प्रश्न: मिस्टर लापता के लिए हार्दिक बधाई। सर्व प्रथम तो ये बताइए कि ‘मिस्टर लापता’ का ख्याल कब मन में आया?
उत्तर: आज से लगभग ढाई वर्ष पूर्व किन्ही कारण वश अपने गाँव जाना हुआ था। स्थितियाँ कुछ ऐसी हो गई थी कि मुझे नौकरी छोड़नी पड़ी थी, इस कारण मन थोड़ा व्यथित भी था, लेकिन गाँव जाने और आने के दौरान जितनी चीज़ें हुई उन सबने मेरा मन बदल दिया। तभी इस कहानी का कच्चा खाका दिमाग मे घूमने लगा था।
प्रश्न: आप क्या अक्सर अपने गाँव जाते हैं? आपने अपनी इन यात्राओं में गाँव में क्या बदलाव पाया है? कौन से बदलाव आपको पसंद आए हैं और कौन से ऐसे हैं जिन्हें देखकर लगता है कि ये न हुए होते तो अच्छा था?
उत्तर: नौकरी-पानी की विवशता के कारण गाँव से संपर्क लगभग टूटने लगा है। दो तीन साल में कभी एकाध बार ही अवसर मिलता है। पिछले 12 सालों में मैं मात्र 4 बार ही अपने गाँव जा पाया हूँ। यह काफी लंबा समय है चीजें काफी बदल जाती है लेकिन सौभाग्य से गाँव का वातवरण अभी भी उसी प्रकार बना हुआ है जैसा कि पहले मैंने कभी देखा हुआ था। हाँ,अब बच्चे बड़े हो गए तो नौकरी पानी की जुगत में नए प्रवासियों की खेप तैयार हो चुकी है जो गाँव में नजर नही आती। पहले जहाँ बिजली और गाँव का दूर दूर तक कोई लेना देना नही होता था वही अब चौबिस घंटे बिजली रहती है। रीति रिवाजों में भी शहरीकरण और अंधानुकरण तेजी से हो रहा है। जहाँ पहले किसी अवसर पर भोज के लिए पंगत की व्यवस्था हुआ करती थी और अतिथियों को अपने हाथों से भोजन परोसने का रिवाज होता था वहीं अब बुफे सिस्टम ने अपनी जड़ें जमा ली है। पहले शादी ब्याह में बस रीति रिवाज परंपराएँ होती थी अब वहाँ भी जयमाल, एंगेजमेंट जैसे आयोजन दिखने लगे हैं। अपने गाँव में सबसे बड़ा बदलाव तो मुझे एक मैरिज हॉल के रूप में दिखा। गाँव में मैरिज हॉल का होना अपने आप बहुत बड़ा ही बदलाव है।
मुझे दावत न्योते में बुफे सिस्टम वाले बदलाव नही पसंद आये, स्वयं से भोजन परोसने और खिलाने में जो अपनत्व होता था वह अब एक थाली लेकर प्रतीक्षा करने में नहीं रहा। विवाहों में बढ़ते आडंबर और दिखावे की प्रथाओं को लेकर भी यही मानना है, ये जबरदस्ती की परंपरा ओढ़ी जा रही है। खैर अब गाँव में भी खर्च करने की क्षमता बढ़ रही है तो लोग भी दिल खोलकर खर्चा करते है। लेकिन किसी समर्थ का किया गया आडंबर किसी असमर्थ के सिर का बोझ बन जाता है, वह भी उन्ही परंपराओं को निभाने के अपरोक्ष दबाव में जीता है।
प्रश्न: क्या मिस्टर लापता के किरदार असल किरदारों से प्रेरित हैं? उनकी कौन सी खूबी को आपने किरदारों में प्रयोग किया है?
उत्तर: जी, मिस्टर लापता का हर किरदार कहीं ना कहीं से प्रेरित है। कोई भी किरदार या घटना काल्पनिक नही है। बस थोड़े बहुत बदलाव जरूर किये गए है जो जरूरी भी है। उपन्यास में उल्लेखित सभी घटनाओं का मैं साक्षी रहा हूँ या मैंने उनके विषय मे सुन रखा है। अब कोई एक किरदार हो तो बताऊँ भी, यहाँ हर किरदार किसी न किसी से प्रेरित है। असल जिंदगी के किरदार फिक्शनल किरदारों से अधिक दिलचस्प होते है।
प्रश्न: ये तो सही बात कही आपने। अच्छा, मिस्टर लापता में आपका पसंदीदा किरदार कौन सा है? कौन सा ऐसा किरदार है जिसे आप असल जिंदगी में मिलना पसंद नहीं करेंगे?
उत्तर: मिस्टर लापता में मेरे अनेकों पसंदीदा किरदार है। सबसे पहले तो सुयश है जिससे नायक बनारस में मिलता है। फिर आते रामनारायण जी जो समय और स्थिति के अनुसार बड़ी तेजी से खुद को बदलने में माहिर हैं। एक प्रोफेसर साहब हैं जो पुरोहित का कार्य भी करते हैं उनके विचार मुझे प्रभावित करते हैं। उनसे जब भी मिलना होता है कुछ न कुछ नया सीखने जैसा होता है।
और रही बात ऐसे किरदार की जिससे मिलने का मन ना हो तो शुभ विवाह वाले चैप्टर में एक दूल्हे महोदय हैं। आप उपन्यास पढ़ेंगे तो समझ जाएँगे, मैं ऐसे लोगों से दूर रहना ही पसंद करता हूँ।
प्रश्न: किरदार रोचक लग रहे हैं। पाठक भी इनसे मिलना जरूर चाहेंगे। अब एक जरूरी सवाल करता हूँ। ऐसे समय में जब अक्सर लोग यह कहते हैं कि हिंदी लेखन से जीवन यापन नहीं चल सकता है। आप पूर्णकालिक हिंदी लेखक बने हैं। इस निर्णय तक आप किस तरह पहुँचे?
उत्तर: हिंदी लेखन से जीवन यापन नही चल सकता ऐसा सोचना ही गलत है। आजकल जितना भी कंटेंट आ रहा है सभी हिंदी ही है। लेखकों को इस उदासीन रवैये से बाहर निकलना होगा और उन्हें कमर्शियल राइटिंग भी सीखनी होगी। आज के लेखक के पास पहले के लेखकों से अधिक अवसर हैं, आज तो पॉडकास्ट, उपन्यास, ईबुक्स, स्टोरीटेलिंग से लेकर वेबसिरिज तक मे अवसर है। बस आपको खुद को सेलेबल बनाना होगा। लेकिन हिंदी लेखक इस मामले में काफी नकारात्मक और उदासीन सोच रखते हैं।
मैंने जब नौकरी छोड़ी तब मेरे पास भी कोई दूसरा पर्याय नही था। तो जो मेरे पास था मैंने उसी पर ध्यान देना आरंभ कर दिया और खुद को किसी एक विधा तक सीमित न रखते हुए मैंने जितना हो सके उतनी विधाओं को आत्मसात करने और हमेशा कुछ नया करने का प्रयास शुरू कर दिया।
चाहे किसी एप के लिए ऑडियो सीरीज हो, किसी कॉमिक्स प्रकाशन के लिए कॉमिक्स स्क्रिप्ट लिखना हो या वेब सीरीज के लिए अपनी कहानियों को पिच करना और प्रेजेंटेबल बनाना। मैंने जैसे जैसे दायरे से बाहर निकलना शुरू किया वैसे वैसे और भी मौके दिखाई देने लगे। लेकिन बात वही है, यहाँ भी कुछ भी थाली में सजाकर नही मिलने वाला, आपको बाकी क्षेत्रों की भांति यहाँ भी दिन रात मेहनत करने की तैयारी रखनीं होगी तभी आप सफल होंगे।
प्रश्न: हिंदी लेखन में कार्य और इससे जीविका कमाने की सोचने वाले युवाओं को आप क्या सलाह देंगे? वो तीन महत्वपूर्ण बिंदु क्या हैं जिनका उन्हें खास ख्याल रखना चाइए?
उत्तर: हिंदी लेखन में कार्य और इसे आजीविका बनाने की सोचने वाले युवाओं के लिए यही कहना चाहूँगा कि इसे यदि आप बस छपास के शौक के कारण करना चाहते हैं तो कमाई धमाई की उम्मीद ना ही करें। लेखन भी समर्पण चाहता है यदि आप समर्पित नहीं हैं, मेहनत नहीं कर सकते तो यह क्षेत्र भी आपको निराश ही करेगा। आपको बंधे बंधाये ढर्रों से बाहर निकलना होगा, लेखन में खुद को केवल उपन्यास तक सीमित रखने से आजीविका के विषय मे सोचना भी गलत है।
रही बात तीन बिंदुओं की तो ऐसा कोई तय फार्मूला मेरे पास नही है लेकिन मैं कुछ चीजें बताना चाहूँगा।
खूब पढ़े, जितना हो सके उतनी किताबें पढ़ें। हर विधा और विषय की पढ़ें। फार्मूले चाहे जितने भी बन जाये लेकिन अच्छे लेखन के लिए पढ़ना आज भी सबसे पहली शर्त है। युवा लेखक समकालीन लेखकों के अलावा और किसी को शायद ही पढ़ते हैं, इंस्टंट पठन से आप फास्टफूड लेखन ही कर पाएँगे। यदि लेखन में धार लानी है तो आपको अपने पढ़ने की क्षमता और दायरा बढ़ाना होगा।
दूसरा बिंदु है केवल एक विधा तक सीमित न रहें और ना किसी एक जॉनर तक खुद को सीमित रखें। प्रयोग करते रहें।
तीसरा बिंदु, सदैव कुछ न कुछ सीखते रहें, लेखन केवल उपन्यास नही होता। लेखन ऑडियो भी होता है, पॉडकास्ट होते है, स्क्रीनप्ले होता है, कॉमिक्स/ग्राफिक नॉवेल्स होते हैं। आपको लेखन के नए नए फॉर्म्स की जानकारी होनी चाहिए और अपडेट रहना चाहिए।
खुद की ब्रांडिंग भी जरूरी है, आपको खुद को प्रस्तुत करना आना चाहिए। अपने उपन्यास के प्रचार प्रसार में किसी प्रकार की हिचक नही होनी चाहिए जो कि अक्सर हिंदी लेखको में पाई जाती है। अक्सर वे कहते पाए जाते है कि हम लिखने आये हैं, अपने लेखन को बेचना हमारा काम नही है और ना ही हम सेल्स पर्सन हैं। तो मेरा कहना यही है कि यह क्षेत्र आपके लिए है ही नही। ना बिकने वाला लेखन होकर भी ना होने के समान है।
प्रश्न: आप किताबें भी लिखते हैं और ऑडियो शोज लिखने का अपना अच्छा खासा अनुभव है? अपने ऑडियो शोज के विषय में कुछ बताएं?
उत्तर: नौकरी छोड़ने के कुछ समय बाद ही मुझे कुछ ऑडियो प्लेटफॉर्म्स से ऑडियो शो लिखने के प्रस्ताव आये। मैंने कुछ नया सीखने की इच्छा से लेखन शुरू कर दिया, उनका एक तयशुदा फॉर्मेट होता है, आपको उनके अनुसार लिखना होता है। ऑडियो शो में आपको अनावश्यक डिटेलिंग के बजाय मुख्य मुद्दे पर केंद्रित रहना होता है। हर एपिसोड में रोचकता बनाई रखनीं होती है। अब तक मैंने रेडियो मिर्ची के लिए 14 से अधिक ओरिजनल शो लिखे हैं जिनमे से 10 ऑन एयर हो चुके हैं और अच्छी खासी प्रतिक्रिया भी मिल रही है।
‘किलर जज’ नामक साइकोलॉजिकल थ्रिलर शो ने ऑडियो क्षेत्र के ऑस्कर समझे जाने वाले ‘गोल्डन माइक’ अवार्ड भी प्राप्त किया है जो कि वाकई में लेखन क्षेत्र में मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि है।
प्रश्न: वाह! ये तो बहुत अच्छी खबर है। इस उपलब्धि के लिए हार्दिक बधाई। अच्छा, पुस्तक लेखन और ऑडियो शो के लिए लेखन में आप क्या फर्क पाते हैं? और इनके बीच क्या समानताएँ आप पाते हैं?
उत्तर: धन्वयवाद। पुस्तक लेखन में आपके पास वातावरण और पात्र संरचना के लिए अच्छा खासा समय होता है। आप लंबे लंबे संवाद और डिस्क्रिप्शन लिख सकते हैं। लेकिन ऑडियो में ऐसा नही है। आपको पहले एपिसोड से ही कहानी को दिलचस्प बनाना होगा, हर एपिसोड में कोई ना कोई क्लिफहैंगर होना आवश्यक है जो अगले एपिसोड के लिए श्रोता की उत्सुकता बनाये रखें। उपन्यास में आपके पृष्ठ निश्चित नहीं होते, आप 200 पृष्ठ से 1000 पृष्ठों तक कहानी लिख सकते हैं, लेकिन ऑडियो में आपके सामने एपिसोड्स की सीमा रेखा होती है कि आपको इतने एपिसोड्स में कथानक समाप्त करना है। उपन्यास में कथानक धीरे धीरे आगे बढ़ सकता है लेकिन ऑडियो में कथानक की गति दुगुनी तेज होगी। और सबसे बड़ी बात, आप उपन्यास लिखने के लिए 2 महीने, 3 महीने, 6 महीने या पूरा साल ले सकते हैं लेकिन ऑडियो में ऐसा नही है। यहाँ समयसीमा होगी, आपको महीने में दस एपिसोड्स से लेकर 30 एपिसोड्स तक लिखने होंगे। उपन्यास के 4 पृष्ठ ऑडियो के एक एपिसोड के बराबर होता है। मैं महीने के 60 एपिसोड्स लिखता था अर्थात 2 उपन्यास हर महीने।
इस हिसाब से मैंने 8 महिने में 14 उपन्यास लिखे हैं। अपना नियमित पुस्तक लेखन अलग से।
प्रश्न: रोचक। उम्मीद है, पाठक और उभरते हुए लेखक इससे लाभान्वित होंगे।
अब मिस्टर लापता पर लौटते हैं। एक नए ऐसे पाठक जो आपके अब तक के काम से अनजान है उसे आप क्या कहेंगे? उसे मिस्टर लापता क्यों पढ़नी चाहिए?
उत्तर: शायद इसीलिए क्योंकि मेरी हर पुस्तक पिछली पुस्तक की विषयवस्तु से अलग होती है। नया पाठक बेहिचक मेरी कोई भी पुस्तक उठा कर पढ़ सकता है, उसे मेरे अगले पिछले उपन्यास के विषय मे पता ना भी हो तो भी कोई फर्क नही पड़ेगा। वैसे भी मिस्टर लापता की विषयवस्तु लगभग हर किसी को अपने आसपास या खुद से जुड़ी हुई दिखेगी।
कहीं ना कहीं हम सबमे एक मिस्टर लापता जरूर है जिसे खुद की तलाश है।
प्रश्न: आपके आने वाले प्रोजेक्ट क्या हैं? आप अब तक अलग अलग विषय वस्तु को लेकर कथानक बुनते आए हैं? आने वाले उपन्यास कौन से जॉनर (genre) के होने वाले हैं?
उत्तर: आने वाले उपन्यासों में मैं फिलहाल एक डार्क थ्रिलर कॉमेडी लिख रहा हूँ। उपन्यास समाप्ति की तरफ है।
बाली शृंखला की एक पूर्वकथा पर काम कर रहा हूँ।
राज कॉमिक्स के संजय गुप्ता जी के नए वेंचर अल्फा कॉमिक्स के लिए भी कुछ लिख रहा हूँ।
यात्रा श्रृंखला में कितने कैलाश से आगे की यात्रा पर कार्य भी जारी है। इसके अलावा कुछ प्रोडक्शन हाउसेज से भी मेल मुलाकात, बातचीत चल रही हैं।
मैं अपना पूर्ण प्रयास कर रहा हूँ आगे ईश्वर की इच्छा।
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तो ये थी लेखक देवेंद्र पांडेय से हमारी बातचीत। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आयी होगी। बातचीत के विषय में अपनी राय आप हमें टिप्पणियों के माध्यम से बता सकते हैं।
मिस्टर लापता
नरेश अचानक से बेरोजगार हो गया। वह सालों से अपने कंफर्ट ज़ोन में फँसा कुएँ का मेंढ़क बना हुआ था। अचानक उसे अपना अनिश्चित भविष्य दिखाई देने लगा। नई नौकरी मतलब फिर से शुरुआत जिसके लिए वह बिल्कुल भी तैयार नहीं था। ऐसे में हताशा और निराशा से घिरे नरेश को ना जाने क्यों अपना गाँव याद आया जिसे वह सालों पहले कहीं छोड़ आया था। गाँव उसका अतीत था तो शहर वर्तमान और भविष्य दोनों थे। दोबारा शुरुआत करने से पहले वह अपनी जड़ों को एक बार देखना चाहता था।
लेकिन क्या गाँव वैसा ही था जैसा उसने सोचा था?
मिस्टर लापता है सुकून की तलाश में बेचैनियों को मंजिल बना लेने वाले नरेश की कहानी।
अपने भीतर समाए बेचैनियों के शहर में लापता, ज़ेहन में कहीं छिपे सुकून के गाँव को खोजते नरेश जैसे ना जाने कितनों की कहानी।
पुस्तक विवरण:
प्रकाशक: फ्लाईड्रीम्स पब्लिकेशंस | पृष्ठ संख्या: 243 | पुस्तक लिंक: अमेज़न
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