तब जबकि कोई सोच भी नहीं सकता था कि दो लोग मिलकर एक उपन्यास लिख सकते हैं, तब एक करिश्मा हुआ था।
मेरा और बिमल चटर्जी दोनों का कामर्शियल लेखन ‘मनोज बाल पॉकेट बुक्स’ से आरम्भ हुआ था।
बिमल चटर्जी अपनी ‘विशाल लाइब्रेरी’ के लिए उपन्यास और पत्रिकाएँ चंदर भाई के नारंग पुस्तक भंडार से लाते थे।

उन्हीं दिनों गर्ग एंड कम्पनी के लगभग सामने राजकुमार गुप्ता जी की एक दुकान थी – कबाड़ी की दुकान।
वहाँ पुराने अखबारों की रद्दी, पुराने कॉपी-किताब आदि खरीदे जाते थे। उस समय उस दुकान का क्या नाम था – यह याद नहीं। हाँ, यह याद है कि बहुत वर्षों बाद में उस दुकान का नाम राज पुस्तक भंडार रखा गया था, लेकिन ऐसा तब हुआ था, जब ‘मनोज पॉकेट बुक्स’ का बँटवारा हो गया था। उससे पहले वह कबाड़ी की दुकान ही रही थी और वहाँ अधिकांशतः जगदीश जी बैठते थे, जो राजकुमार गुप्ता जी के रिश्तेदार थे। विवरण याद नहीं, पर वो राजकुमार गुप्ता जी को ‘भाई जी’ कहते थे। बहुत बाद में वहाँ शिवरतन जी भी बैठा करते थे।
जब राजकुमार गुप्ता जी ने मनोज पॉकेट बुक्स की नींव रखी, तब आरम्भ में पॉकेट बुक्स का ऑफिस गुप्ता परिवार के वकीलपुरा स्थित घर में ही बनाया गया।
वो मकान गुप्ता परिवार का अपना नहीं था। किराये का था, पर लगभग पूरे मकान में सम्भवतः वे ही किरायेदार थे।
पब्लिकेशन खोलने से पहले रहने का क्या सिस्टम था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन पॉकेट बुक्स पब्लिकेशन खोलने के बाद ग्राउंड फ्लोर पीछे की ओर का बाएँ कोने का एक कमरा ऑफिस था।
लेकिन वह ऑफिस वकीलपुरे की छोटी सी गली में था। किताबों की काउंटर सेल वहाँ नाम मात्र थी, क्योंकि पॉकेट बुक्स और पत्र-पत्रिकाओं की रिटेल और होलसेल की दिल्ली में मेन मार्केट दरीबा कलाँ में ही थी।
उन दिनों कनाट प्लेस में भी शिवाजी स्टेडियम के आगे भी कुछ होलसेलर बैठते थे।
चाँदनी चौक से दरीबा कलाँ में प्रविष्ट होते समय पुस्तकों के होलसेल और रिटेल विक्रेताओं में सबसे पहले दायीं ओर कुछ अंदर पंजाबी पुस्तक भंडार का ऑफिस और गोदाम था तथा बायीं ओर एक दुकान मुख्य सड़क पर थी। बहुत बाद में वहाँ डायमंड पॉकेट बुक्स का बोर्ड लगा था, जो सम्भवतः अब भी बरकरार होगा। उसी के साथ ही एक और दुकान थी, जहाँ हर तरह की धार्मिक किताब तथा भारतीय कैलेंडर पंचाग आदि मिलते थे। अब तो ये सब भी सभी रखने लगे हैं, पर तब ऐसा नहीं था। उन दो दुकानों के बाद बायीं ओर ही रतन एंड कम्पनी की काफी बड़ी दुकान थी।
बाद में जब दुकान का रेनोवेशन का काम चल रहा था, रतन एंड कम्पनी की दुकान साथ की गली में चली गयी थी।
रतन एंड कम्पनी के बाद आती थी – राज कुमार गुप्ता जी की कबाड़ी की दुकान और सड़क पार उसी के सामने गर्ग एंड कम्पनी, फिर गर्ग एंड कम्पनी से कुछ दुकानों के बाद नारंग पुस्तक भंडार की दुकान थी।
मनोज पॉकेट बुक्स की नींव रखने में मुख्य हिम्मत बड़े भाई राजकुमार गुप्ता जी और गौरी शंकर गुप्ता जी की थी।
सबसे छोटे विनय उस समय एक स्टुडेंट ही थे। पढ़ रहे थे। प्रकाशन खोलने की ख्वाहिश तो राज कुमार गुप्ता में बहुत तगड़ी थी, किंतु पब्लिकेशन ढंग से आरम्भ करने के लिए पैसा नहीं था।
आरम्भ में उन्होंने कच्चे पेपर में कुछ उपन्यास सिंगल-सिंगल करके छापे। उसके लिए उन्होंने दो मासिक पत्रिकाओं के नाम रजिस्टर्ड करवाये, जिनके नाम थे – फरेबी दुनिया और डबल जासूस। उन पत्रिकाओं में सस्ता व घटिया अखबारी कागज इस्तेमाल किया जाता था, जो कुछ पीलापन लिए होता था। उसे पेपर मर्चेंट ‘नेफा’ कहते थे।
तब ऑफसेट प्रिंटिंग का ज़माना नहीं था, ज़्यादातर किताबें आठ या सोलह पेज एक साथ छापने वाली प्रेस पर छपती थीं। एक फार्म सोलह पेज का होता था तो आठ पेज वाली मशीन में पेजों की एक साइड में अगर 1,3,5,7,9,11,13,और 15 नम्बर के पेज छप रहे होते थे तो दूसरी साइड में 2,4,6, 8,10,12,14, और 16 नम्बर के पेज छपते थे, जबकि सोलह पेज वाली मशीन में एक से सोलह एक साइड और वही एक से सोलह दूसरी साइड इस तरह सैट होते थे कि एक ही सीट पर दो फार्म तैयार हो जाते थे। बाद में बत्तीस पेज एक साथ छापने वाली मशीनें भी आ गयीं, जिससे प्रिंटिंग में समय की काफी बचत होने लगी।
राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता प्रकाशन करके जो हंगामा करना चाहते थे, वह ‘फरेबी दुनिया’ और ‘डबल जासूस’ छापते रहने से पूरा नहीं हो सकता था, बल्कि तब वह कल्पनाओं से भी दूर था।
एक दिन दोनों भाइयों ने आपस में बात की कि कहीं से दस हज़ार का जुगाड़ किया जाये।
राज कुमार गुप्ता आरम्भ में कुछ शर्मीले व्यक्तित्व के व्यक्ति थे और उनके लोगों से व्यक्तिगत सम्बन्ध भी बहुत प्रगाढ़ नहीं थे, पर मंझले भाई गौरीशंकर की यारी न केवल खूब बढ़-चढ़कर थी, बल्कि उनके दोस्तों में कई बेहद अमीर रईसजादे थे तो ब्याज पर उधार पकड़ने का काम गौरीशंकर गुप्ता ने किया।
पैसा किस दोस्त से लिया गया था, आज उसका नाम बताना मुश्किल है, किंतु दोनों भाइयों की प्लानिंग बड़ी जबरदस्त थी।
राज कुमार गुप्ता आरम्भ से ही सामाजिक उपन्यास पढ़ने के शौकीन रहे थे, जबकि गौरीशंकर गुप्ता ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश काम्बोज के अलावा जासूसी दुनिया खूब पढ़ते थे। हाँ, गौरीशंकर सामाजिक ही नहीं मस्तराम भी पढ़ लेते थे।
पैसे का जुगाड़ करने से पहले या बाद में अच्छी तरह याद नहीं है, लेकिन एक लेखक – जो उन दिनों दोनों ही भाइयों को बेहद पसंद था, वह था – प्रेम बाजपेयी।
और प्रेम बाजपेयी का एक उपन्यास, जो आरम्भ में ‘अमला और कैंची’ नाम से छपा था, दोनों भाइयों के पसन्दीदा उपन्यासों में से एक था।
जब पॉकेट बुक्स का मन बना ही लिया था तो दोनों में से एक भाई इलाहाबाद गया। मुझे लगता है – इलाहाबाद गौरीशंकर गुप्ता ही गये थे, क्योंकि तब वह ही अधिक फ्रैंक, अधिक वाचाल थे।
तब प्रेम बाजपेयी इलाहाबाद में ही रहते थे और जहाँ रहते थे, वहीं उनकी जुगाड़ में लकड़ी का एक बड़ा तख्त था, जिस पर कभी बैठ और कभी अधलेटे होकर वह उपन्यास लिखते थे, ऐसे में पान के कई बीड़े सदैव उनके पास होते थे।
मनोज पॉकेट बुक्स में छपने के बाद प्रेम बाजपेयी जितने साफ सुथरे और आकर्षक दिखाई देने लगे थे, तब उनका व्यक्तित्व वैसा न था।
तब मैली और पीली सी बिना बाजू की गंजी (तब बनियान को गंजी ज्यादा कहा जाता था) पहने पान का बीड़ा मुँह में दबाये, जुगाली सी करते प्रेम बाजपेयी, लेखक कम, पहलवान अधिक नज़र आते थे, कहना बिलकुल भी उचित नहीं होगा। लेखक तो वह लगते ही नहीं थे, पहलवान ही पहलवान नज़र आते थे।
गौरीशंकर प्रेम बाजपेयी से मिले और मिलकर उन्हें इतने खूबसूरत सपने दिखाये कि प्रेम बाजपेयी दिल्ली आने और रहने के लिए तैयार हो गये। और गुप्ता भाइयों द्वारा उन्हें जो सपने दिखाये गये, उन्हें पूरा करने का भी कदम साथ की साथ आगे बढ़ा दिया गया।
उस में पहला कदम था – छह किताबों के बाल पॉकेट बुक्स के सैट निकालने का, जिसके कवर पर एक विशिष्ट ट्रेडमार्क स्टाइल में प्रेम बाजपेयी लिखवाया गया, जोकि बाद में सामाजिक उपन्यासों में भी प्रेम बाजपेयी के नाम का परमानेंट स्टाइल ट्रेडमार्क रहा।
अब गुप्ता ब्रदर्स को जरूरत थी – बच्चों की कहानियाँ लिखने वाले लेखकों की।
उन्होंने पुस्तकों के दो कवर भी बनवा लिये थे और फिर लेखकों से बात करने का सिलसिला शुरू कर दिया था।
इसके लिए उन्होंने नारंग पुस्तक भंडार के चंदर से भी बात की और उसे कुछ लेखकों के बारे में बताने को कहा।
संयोग ही था कि आकर्षक व्यक्तित्व के बिमल चटर्जी उन्हीं दिनों चंदर के यहाँ अपनी लाइब्रेरी के लिए ‘माल’ यानी कि किताबें खरीदने पहुँचे।
और चंदर के हाथ लग गया मुर्गा। उसने बिमल से कहा, “बिमल, तेरे लिए बड़ा जबरदस्त काम है। दाम का दाम मिलेगा और नाम का नाम होगा।”
आज फेसबुक पर यह स्थिति है कि हर दस में से एक कवि या लेखक तो है ही, उसने गली-मुहल्ले की या काल्पनिक संस्थाओं से दस बीस ईनाम भी ले रखें, लेकिन जो असल में लिखने की गहरी पैठ रखते हैं, वे सब ‘ठनठनाठन’ हैं।
मगर तब लेखक होना तो दूर, सोचना भी बड़ा मुश्किल हुआ करता था।
चंदर ने बिमल से बच्चों की कहानियाँ लिखने को कहा तो बिमल ने कहा, “क्या भाईसाहब, यहाँ बीवी को लैटर लिखना हो तो हाथ-पाँव फूल जाते हैं और आप कहानी लिखने को कह रहे हो।”
“अरे पागल, कोई मुश्किल नहीं है बच्चों की कहानियाँ लिखना। मैं तुझे कुछ तिलस्मी कहानियों की किताबें देता हूँ। कुछ लोककथाओं की, जो तुझे पसंद आ जाये, उसके नाम और भाषा बदल कर लिख डाल। पब्लिशर ने कौन सा तेरे नाम से छापनी है। नोट काट और मजे कर।”
बात बिमल चटर्जी की समझ में आ गयी तो चंदर ने उन्हें वकीलपुरे भेज दिया।
बिमल चटर्जी की मुलाकात गौरीशंकर गुप्ता से हुई और मुलाकात क्या हुई, पहली मुलाकात में ही दोनों दोस्त बन गये।
आज मनोज पॉकेट बुक्स और राजा पॉकेट बुक्स तथा मनोज पब्लिकेशन की जो स्थिति है और आज जो पीढ़ी अपने पिताओं की मेहनत का लाभ उठा रही है, वह कल्पना भी नहीं कर सकती कि उन दिनों अक्सर ऐसा भी होता था कि काम में व्यस्तता में राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता कभी-कभी पूरे दिन भूखे रह जाते थे। मुझे इसलिए पता है, क्योंकि मुझे भी उनके साथ भूखा रहने का अवसर मिला है।
तब दिन के खाने की छुट्टी हो जाती थी और चार बजे के करीब याद आता कि अरे आज कुछ खाया नहीं तो चलो, समोसे खा लिए जाएँ।
हालाँकि लंच का खाना रोज उनके घर से तैयार हो टिफिन में लाया जाता था।
कभी-कभी दो जनों के टिफिन में मेरे और मेरे जैसे किसी या अन्य कई लोग भी शेयर होल्डर हो जाते थे।
खैर, बिमल कहानियाँ लिखने का आर्डर लेकर तो आ गये, पर दो दिनों तक एक भी लाइन नहीं लिखी।
तब मैं बिमल चटर्जी का एक मामूली सा ग्राहक मात्र था। उन दिनों मेरी परमानेंट बीमारी दमे ने मुझे कुछ ज्यादा ही परेशान कर रखा था और घर की आर्थिक स्थिति यह थी कि अक्सर टेड्रल जैसी सस्ती गोलियों का पत्ता लेने के लिए भी पैसे नहीं होते थे। बिमल की लाइब्रेरी में किताबों का किराया यद्यपि दस पैसे प्रति बुक था, पर दस पैसे भी तब बड़ी भारी रकम होती थी।
मैं दो दिन बाद बिमल चटर्जी की लाइब्रेरी पहुँचा, पर कोई किताब किराये पर लेने के इरादे से नहीं, बल्कि सोचा था, वहीं खड़े-खड़े नज़र डाल लूँगा।
लेकिन हुआ चमत्कार। बिमल मुझे देखते ही बोले, “यार योगेश जी, कहाँ थे, मैं बड़े दिनों से आपको ही याद कर रहा था।”
“मुझे क्यों…?” मैंने आश्चर्य से पूछा।
“यार, आपने बताया था न कि कलकत्ते के सन्मार्ग अखबार में आपकी कविता और कहानियाँ छपती रहती थीं।”
मुझे याद आ गया। मैंने एक बार बिमल को बताया था। खुद ही अपनी तरफ से बताया था। शायद बिमल की नजरों में अपनी इम्पोर्टेंस बढ़ाने के लिए।
“अच्छा, यह देखो, जरा पढ़ के बताओ। कैसा लिखा है।” बिमल ने एक क्लिपबोर्ड में लगे फुलस्केप पेज मेरी ओर बढ़ा दिये।
मैंने पढ़े। किसी लोककथा जैसी तिलस्मी कहानी थी, पर भाषा शैली बहुत अच्छी थी।
“यह आपने लिखी है?” मैंने बिमल से पूछा।
“कोशिश तो की है,” बिमल मुस्कराये।
“तो फिर मुझे अभी से कोई दूसरी लाइब्रेरी ढूँढनी होगी।”
“ऐसा क्यों कहते हो योगेश जी।”
“आप मशहूर लेखक बनने वाले हो, फिर यह लाइब्रेरी क्यों करोगे?”
“अरे नहीं यार, ये तो अपनी रोजी रोटी है। लिखना तो शौकिया है।”
तब बिमल ने लिखना शौकिया ज़रूर बताया था, लेकिन बाद में सचमुच ऐसा दिन आया, जब लिखना रोजी-रोटी हो गया। लाइब्रेरी बंद करनी पड़ी।
फिर उसी दिन बातों ही बातों में बिमल ने कहा, “योगेश जी, थोड़ी सी मदद आपको भी करनी होगी।”
“क्या…?”
बिमल चटर्जी ने मेरे सामने दो टाइटिल्स के प्रूफ रख दिये और कहा, “इन दोनों नामों पर आपको कहानी लिखनी है।”
एक नाम था – ‘अंडे की खेती’ और दूसरा नाम था – ‘बोतल में हाथी’।
मेरे कामर्शियल लेखन का आरम्भ इन्हीं दो बाल कहानियों से हुआ था।
मैं उन दोनों टाइटिल्स को गौर से देखता रहा तो बिमल बोले, “लिख तो पाओगे।”
“हाँ, आज रात लिख दूँगा। कल आपको दे दूँगा।” मैंने सरल लहज़े में कहा तो बिमल ने हाथ बढ़ा दिया, “पक्का…।”
“पक्का…।” मैंने हाथ मिलाते हुए कहा तो बिमल बोले, “ठीक है, मैं एक कहानी के पाँच और दोनों कहानी के दस रूपये दूँगा और अगर आगे भी आप लिखोगे तो विशाल लाइब्रेरी आपके लिए फ्री…।”
“मतलब…?” मेरी साँसें रुकने लगीं।
“आप मेरे यहाँ से जितनी चाहें किताबें पढ़ो, मैं कभी कोई किराया नहीं लूँगा।”
अगले दिन मैंने दोनों कहानियाँ बिमल को दीं। बिमल ने पढ़ीं और फिर मैं और बिमल दिनोंदिन कितने गहरे रिश्ते में बँध गये, यह बहुत थोड़े वक़्त की बात है।
स्थिति ऐसी आयी कि बिमल के यहाँ कुछ भी खास बन रहा होता तो बिमल चटर्जी सुबह ही मेरे घर आ जाते और मेरी मम्मी से कहते, “मम्मी जी, आज योगेश जी के लिए खाना मत बनाइयेगा।”
हमने बहुत सारी कहानियाँ कुछ ही दिनों में लिख डालीं। बिमल कहानियाँ पहुँचा कर आये तो इस बार एक नया आर्डर लेकर आये – हमें पाँच भागों की एक बड़ी कहानी लिखनी थी – जिसके पहले भाग का नाम था – ‘शीशे की घाटी’। और फिर शीशे की घाटी के लिए बिमल और मेरे बीच कहानी के प्लॉट की चर्चा हुई। कहानी बिमल ने ही लिखनी आरम्भ की। पहला और दूसरा, फिर तीसरा भी बिमल ने ही आरम्भ किया, किंतु तीसरा भाग आधा ही लिखा गया था कि बिमल की तबियत ढीली हो गयी। उन्हें बुखार हो गया था। बदन इस तरह टूट रहा था कि न तो कुछ करने की हिम्मत हो रही थी, न ही कुछ अच्छा लग रहा था।
तब बिमल ने मुझसे कहा, “योगेश जी, ये कहानी आगे आप ही पूरी कर दो।”
फिर बाकी की सारी कहानी मैंने पूरी की।
मनोज बाल पॉकेट बुक्स में प्रकाशित पाँच भागों में छपी कथा ‘शीशे की घाटी’ सम्भवतः सबसे पहला ऐसा कथानक था, जो दो लेखकों ने मिल-जुलकर लिखा था।
और वो दो लेखक थे – बिमल चटर्जी व योगेश मित्तल…।
यानी कि… मैं…।
(1 मई 2021 को लेखक की फेसबुक वॉल पर प्रकाशित)
