- इतिहास को राजनीति के हिसाब से तोड़ना सबसे बड़ा ख़तरा है: प्रो. एस. इरफ़ान हबीब
- इतिहास को लोगों की भाषा में रखना आज ज़रूरी है: प्रो. एस. इरफ़ान हबीब
- किसी भी तानाशाह को लेखक, कवि और रचनाकार कभी बर्दाश्त नहीं होते: राकेश पाठक
- असहमति को देशद्रोह बना देना तानाशाही का पहला लक्षण है: अशोक कुमार पांडेय
- तानाशाही हमेशा अपने ही घोषित उद्देश्यों को अंतत: नष्ट कर देती है: अशोक कुमार पांडेय
22 दिसम्बर, 2025 (सोमवार)
नई दिल्ली। लेखक-इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय की नई किताब ‘बीसवीं सदी के तानाशाह’ का लोकार्पण 20 दिसम्बर की शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में हुआ। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब के लोकार्पण कार्यक्रम की अध्यक्षता सुपरिचित इतिहासकार प्रोफ़ेसर एस. इरफ़ान हबीब ने की। कार्यक्रम में वक्ता के रूप में गिरिराज किराडू, राकेश पाठक और उज्ज्वल भट्टाचार्य उपस्थित रहे, जबकि संचालन शोभा अक्षर ने किया। कार्यक्रम के दौरान वक्ताओं ने किताब की विषयवस्तु, उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और समकालीन प्रासंगिकता पर अपने विचार रखे।
अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रोफ़ेसर एस. इरफ़ान हबीब ने कहा, “आज के माहौल में अशोक कुमार पांडेय जैसे लेखकों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि वे इतिहास को अकादमिक दायरों से बाहर निकालकर आम लोगों की भाषा में एक जगह समेटकर सामने रखते हैं। उन्होंने कहा कि इतिहास कभी पूरी तरह ऑब्जेक्टिव नहीं होता, लेकिन उसकी विश्वसनीयता इस बात पर निर्भर करती है कि वह तथ्यों पर आधारित है या नहीं। समस्या तब शुरू होती है जब इतिहास को आज की राजनीति के मुताबिक़ तोड़ा-मरोड़ा जाता है और तथ्यों की जगह विचारधारा बैठा दी जाती है।”
आगे उन्होंने कहा, “1931 में मुसोलिनी और हिंदू महासभा के नेताओं के बीच हुए संवाद, गांधी के बयानों को यूरोपीय प्रेस द्वारा तोड़-मरोड़कर पेश किए जाने और फासीवादी शैक्षणिक मॉडल की खुली प्रशंसा जैसे उदाहरण बताते हैं कि धर्म, नस्ल और राष्ट्रवाद पर आधारित राजनीति कोई नई चीज़ नहीं है। हिटलर और मुसोलिनी की विचारधारा आज भी हमारे समाज में अलग-अलग रूपों में मौजूद है। ऐसे समय में यह किताब केवल इतिहास नहीं, बल्कि आज के भारत और ख़ासकर युवाओं के लिए एक ज़रूरी चेतावनी और समझ का दस्तावेज़ है।”
उज्ज्वल भट्टाचार्य ने अपने वक्तव्य में कहा, “ऐतिहासिकता में हमेशा प्रासंगिकता होती है, लेकिन हर प्रासंगिकता में ऐतिहासिकता हो यह ज़रूरी नहीं है। फ्रांसीसी क्रांति के बाद रोबस्पियर के उभार से आधुनिक तानाशाही की शुरुआत दिखती है। इसके बाद हम देखते हैं कि लोकतंत्र के विकास के साथ-साथ तानाशाही भी उभरती है। तानाशाह केवल आर्थिक संकट से नहीं, बल्कि अस्मिता और पहचान के संकट से भी जन्म लेते हैं। मोनार्की के स्थान पर जब नेशन-स्टेट आता है और वैधता जनता से ली जाती है, तब सिस्टम, मैनेजमेंट और हायरार्की बनती है और यही हायरार्की असहमति को सीमित कर देती है। ऊपर से आदेश और नीचे उसका स्वीकार, तानाशाही के चरित्र का मूल तत्व है।”
गिरिराज किराडू ने कहा, “यह किताब स्टोरीटेलिंग के अंदाज़ में लिखी गई है, जिसे हर पाठक के लिए पढ़ना और समझना आसान है। यह आम लोगों की शिक्षा और जानकारी के उद्देश्य से लिखी गई किताब है, जो इतिहास को बोझिल नहीं बनाती, बल्कि उसे सहज और पठनीय बनाती है। इसे पढ़कर आप यह समझ पाते हैं कि बीसवीं सदी के तानाशाह किन परिस्थितियों में पले-बढ़े, राजनीति में कैसे आए और किस तरह धीरे-धीरे उन्होंने सत्ता और शक्तियाँ अर्जित कीं। किताब पढ़ते हुए आपके सामने उस दौर की घटनाओं का एक स्पष्ट दृश्य-चित्र आपके सामने उभरता चला जाता है जिससे इसको पढ़ना और समझना और आसान हो जाता है।”
राकेश पाठक ने कहा, “यह किताब बताती है कि तानाशाही किस तरह लोगों के खून पर खड़ी होती है और कैसे हर तानाशाह अपने शासन को हिंसा और दमन के ज़रिये बनाए रखता है। यह किताब पढ़ने पर हमें यह भी समझ आता है कि रचनाकार, साहित्यकार, लेखक और कवि किसी भी तानाशाह को बर्दाश्त नहीं होते। वे उसे सबसे अधिक असहनीय होते हैं। किताब यह भी दिखाती है कि अंतत: हर तानाशाह का अंत लगभग वैसा ही होता है जैसा इसमें शामिल तानाशाहों का हुआ। यह किताब तथ्यों के साथ इतिहास तो बताती ही है साथ ही हम सबको चेताने का भी काम करती है।”
किताब के लेखक अशोक कुमार पांडेय ने अपने वक्तव्य में कहा, “तानाशाही क्या होती है, वह कैसे पैदा होती है और वह अंतत: क्या नष्ट करती है इसे समझना आज पहले से ज़्यादा ज़रूरी है। कोई भी सत्ता अपने उद्देश्य को कितना ही महान क्यों न बताए, अगर वह असहमति को कुचलती है, अभिव्यक्ति की आज़ादी दबाती है और प्रतिरोध की हर आवाज़ को देशद्रोह करार देती है, तो वह तानाशाही ही है।
उन्होंने आगे कहा, इतिहास गवाह है कि हिटलर हो या स्टालिन, धर्म, राष्ट्रवाद या विचारधारा के नाम पर की गई क्रूरताएँ किसी महानता को जन्म नहीं देतीं। इतनी हिंसा और दमन के बदले मनुष्यता को कोई महानता स्वीकार नहीं—उसे आज़ादी, लोकतंत्र, शांति और बोलने का अधिकार चाहिए। बीसवीं सदी के तानाशाहों पर यह किताब अतीत का लेखा-जोखा नहीं बल्कि इक्कीसवीं सदी के लिए एक चेतावनी है कि लोकतंत्र के बिना कोई भी उद्देश्य मानवता के काम का नहीं होता।”
