संस्मरण: मनोज पॉकेट बुक्स में मेरा पहला कदम – योगेश मित्तल

संस्मरण: मनोज पॉकेट बुक्स में मेरा पहला कदम - योगेश मित्तल

सम्भवतः 1971 का आरम्भ था। 1970 में खूब लेखन कर चुका था।

उन दिनों अरुण कुमार शर्मा, नरेश कुमार गोयल और फूलचंद दिल्ली की गाँधी नगर में मेरे शुरुआती दोस्त थे और बिमल चटर्जी के साथ मेरा उठना-बैठना और साथ-साथ बैठकर कहानियाँ लिखने का सिस्टम शुरू हो चुका था।

मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू की तो अरुण कुमार शर्मा, नरेश कुमार गोयल भी जोश आ गया।

अरुण कुमार शर्मा आर्थिक रूप से कमज़ोर माता-पिता की संतान था। उसमें कुछ ज़्यादा ही जोश पैदा हो गया था। जोश हर किसी से एक दो कहानी लिखवा सकता है। खास तौर पर जब उसकी मुझ जैसे किसी भी लेखक से दोस्ती हो। पर फिर जो लेखक नहीं है — उसे बोरियत भी होने लगती है और सरदर्द भी होने लगता है। नरेश कुमार गोयल की जल्दी ही डी डी ए में नौकरी लग गयी। इसलिए उसका जोश ठंडा पड़ गया, पर अरुण कुमार शर्मा ने मनोज बाल पॉकेट बुक्स के लिए लिखना आरम्भ कर दिया और बड़ी तेज़ी से लिखने लगा, किंतु उसकी हर किताब मुझे करेक्ट करनी पड़ती थी। मेरे द्वारा करेक्ट करने के बाद वह फिर से दोबारा रीराइट करके, वे कहानियाँ और बाल उपन्यास मनोज पॉकेट बुक्स में गौरीशंकर गुप्ता जी को देकर आता था।

मेरी खुद अपने लिए लिखी कहानियाँ बिमल चटर्जी के द्वारा मनोज पॉकेट बुक्स में जाती थीं। मुझे एक बाल पॉकेट बुक्स के पंद्रह रूपये मिलते थे। शुरू में 128 पेज की कहानी लिखनी होती थी।

मेरी राइटिंग बहुत साफ़ थी। बिमल चटर्जी और अरुण कुमार शर्मा की तो कम्पोज़ीटर पढ़ लेते थे, बस ऐसी ही गुजारे लायक थी। बाद में वे भी अभ्यास कर-करके काफी साफ़ लिखने लगे और कम्पोज़ीटर्स को भी उनकी राइटिंग पढ़ने की आदत हो गयी थी।

एक दिन मनोज पॉकेट बुक्स के गौरीशंकर गुप्ता जी ने अरुण से कहा, “योगेश मित्तल को जानते हो?”

अरुण ने कहा, “अच्छी तरह।”

“उसे हमारे यहाँ लेकर आओ,” गौरी शंकर बोले।

“वो नहीं आएगा,” अरुण ने कहा, “उसे बिमल चटर्जी से बहुत प्यार है। बड़ा भाई मानता है वह बिमल को।”

“अरे किसी बहाने से लेकर आओ। फिल्म देखने के बहाने से।”

यह सब बातें मुझे बाद में अरुण से पता चली थीं।

फिर एक दिन अरुण ने मुझसे कहा, “योगेश, डिलाइट पर जवानी दीवानी लगी है। देखने चलते हैं।”

अरुण दिखा रहा था मुझ फक्कड़ को। मैंने तो तैयार होना ही था — हो गया।

पहले हम गांधीनगर से तांगे द्वारा चांदनी चौक पहुँचे।

अरुण बोला, “यहाँ दो मिनट दरीबे में काम है मनोज पॉकेट बुक्स में। पेमेंट लेनी है। फिर फिल्म देखेंगे। वहीं डिलाइट के पास छोले-भठूरे खाएँगे।”

मैंने कहा, “ठीक है। तू हो आ — मनोज में। मैं नहीं जाऊँगा।”

अरुण बोला, “पागल है। वो कौन सा तुझे पहचानते है। दो मिनट की बात है — जाते ही पेमेंट मिल जाएगी। वैसे शायद वो मुझे बैठा भी लें, लेकिन तू होगा तो मैं भी जल्दी छूट जाऊँगा — कहूँगा दोस्त है। फिल्म देखने जाना है।”

बात मुझे जम गयी। मैं साथ हो लिया।

उन दिनों काउंटर नहीं होते थे। गद्दी होती थी। फर्श पर मोटे-मोटे गद्दे बिछे होते थे। पीछे गोल तकिये रखे होते थे। अरुण मुझे नीचे खड़ा छोड़ ऊपर जा, गद्दी पर बैठ गया। गौरीशंकर गुप्ता तब सामने ही बैठे थे। अरुण ने उनसे कुछ नहीं कहा। फिर भी वह मुझसे बोले, “ऊपर आ जाओ।”

काफी कोमलता भरी आवाज़ थी, लेकिन थी दबंग आवाज़।

मैंने अरुण की ओर देखा। अरुण बोला — “आ जा।”

मेरी स्थिति ख़राब।

मेरे पास उन दिनों एक जोड़ी जूते भी नहीं थे। हवाई स्लीपर पहन रखी थी। हरे रंग की घर में मम्मी की सिली एक शर्ट थी और उन्हीं का सिला नीली सफेद धारियों को पजामा था। उन दिनों मेरे पास दो-तीन नेकर तो थे, पर पैंट एक भी नहीं थी।

मैं स्लीपर सड़क पर ही उतार मनोज पॉकेट बुक्स की गद्दी पर चढ़ने की चेष्टा करने लगा। पर कद छोटा होने की वजह से चढ़ नहीं पाया।

अरुण उम्र में भी मुझसे बड़ा था और छह फ़ीट लम्बा था, उसने तुरंत ही करीब आ, मेरा एक हाथ पकड़, मुझे ऊपर खींचकर, मुझे ऊपर चढ़ाया।

“घबराओ मत बिमल चटर्जी तुमसे नाराज़ नहीं होगा। हमने उससे बात कर ली है। तभी अरुण से कहकर तुम्हें बुलाया है,” तभी गौरीशंकर गुप्ता जी ने मेरे कानों में बम फोड़ते हुए मुझसे कहा। फिर पूछा –“क्या-क्या लिख सकते हो?”

मैं चुप। बोलना मुश्किल हो रहा था।

किसी प्रकाशक से दूसरी बार मिल रहा था। पर मनोज पॉकेट बुक्स में पहली बार आया था।

मेरे पहले प्रकाशक भारती पॉकेट बुक्स के श्री (अब स्वर्गीय) लाला राम गुप्ता थे। जिन्हें एक हफ्ते पहले ओम प्रकाश शर्मा के नाम से प्रकाशित किये जाने वाला उपन्यास — जगत की अरब यात्रा देकर आया था। पर पैसे अभी नहीं मिले थे।

कितने मिलेंगे — यह भी पता नहीं था।

उस समय मेरी उम्र लगभग पंद्रह साल रही होगी।

गौरीशंकर जी जब यह पूछा कि क्या-क्या लिख सकते हो तो जवाब मेरी जगह अरुण ने ही दिया, “योगेश सब कुछ लिख सकता है।”

“अच्छा तो पहले तो आप तीन पार्ट की बाल पॉकेट बुक्स की एक सीरीज लिखो,” गौरीशंकर गुप्ता सीधे मतलब की बात पर आते हुए बोल, “एक टाइटल हमने बनवा रखा है —सोने का हिरन। बाकी दो पार्ट के नाम आप तय करके बता देना। तीनो पार्ट में एक ही कहानी चलेगी। अट्ठाईस लाइन से एक सौ बारह पेज की किताब होगी। शुरू के चार पेज छोड़ आपने एक सौ आठ पेज लिखने हैं। एक पार्ट का आपको पिचहत्तर रूपये पारिश्रमिक मिलेगा। यानी तीन पार्ट के दो सौ पच्चीस रुपये देंगे। पर टाइटल पर आपका नाम आपका नहीं जाएगा। हम मनोज या प्रेम बाजपेयी के नाम से छापेंगे। ठीक है।”

“ठीक है,” मैंने कहा।

जिसने कभी पंद्रह रुपये से ज़्यादा हाथ में पकड़ कर न देखें हों। दो सौ पच्चीस रुपये बहुत थे।

फिर गौरीशंकर गुप्ता अरुण से बातें करने लगे।

“जासूसी उपन्यास भी लिख लोगे। विनोद-हमीद-इमरान सीरीज?” गौरी शंकर जी ने कुछ देर बाद फिर पूछा।

जवाब इस बार भी अरुण ने दिया, “योगेश सब कुछ लिख सकता है।”

“तो ठीक है, हमारे पास एच. इक़बाल नाम का एक टाइटल तैयार है ‘हत्यारों का बादशाह’ इसके लिए एक जासूसी नॉवल तैयार कर दो तैंतीस लाइन से…पेज का मैटर होगा। इसके आपको बहुत अच्छे पैसे देंगे। और लिखने से पहले ये मैं विनोद-हमीद इमरान सीरीज़ के कुछ नॉवल दे रहा हूँ। इन्हें पढ़ने के बाद करेक्टर समझने के बाद लिखना।”

वो मेरे किसी प्रकाशक से मिलने की शुरुआत का दूसरा दौर था।

उसके बाद जो मेरे लेखन की गाड़ी चली तो कभी पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी। हाँ, मैं हमेशा प्रकाशकों का लेखक रहा, बल्कि प्रकाशकों का सबसे प्रिय लेखक रहा — पाठकों में मेरी पहचान नाम मात्र रही।

अरुण कुमार शर्मा की बाद में डीटीसी में मेकेनिक की नौकरी लग गयी और उसका लिखना भी बंद हो गया। शादी भी हो गयी। बच्चे भी हो गये। बाद में उसके साथ एक हादसा हो गया। डीटीसी के किसी डिपो में एक खराब बस ठीक करते समय किसी दुर्घटना के कारण उसकी आँखों की रोशनी जाती रही। वह अंधा हो गया। पर आवाज़ से सबको पहचान जाता था।

दुर्घटना के बाद भी शायद डीटीसी में उसकी नौकरी बरकरार रही थी।

अब तो उसके दोनों बच्चों की शादी हो चुकी है। लड़की की शादी में, मैं गया था।

वह और उसका परिवार — दिल्ली में यमुना पार चंद्रनगर या पांडवनगर में कहीं रहता है। एड्रेस वाली डायरी कहीं खो गयी है। पुराना मोबाइल चोरी हो गया था, इसलिए फोन नम्बर भी नहीं है। कभी उसी का फोन आया तो फिर से टच में आ जाएँगे।

खैर, इस तरह मनोज पॉकेट बुक्स में मेरा पहला कदम पड़ा और बाद में, मैं राजकुमार गुप्ता, गौरीशंकर गुप्ता, विनयकुमार गुप्ता, तीनों ही भाइयों में प्रिय भी रहा और हमेशा सम्मान भी पाता रहा।

(5 अक्टूबर 2022 को लेखक की फेसबुक वॉल पर प्रथम बार प्रकाशित।)


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