परिचय:
एम इकराम फरीदी |
एम इकराम फरीदी जी लेखन क्षेत्र में लगभग एक दशक से सक्रिय हैं। इस एक दशक में उन्होंने काफी रचनाएँ लिखी हैं।
एम इकराम फरीदी जी गज़लकार और उपन्यासकार हैं। उनके लिखे उपन्यास अपराध साहित्य की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।
मूलतः अपराध लेखन करने वाले फरीदी जी अपनी किताबों के माध्यम से समाज में फैले ज्वलंत मुद्दे उठाते रहते हैं। अंधविश्वास, समाज के विभिन्न स्तरों पर फैले अपराध, आतंकवाद इत्यादि के इर्द गिर्द उनके उपन्यास के कथानक बुने हुए होते हैं।
एम इकराम फरीदी जी की कुछ पुस्तकें निम्न हैं:
गुलाबी अपराध
(किताबें ऊपर दिए गये लिंक्स पर जाकर खरीद सकते हैं।)
एम इकराम फारीदी जी से निम्न माध्यमों से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है:
ईमेल: ikramfareedi72@gmail.com
‘एक बुक जर्नल’ की साक्षात्कार श्रृंखला के अंतर्गत आज हम आपके समक्ष एम इकराम फरीदी जी से हुई बातचीत प्रस्तुत कर रहे हैं। फरीदी जी कई वर्षों से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं और अब संतोष पाठक जी के साथ मिलकर शुरू किये गये प्रकाशन थ्रिल वर्ल्ड प्रकाशन से प्रकाशन के क्षेत्र में भी कदम रख चुके हैं। इस साक्षात्कार में हमने उनसे उनके जीवन, लेखन और प्रकाशन के विभिन्न बिन्दुओं पर बात करी। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी।
प्रश्न: फरीदी जी पाठकों को अपने विषय में बताएं। मसलन आप किस शहर से हैं, बचपन किधर बीता, शिक्षा दीक्षा किधर हुई?
उत्तर: मैं मूलतः मीरगंज जिला बरेली उत्तर प्रदेश से संबंध रखता हूँ। मेरा बचपन मेरे पैतृक नगर में ही बीता। इसी नगर में मेरी शिक्षा दीक्षा हुई।
प्रश्न: साहित्य से आपका जुड़ाव कैसे हुआ? बचपन में ऐसी कौन सी किताबें थीं जिन्होंने आपकी पढ़ने की ललक जगाई?
उत्तर: अगर मैं बहुत पुराना याद करूँ कि कहानी का नाम पर क्या पढ़ा करता था तो मेरी स्मृति कॉमिक्स या अखबारों की बाल कहानी पर जाकर ठहरती है। मुझे याद आता है कि मेरे बचपन में संडे के दिन अखबार के रंगीन पेज पर बच्चों के लिए सामग्री आया करती थी जिसका मैं रसिया हो गया था। मुझे कई बार का याद आता है कि शनिवार की रात काटे नहीं कटती थी और रविवार की सुबह की पौ फूटते ही खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। बाद में यह मानसिक भूख कॉमिक्स पर आ ठहरी। सभी प्रकार की कॉमिक्स जो उपलब्ध रहती थीं; बड़े चाव के साथ पढ़ा करता था।
फिर लगभग 11 वर्ष की उम्र से उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया। फिर तो यूँ मानिये कि उपन्यास पढ़ने का बुखार चढ़ा रहता था लेकिन वो सब लोकप्रिय उपन्यास हुआ करते थे।
प्रश्न: फरीदी जी लेखन के प्रति आपकी रूचि कब जागृत हुई? क्या आपको याद है आपने पहले पहल क्या लिखा था? आपकी पहली प्रकाशित रचना कौन सी थी?
उत्तर: लेखन के प्रति रुचि… मैंने अपने आठ, दस वर्ष की उम्र में भी बाल कहानियाँ लिखकर अखबारों के लिए भेजी थीं लेकिन वह कभी छपी नहीं इसलिए कहानियाँ लिखने के प्रति कुछ मायूस हुआ था। मेरे भीतर यह अविश्वास बैठ गया था कि मेरी लिखी कहानियाँ किसी अखबार या पत्रिका में जगह नहीं बना सकती तो बाद के दिनों में यह कोशिश छोड़ दी। फिर ला मुहाला पत्रिकाओं में यदा-कदा कहानियाँ भेज देता था। शायद 15 वर्ष की उम्र रही होगी जब मेरी एक कहानी पत्रिका ‘रूप की शोभा’ में शाये हो गई थी लेकिन उसमें भी कंटिन्यू नहीं हो पाया। महकता आंचल पत्रिका के लिए भी मैंने कहानियाँ भेजी थी लेकिन कभी नहीं छपी। महकता आंचल में दो बार मेरी ग़ज़ल छप गई थी।
अब उस कहानी का नाम तो याद नहीं आता जो रूप की शोभा में छपी थी लेकिन उसके मुताल्लिक गोरखपुर से मुझे एक पोस्ट कार्ड मिला था जिसमें लिखा था कि आप की कहानी को अवार्ड के लिए चयनित किया गया है; लिहाजा 75 रूपये का मनी आर्डर करें। मुझे किसी ने बताया कि यह लूटने का धंधा है तो फिर मैंने मनी आर्डर नहीं किया।
प्रश्न: फिलहाल आपका निवास स्थान किधर है। आप जितने शहरों में रहें हैं उनका आपके लेखन पर कैसा प्रभाव पढ़ा है?
उत्तर: जी जनाब , मेरा निवास स्थान जैसा मैंने बताया कस्बा मीरगंज जिला बरेली ,उत्तर प्रदेश है लेकिन मैं अब तक लगभग आधे हिंदुस्तान के विभिन्न शहरों को अपनी कयामगाह बना चुका हूं । लेखन और यायावरी का सीधा संबंध होता है । आप पैतृक स्थान पर रहकर भली प्रकार रचना कर्म अंजाम नहीं दे सकते क्योंकि पीयर प्रेशर अपना काम करता है । जैसे ही आप पीयर प्रेशर से बाहर आते हैं आपका दिमाग रचनात्मक रूप से सक्रिय हो जाता है ।
प्रश्न: लेखन के अलावा आप क्या करते हैं और इसका आपके लेखन पर क्या प्रभाव पड़ता है? क्या लेखक के लिए अपने अनुभव की बढ़ोत्तरी के लेखन के साथ कुछ और करते जाना जरूरी होता है? या ये केवल मजबूरी है? आप इसे कैसे देखते हैं?
उत्तर: मैं लेखक होने के अलावा एक इलेक्ट्रिकल कांट्रेक्टर हूं और दूरदराज क्षेत्रों में मेरी साइटें चलती रहती हैं। यूँ तो लेखन के अलावा किसी लेखक को कुछ दूसरा न करना पड़े; यही उसकी मुराद होती है क्योंकि शौक ही अगर प्रोफेशन बन जाए तो यह तो सोने पर सुहागा वाली बात हो गई मगर सबके साथ ऐसा नहीं हो पाता। मैं लेखन से अलग कार्य करने को मजबूरी के तौर पर ही देखता हूँ । पैसा जिंदगी की जरूरत है इसलिए लेखक को कोई ना कोई काम करना पड़ता है।
प्रश्न: फरीदी जी आप अपराध साहित्य लिखते हैं और आप गजल भी कहते हैं। एकबारगी देखने में दोनों एक दूसरे से कोसों दूर नजर आती है, दोनों पृथ्वी के दो ध्रुवों के समान लग सकती हैं लेकिन लेखक के तौर पर आपको यह कैसे लगती हैं? इन दोनों विधाओं में क्या समानताएं और क्या असमानताएं हैं?
उत्तर: हाँ …जब आपको सिर्फ और सिर्फ सच लिखना हो और आपके तर्कों में कोई कमी ना रहती हो; तब आप नस्र लिखेंगे यानी कहानी लिखेंगे। कहानी ऐसी विधा है जिसमें अपने दृष्टिकोण को समाहित किया जा सकता है और रीडर उसी मिजाज से पढ़ेगा जिस मिजाज से लेखक ने लिखा होगा लेकिन जब फंतासी रचना हो या कहो कि सच को छुपे हुए अर्थों में लिखना हो; तब आपको ग़ज़ल कहनी होगी। गजल में बंदिशें हैं। रदीफो काफिया की बंदिशें हैं। बहरो वजन की बंदिशें हैं ; जो आप कहना चाहते हैं ठीक-ठीक वह नहीं कह सकते। वहाँ आपको रदीफ़ो काफिया के हवाले होना पड़ता है और दूसरी बात दो लाइन में मुकम्मल बात कहना है। वह मुकम्मल बात जो उपन्यास में आप ढाई सौ पेज में कहते हैं; शेर में सिर्फ दो लाइन में कहना है। यही कारण है कि आपका कहन अस्पष्ट रह जाता है और शेर काफिया और रदीफ के जादू में बंध जाता है।
उदाहरणार्थ, आप किसी की नादानी साबित करने के लिए कोई शेर कहोगे तो बहुत मुमकिन है वही नादान व्यक्ति उस शेर को अपनी आलाजर्फी के लिए इस्तेमाल कर ले लेकिन ऐसी गुंजाइश कथा में नहीं रहती। आप जहाँ लक्ष्य करते हैं, तीर फिर वही लगता है।
लेकिन ग़ज़ल का एक अपना जादू और लुत्फ है। इश्क के मामले में ग़ज़ल का कोई सानी नहीं है। एक शेर का लुत्फ 200 पेज पर भारी पड़ता है।
प्रश्न: अच्छा, आप जब अपने उपन्यास लिखते हैं तो उनके विषय कैसे चुनते हैं? क्या आप इनके लिए कोई रिसर्च भी करते हैं? इस रिसर्च में क्या क्या शामिल होता है? आप किसी उपन्यास का उदाहरण देकर यह समझायेंगे।
उत्तर: मैं अमूमन अपराध कथा लिखता हूँ। विषय तभी उठाता हूँ जब कोई प्वाइंट दिमाग को क्लिक कर जाता है। अपनी मर्जी से मैंने आज तक कोई कथा नहीं चुनी। कहीं अखबार पढ़ते हुए, टीवी देखते हुए, किसी से बात करते हुए या यूँ ही कुछ सोचते हुए कभी अचानक ऐसा विषय जेहन में बिजली का कौंधा मार जाता है कि फिर साँसे तेज तेज चलने लगती हैं। दिल की धड़कन बढ़ जाती है और कैफियत पर सकता तारी हो जाता है। बस उसी 1 पॉइंट पर कथा बुनता हूँ और प्राथमिक तौर पर कथा को जेहन में परवरिश देता हूँ। मोटा मोटी सारांश तैयार होता है और कथा लेखन शुरू हो जाता है लेकिन अजीब बात यह है कि जो कथा मैंने सोची होती है वह एक तरफ रह जाती है और इन्हीं बिंदुओं पर एक अलग धारा बहती है। 50 पेज लिखने तक कथा का काफी हिस्सा दिमाग में क्लियर हो जाता है और हैरत की बात यह कि लिखने से पूर्व इसी कथा के संबंध में जो मैंने चरवा बनाया होता है वह बिल्कुल विस्मृत हो जाता है। याद करके भी याद नहीं आता और ना ही उसको याद करने से मुझे कोई जरूरत पड़ती है।
रिसर्च तो मेरे ख्याल से मैंने कोई अतिरिक्त कभी नहीं की। मेरे कथा को मेरे अनुभव की जरूरत पड़ती है जो मैं पेश करता चला जाता हूँ —-बस।
प्रश्न: अपराध साहित्य का स्वर्णिम युग काफी पहले बीत गया है। अभी दोबारा यह युग वापस आने जैसा लग रहा है? पुस्तकें बिक भी रही हैं। उनकी माँग भी है। ऐसे में आप क्या सोचते हैं कि आज जो लेखक और प्रकाशक सक्रिय है उन्हें ऐसा क्या करना होगा कि पढ़ने की यह प्रवृत्ति ऐसे ही बनी रहे? वह इतिहास से क्या सीख सकते हैं?
उत्तर: देखें साहब …टेबल पर तो बारहा यह उम्मीदें बंधती दिखती हैं कि किताबों को बेशुमार तादाद में बिक जाना चाहिए लेकिन फील्ड में ऐसा कोई अनुभव नजर नहीं आता। इसमें कोई दो राय नहीं है कि रीडर की तादाद बहुत अधिक हैं | लोग खूब पढ़ते हैं और खूब पढ़ना चाहते हैं। किंडल एक बड़ा बाजार बन चुका है। जहाँ लाखों की संख्या में रीडर हैं लेकिन वे रीडर बुक स्टाल तक नहीं पहुंच पाते। इसका मुख्य कारण जो मुझे नजर आता है वह यह है कि बुक सेलर आज भी किसी नए लेखक को रखने को तैयार नहीं है। बुक स्टॉल पर जो लेखक पाए जाते हैं; वे मुतवातिर 30 साल या उससे अधिक समय से पाए जा रहे हैं। उनमें कोई ऐसा आकर्षण नहीं बचा है जो रीडर को खींच सकें। रीडर के आकर्षण के लिए नए लेखक चाहिए और नए लेखकों को ना तो कोई बड़ा प्रकाशक छापने को तैयार है क्योंकि बुकसेलर उसे खरीदने को तैयार नहीं हैं।
नए लेखक स्टाल तक नहीं पहुँच पाते; इस कारण रीडर के लिए किताबों का मोह खत्म हो रहा है। यही वजह रही कि दुकानें सिमटती जा रही हैं। ए एच व्हीलर नेटवर्क खत्म हो चुका है।
अब कोई करिश्मा ही हो सकता है कि बुक स्टाल सज उठें और रीडर्स की भीड़ पड़े। उसके लिए कोई ट्रिकबाजी करनी होगी और यह ट्रिकबाजी किसी बड़े पब्लिशर के लिए ही मुमकिन है। जिस तरह शैलेष भारतवासी, नई हिंदी का शिगूफा छोड़कर रीडर्स को आकर्षित करने में सफल रहे। उसी तरह कोई बड़ा पब्लिशर ‘नया अपराध लेखक संघ’ के नाम का शगूफा छोड़े और पुरानी गलतियाँ जैसे कि ट्रेड नेम या नकली उपन्यास से बिलकुल बाज आये और नये लेखकों को पढ़ने की जहमत भी फरमाए। एक दो नहीं बल्कि कम से कम आधा दर्जन नये लेखक बाजार में उतारे। शानदार गेटअप। कम से कम कीमत हो तभी कुछ हो सकता है वरना तो कोई उम्मीद बर नहीं आती; कोई सूरत नजर नहीं आती।
प्रश्न: मनोरंजक साहित्य (जिसमें विशेषकर अपराध साहित्य ) और गम्भीर साहित्य की बहस हमेशा से रही है। आज भी यह बहस यदा कदा उठती रहती है। आप भी इस विषय पर सोशल मीडिया में मुखर रहते हैं। आपके नजर में इन दो तरह के साहित्यों को एक दूसरे बरक्स रखा जाना कितना सही और कितना गलत है?
उत्तर: गंभीर साहित्य और लोकप्रिय साहित्य… जिसने इस बहस को जन्म दिया है और जो लोग इसके सारथी रहे हैं वह खुद साहित्य के प्रति समझ को लेकर संदेहास्पद दिखायी देते हैं।
देखें— साहित्य या सुखन का अर्थ होता है— ‘कोई बात सबसे खूबसूरत अंदाज में कहना।’
साहित्य क्या है; दरअसल कोई बात जो बेहतरीन ग्रामर में कही गई हो; मौजूदा समय की प्रचलित भाषा में कही गई हो और स्पष्ट दृष्टिकोण रखा गया हो; वो साहित्य कहलाता है।
क्या अपराध सामाजिक समस्या नहीं है?
फिर अपराध साहित्य को कोई कैसे साहित्य से बाहर रख सकता है ? यह एक बेवकूफाना अमल है। भले ही यह बेवकूफी दुनिया भर में दोहराई जाती हो। जो रचना कर्म यथार्थ के धरातल पर किया गया हो; आम जनमानस की समस्याओं को उकेरा गया है और अपने कथानक में हर पक्ष के साथ न्याय किया गया हो कदाचित अपराधी का भयानक अंजाम दिखाया गया हो; वो साहित्य गंभीर साहित्य की श्रेणी में आता है। उससे कमतर श्रेणी हुई कि आप इश्क मोहब्बत का कथानक रचें या कि आप घरेलू वातावरण और आपसी चुहलबाजी और चुगलखोरी को अपने कथानक में जगह दें।
लेकिन अपराध साहित्य एक श्रेष्ठ साहित्य है, महागंभीर साहित्य है। इस दुनिया में सबसे नामुराद शय अपराध है; इसके विरुद्ध रचना करना श्रेष्ठतम रचनाकर्म है।
प्रश्न: आपने अब अपनी किताबें स्वयं प्रकाशित करनी शुरू कर दी हैं। आपका प्रकाशन का अनुभव कैसा रहा है? क्या इससे आपके लेखन में फर्क पड़ा है?
उत्तर: हाँ, लेखन पर फर्क पड़ता है। हिंदी साहित्य सदन के प्रकाशक महोदय कहते हैं के लेखक को कभी प्रकाशक नहीं बनना चाहिए और प्रकाशक को कभी लेखक नहीं बनना चाहिए वरना कार्य प्रभावित होगा।
प्रश्न: ‘आपने कहा लेखन में फर्क पड़ता है’ इसको आप थोड़ा विस्तार से बतायेंगे।
उत्तर: दरअसल प्रकाशक और लेखक दोनों बनना यह दो जिम्मेदारियाँ हो गईं। दोनों पोस्ट अपनी जिम्मेदारियों और समय माँगती हैं। प्रश्न यह कि समय कहाँ से आएगा? आप प्रकाशक बन जाएंगे तो लेखन कब करेंगे? हालाँकि कई प्रसिद्ध लोगों ने दोनों काम बेहतर तरीके से अंजाम दिए हैं लेकिन मैं समझता हूँ कि लेखक को प्रकाशक नहीं होना चाहिए। कवर डिजाइनिंग से लेकर कई छोटी-छोटी बातें होती हैं जिसमें कोई अलेखक अच्छी भूमिका निभाता है।
प्रश्न: आप आजकल क्या लिख रहे हैं? आपने घोषणा की थी कि आपका एक बॉक्स सेट एक साथ आएगा। उस सेट में कौन सी रचनाएं हैं? क्या आप पाठको को उनके विषय में कुछ बतलायेंगे?
उत्तर: अभी मैं अपना एक उपन्यास #अंततः दोबारा लिख रहा हूँ। यह चौथा उपन्यास है जिसको मैंने दोबारा लिखा है। इससे पहले द ओल्ड फोर्ट , ट्रेजडी गर्ल और चैलेंज होटल दो बार लिख चुका हूँ। दोबारा लिखना यानी प्रथम पेज से लेकर अंतिम पृष्ठ तक दोबारा लिखा जाना।
अभी मेरा बॉक्स सेट आने वाला है जिसमें अवैध, जुर्म को ओवरटेक, क्राइम क्रोनोलॉजी और अंततः आएगा लेकिन अभी थोड़ा समय लगेगा |
प्रश्न: आजकल किताबों के नये नये माध्यम भी बाज़ार में हैं। जहाँ पाठकों के पास इलेक्ट्रॉनिक बुक का विकल्प है वहीं उसके पास किताबों को सुनने की भी सुविधा है। ऑडियो बुक और ई बुक को आप किस तरह देखते हैं?
उत्तर: आजकल ऑडियोबुक, ई-बुक में अच्छा रिस्पॉन्स है। ऐसा लगता है सारे रीडर उधर ही चले गए हैं। रीडर्स ऑडियोबुक को भी खूब पसंद कर रहे हैं लेकिन यह कोई भी फॉर्मेट लेखक को जिंदा रखने को काफी नहीं है। इस किसी भी माध्यम से लेखक इतनी कमाई हरगिज नहीं कर सकता कि वह अपना नॉर्मल जीवन यापन भी कर सके । इन माध्यमों को लेकर लेखक उदासीन हैं। जो मार्केट के हालात हैं उसके अनुसार आने वाले समय में इस विधा का डिब्बा बंद हो जाना चाहिए लेकिन होगा इसलिए नहीं कि कोई भी कला फनाह नहीं होती है।
हाँ, जैसा कि मैंने बताया कि कोई भी शगूफाबाजी करके रीडर को आकर्षित किया जाए और वह बुक स्टॉल तक आ जाए तो बात बन सकती है वरना तो यूँ लगता है कि इस विधा की कब्र खुद चुकी है और लाशे को उतारना मात्र बाकी है।
प्रश्न: आपने बताया कि प्रकाशन को कुछ ‘शागूफाबाजी’ करके पाठकों को आकर्षित करना पड़ेगा। आपका खुद का प्रकाशन थ्रिल वर्ल्ड है। क्या थ्रिलवर्ल्ड प्रकाशन इस दिशा में कोई कदम उठा रहा है?और वो कदम क्या होंगे?
उत्तर: नहीं नैनवाल जी इसमें हम कोई रोल नहीं निभा सकते क्योंकि हम इतने छोटे प्रकाशक हैं कि हमारा होना ना होना एक बराबर है। यह काम कोई बड़ा प्रकाशक कर सकता है जिसका नेटवर्क दुकानों तक हो और मैं कहता हूँ कि किसी ना किसी बड़े प्रकाशक को कोई शगूफेबाजी जरूर करनी चाहिए।
प्रश्न: एक समय था जब किताबें लुगदी में आती थी और वह काफी सस्ती होती थी। अपराध साहित्य के प्रसिद्ध होने का कारण उनके कम दाम में मिलना भी माना जाता है। आजकल वाइट पेपर पर किताबें आने से वह महँगी हो गयी है। क्या किताबो के कम बिक्री होने का एक कारण यह भी माना जा सकता है। आप अब प्रकाशक भी हैं तो आप इसे कैसे देखते हैं। क्या पश्चिम की मास मार्किट पेपरबैक्स की तरह किताबों के सस्ते संस्करण निकाले जा सकते हैं? एक लेखक और एक प्रकाशक के तौर पर आप इसे किस तरह देखते हैं?
उत्तर: देखिए साहब… सेल ही नहीं है तो किसी पेपर पर भी छापा जाए कोई अंतर नहीं आता। बुक स्टॉल का जो आम ग्राहक होता है; वह सस्ते दरों की किताबें ही देखता है। आज आपको रेलवे बुक स्टालों पर तुलसी साहित्य पब्लिकेशन की अधिकतम किताबें मिलेंगी जो विश्व प्रसिद्ध और यहां के बड़े साहित्यकारों की होती हैं। जनरल साइज और कीमत मात्र ₹100।
वेद प्रकाश शर्मा जी की लास्ट किताब भयंकरा सुपर पेपर में मात्र ₹100 में आई थी। पाठक सर की किताबें हार्पर हिंदी से सुपर डुपर क्वालिटी और 350 पेज में मात्र डेढ़ सौ रुपए में आई थी। इससे सस्ता और कहां मिलेगा ? हमारे प्रकाशक तो सस्ता बनाने के मास्टर हैं लेकिन जब सेल ही नहीं है तो कोई क्या करें ?
प्रश्न: पाठक साहब तो फिर भी बिक रहे हैं। भयंकरा को आये हुए काफी वक्त हो गया है तो जितने पढ़ने वाले थे उन्होंने पढ़ ली है। नये लेखक और प्रकाशको की किताबों की कीमत अक्सर स्थापित लेखकों से ज्यादा होती है। क्या इसका भी बिक्री पर असर पड़ता है? और एक प्रकाशक के नाते आप इस समस्या को कैसे देखते हैं? क्या पाठकों के समक्ष लेखक और प्रकाशक का पहलू आप रखना चाहेंगे? और इस समस्या का निदान कैसे हो सकता है?
उत्तर: विकास जी , कीमत का किताब की बिक्री पर बराबर असर पड़ता है और आपने यह बहुत अच्छा मुद्दा उठाया के स्थापित लेखकों से नए लेखकों की किताबों की कीमत ज्यादा होती है जो कि नहीं होना चाहिए। नए लेखको और उनके प्रकाशको को सोचना चाहिए कि कीमत जितना कम से कम हो उतना अच्छा है। जरूरी है कि किताब ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचे। कीमत ज्यादा रखकर लेखक और प्रकाशक को कोई आर्थिक लाभ नहीं हो रहा है तो फिर कीमत क्यों अधिक रखी जाए? यह बहुत बड़ी भूल है इस तरफ ध्यान देना चाहिए।
प्रश्न: फरीदी जी लॉकडाउन चल रहा है। इससे आपके जीवन में क्या फर्क आया है? आप यह वक्त कैसे बिता रहे हैं?
उत्तर: लॉकडाउन कुदरत का एक अजाब ही है। खुदा ऐसा दिन ना दिखाए। मेरा तो खैर लॉक डाउन इसलिए अच्छा बीता के लिखने का भी खूब मौका मिला और पढ़ने का भी। तीन जिल्दों में 3000 पेज की किताब तारीखे इस्लाम जो कई साल से मेरी रीडिंग की बाट जोह रही थी; मैंने इन दिनों पढ़ डाली लेकिन मैं अब अजाबे इलाही से पनाह चाहता हूँ।
प्रश्न: अब आखिर में कोई बात जो मेरे से पूछनी छूट गयी हो और आप अपने पाठकों से साझा करना चाहे तो उसे कर सकते हैं।
उत्तर: अपनी तरफ से अंत में बस यही कहना चाहूँगा कि अपराध साहित्य के लेखक और पाठक दोनों अपने भीतर हीनभावना कतई न पालें। वे इस सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ पढ़ और रच रहे हैं। यथार्थ अगर कहीं है तो अपराध साहित्य ही में हैं वरना तो यथार्थ की चाशनी में फंतासी की मिलावट नजर आती है। दूसरी बात यह कि इन दिनों श्रेष्ठ अपराध साहित्य रचा जा रहा है। विगत दशकों में इतना श्रेष्ठ और स्तरीय साहित्य नहीं रचा गया है और इसका कारण है कि इन दिनों लेखन और बाजार का तारतम्य टूट चुका है। लेखक पर कोई प्रेशर नहीं है कि वह 15 दिन ही में उपन्यास लिख कर लेकर आए। बीते दशकों में बड़ी धांधलेबाजी हुई है इस मार्केट में। लेखक ने तीन-तीन दिन में उपन्यास लिख कर दे दिए हैं। पुराने हेलन के या दीगर लेखकों के उपन्यासों के पात्र और नगर के नाम चेंज करके लेखक प्रकाशक को उपन्यास पकड़ा आते थे और वो उपन्यास छप भी जाते थे। नाम बदनाम हुआ पवित्र अपराध साहित्य का।
और भी बहुत धांधलेबाजियाँ हुई हैं लेकिन इन दिनों श्रेष्ठ और मौलिक रचा जा रहा है। अभी कई लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं; अगर बाजार गुलजार हो जायें तो ये लेखक दिमागो़ं पर जादू करने का हुनर रखते हैं। इसलिए निरंतर पढ़ते रहें और लेखकों को अपनी राय से अवगत करवाते रहें ताकि वह और बेहतर रच सकें।
एम इकराम फरीदी जी की किताबें |
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तो यह थी एम इकराम फरीदी जी द्वारा की गयी हमारी बातचीत। उम्मीद है यह आपको पसंद आई होगी। साक्षात्कार के प्रति आपकी राय का इन्तजार रहेगा।
‘एक बुक जर्नल’ में मौजूद दूसरे साक्षात्कार आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
शानदार ।
आभार, अंकुर भाई…
फरीदी जा साक्षात्कार बहुत रोचक और दिलचस्प लगा।
आपका साक्षात्कार का प्रयास सराहनीय है।
धन्यवाद।
जी आभार, गुरप्रीत जी…. प्रयास आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा… साथ बने रहियेगा..
बेहद शानदार साक्षात्कार, उम्दा सवाल और बेहतरीन जवाब, विकासभाई आप साक्षात्कार और फरीदीजी आप लेखन+प्रकाशन– आप दोनों इसी जोश और हौसले से इनको जारी रखिये, मेरी हार्दिक शुभकामनाएं🌹🌹
यह बातचीत आपको पसंद आई यह जानकर अच्छा लगा अमित जी। आगे और भी साक्षात्कार आपको पढने को मिलेंगे। साथ बनाये रखियेगा।
दिलचस्प और बढ़िया साक्षात्कार।
हार्दिक आभार, मैम।
बहुत अच्छा इंटरव्यू। मैं उनकी उपन्यास की कीमत सम्बन्धि बातों से इत्तेफाक रखता हूं
जी, आभार सतवीर जी। कीमत सम्बन्धी बात से मेरी भी सहमति है।
बहुत अच्छा लगा सर ।
जी आभार….
बहुत बढ़िया
बहुत बढ़िया इंटरव्यू..
आभार आनन्द जी…
शानदार।
आभार,सर
अच्छा लगा इकराम साहब से मिलना …
बातचीत आपको पसंद आई यह जानकर अच्छा लगा,सर….
जी फरीदी जी से सहमत हूँ। मैं भी मानता हूँ कि साहित्य की हर शैली साहित्य ही है, न की केवल गंभीर और सामाजिक साहित्य।
इसी पिछड़ी सोच की गंभीर साहित्य ही साहित्य है, ने भारत मे अन्य शैलियों को उभरने नही दिया। मैने एक Sci fi कहानी लिखी थी प्रतिलिपि पर, जिसे एक जनाब हॉलीवुड की फिल्मो की कॉपी बता रहे थे खासकर मैट्रिक्स। जबकि मेरी कहानी आर्थिक असमानता पर थी, जिसका मैट्रिक्स कोई वास्ता नही।
समस्या यह है कि भारत मे लोग sci fi को पश्चिमी शैली के तौर पर ही देखते है, क्योंकि भारत मे यह ठीक से पनप ही नही पाया।
सभी शैलीयो और उनके लेखको को बराबर सम्मान मिलना चाहिए।