यह अच्छा रहेगा।