ऋतिक चौहान से एक प्रश्नोत्तरी हुई जिसमें उन्होंने लेखक संदीप नैयर से बहुत ही मौजूँ और सधे हुए सवाल पूछे। आप भी पढ़िए।

एक पाठक के तौर पे एक लेखक के लिए मेरे सवाल हैं, आपको समय मिले तो इनके उत्तर देकर अपनी फेसबुक वॉल पर लगाएँ! बहुत हद तक पाठकों की कई भ्रांतियाँ खत्म होंगी।
वो क्या क्या चीज़ें हैं जो आपको लिखने के लिए प्रेरित करती हैं?
मेरे अपने विचार, मेरी अपनी सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता। कुछ भीतर होता है जो व्यक्त होना चाहता है, आकार लेना चाहता है, विस्तार पाना चाहता है, लोगों तक पहुँचना चाहता है। पंडित जवाहरलाल नेहरु ने डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में लिखा है कि कलाकार कला के माध्यम से ईश्वर को पाना चाहता है। जाने-अनजाने हर कलाकार यही करता है।
क्या ‘नयी वाली हिंदी’, नये लेखकों के हाथ में सुरक्षित है?
‘नयी वाली हिंदी’ एक कैच फ्रेज़ है. जो अब एक प्रकाशक विशेष का मार्केटिंग स्लोगन बन चुका है। यह स्लोगन सफल रहा है और उस मायने में इसकी उपयोगिता है। मगर ‘नयी वाली हिंदी’ जैसी कोई भाषा नहीं है। भाषा स्थिर नहीं होती। वह निरंतर बदलती रहती है। आप कोई लकीर नहीं खींच सकते कि इसके उस पार पुरानी है और इस पार नयी।
वर्तमान में किन किन लेखकों को अपनी टक्कर का मानते हैं?
(इसका जवाब सार्वजनिक न देना चाहें तो इनबॉक्स में दे सकते हैं, मुझ तक ही सीमित रहेगा)
टक्कर तो किसी से नहीं है और न ही टकराव में मैं यकीन रखता हूँ। तुलना अवश्य होती है, मगर वह पाठक ही करें तो ठीक है। लेखक को स्वयं अपनी तुलना किसी अन्य लेखक से नहीं करनी चाहिए। सबका अपना स्थान है। मैं अपनी तुलना अपने स्वयं के कल से करता हूँ और आज बेहतर होना चाहता हूँ।
हिंदी साहित्य को आज से 4-5 वर्षों बाद कितना समृद्ध देखते हैं?
हिंदी साहित्य में नवीनता और विविधिता आ रही है। पुराने ढाँचे ढह रहे हैं। मगर दुर्भाग्यवश नए ढाँचे भी बन रहे हैं। इसमें शायद बाज़ार का भी दबाव है क्योंकि हिंदी के अधिकांश पाठक एक विशेष पृष्ठभूमि से ही आते हैं। हिंदी साहित्य को इसके बाहर भी विस्तार चाहिए। उम्मीद है अगले चार-पाँच सालों में ऐसा होगा। कम से कम मेरा प्रयास तो रहेगा कि हिंदी साहित्य हिंदी बेल्ट के शहरी और कस्बाई पाठकों से आगे निकलकर अन्य पाठकों तक भी पहुँचे।
आपके लिखने से समाज में क्या क्या बदलाव आ सकते हैं?
किसी भी कला का मूल उद्देश्य मानवीय चेतना का विकास और विस्तार होता है। कलाकार की अपनी चेतना का भी और औरों की चेतना का भी। व्यक्तिगत चेतना और सामाजिक चेतना एक दूसरे से जुड़ी होती हैं। जिसे कार्ल युंग ने कलेक्टिव अनकान्शस (सामूहिक अचेतन) कहा है। मगर कलाकार को समाज को बदलने का बीड़ा नहीं उठाना चाहिए। इससे कला पर बोझ आता है और वह अपना सौन्दर्य खो बैठती है। कलाकार को उन्मुक्त होकर सुंदर रचनाएँ करनी चाहिएँ। कला का सौन्दर्य स्वयं मानवीय चेतना को परिष्कृत करता है और समाज में सार्थक बदलाव लाता है।
क्या भारत में कभी हिंदी साहित्य के पाठकों की संख्या अंग्रेजी साहित्य के पाठकों से ज्यादा या उनके बराबर हो पाएगी?
भारत में हिंदी जानने वाले लोग अंग्रेज़ी जानने वालों से बहुत अधिक हैं। और आने वाली कई पीढ़ियों तक रहेंगे। अंग्रेज़ी का ग्लैमर है, अंग्रेजी का दबाव है। इस ग्लैमर और दबाव को तोड़ा जाए और हिंदी साहित्य की मार्केटिंग और वितरण को दुरुस्त किया जाए तो हिंदी अंग्रेज़ी को मात दे सकती है।
क्या आपको लगता है कि बिना एडवरटाइजिंग के नये लेखक अपनी किताब की लागत भी निकाल पाएँगे?
नहीं। आज मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग बहुत ज़रूरी हैं। इसका विरोध नहीं होना चाहिए। मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग के बिना हम अंग्रेज़ी के ग्लैमर को चुनौती नहीं दे सकते।
क्या आप मानते हैं कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की वजह से हिंदी के पाठकों की संख्या में विस्तार हुआ है?
हुआ तो है। मगर आज भी हिंदी का आम पाठक ऑनलाइन का अभ्यस्त नहीं हुआ है। आज भी उसे ऑनलाइन पुस्तकें खरीदने में दिक्कत होती है। फिर वह पुस्तक की लगभग आधी कीमत जितना डिलीवरी चार्ज देना नहीं चाहता। प्रकाशकों और वितरकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
पुराने दौर के हिंदी साहित्य में लेखक बिना ऑनलाइन एडवरटाइजिंग के किस तरह पाठक वर्ग बनाते होंगे?
तब का समय और था। पुराना साहित्य पत्र-पत्रिकाओं में छपता था और धारावाहिक रूप से छपता था। इस तरह वह पाठकों तक पहुँचता था। अब हिंदी की पत्रिकाएँ वैसी न रहीं और न ही वैसे उनके पाठक ही रहे हैं। फिर हिंदी की किताबों के वितरण की वैसी समस्या नहीं थी जैसी पिछले कुछ दशकों में पैदा हुई है। हिंदी की किताबें पुस्तकों की दुकानों में, रेलवे स्टेशन पर, फुटपाथ पर हर जगह मिलती थी। फिर छोटे-छोटे पुस्तकालय होते थे जो हिंदी की किताबों और पत्रिकाओं को किराए पर पढ़ने को देते थे। आज का दौर अलग है। लिखने वाले बहुत हैं। प्रकाशक बहुत हैं। मगर पाठकों से सम्पर्क टूटा हुआ है।
वर्तमान के बाकी लेखकों की तुलना में खुद को कितना अलग पाते हैं और क्यों?
मैंने पहले ही कहा है कि मैं स्वयं की तुलना किसी और से नहीं करता। बाकियों को पढ़ता हूँ और उनसे सीखता हूँ। बहुत कुछ है सीखने को। बहुत अच्छा लिख रहे हैं नये और पुराने दोनों ही लेखक। तुलना करने लगूँगा तो मैं कहीं नहीं ठहरूँगा।
ईमानदारी से अपनी दोनों किताबों की कोई एक-एक विशेषता (जो आपको सबसे ज्यादा पसंद हो) और कोई एक-एक कमी (जो आपको लगता है सुधारी जा सकती थी) वो क्या है?
मेरे साथ कई समस्याएँ रहीं। बीस वर्षों से भारत से बाहर हूँ। ईबुक्स आने से पहले तो हिंदी साहित्य यहाँ मिलता ही नहीं था इसलिए पिछले कुछ दशकों का हिंदी साहित्य न तो पढ़ा और न ही पाठकों की अभिरुचियों को समझने का अधिक अवसर मिला। इसलिए समरसिद्धा और डार्क नाइट दोनों में ही कई कमियाँ रह गयीं। पहली कमी तो भाषा की रही। भाषा को कुछ अधिक ही सामान्य और साधारण बनाने के प्रयास किए जो अब लगता है ज़रूरी नहीं थे। दूसरा यह बोध हुआ कि पाठक को ध्यान में रखकर लिखना ज़रूरी नहीं है। हर तरह के पाठक हैं। लेखक को जो सहज लगे उसे वही लिखना चाहिए। उसी में वह अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकता है। बाकी यदि प्रकाशक और संपादक बाज़ार को ध्यान में रखते हुए कोई सुझाव दें तो उस पर विचार किया जा सकता है मगर समझौता करना उचित नहीं है।
(यह साक्षात्कार साहिंद वेबसाइट पर अक्टूबर 7 2018 को प्रकाशित किया गया था। संदीप नैयर द्वारा ही साक्षात्कार वहाँ प्रकाशित किया गया था।)