अशफाक़ अहमद का उपन्यास लिलिथियंस को केंद्र में रखकर लिखा गया है। आखिर कौन थे ये लिलिथियंस? उनका मकसद क्या था? यह तो आप उपन्यास पढ़कर ही जान पाएँगे लेकिन फिलहाल एक बुक जर्नल पर पढ़िए लिलिथियंस का पहला अध्याय। उम्मीद है यह अंश आपको पसंद आएगा।
3 February 2025
विल्नुस, लिथुआनिया
आगे-पीछे दौड़ती दो कारें जैसे आपस में ही टकरा गयी थीं और इस वजह से दोनों ही असंतुलित हो कर लगभग लहराते हुए सड़क पर जमे बर्फ के कणों की वजह से इधर-उधर फिसलते हुए फुटपाथ से जा टकरायी थीं और एक तेज़ शोर पैदा करते हुए रुक गयी थीं। दोनों गाड़ियों में लगा अलार्म सिस्टम एक्टिवेट हो कर आवाज़ करने लगा था— लेकिन फौरन ही तो कोई भी न इस गाड़ी से निकला था और न ही उस गाड़ी से।
फरवरी का बर्फीला मौसम था और रात का वक़्त… सड़क यूरोप की बाकी सड़कों की तरह सूनी पड़ी हुई थी और फौरन उनकी मदद करने दौड़ पड़ने वाला तो वहाँ कोई नहीं था— और जो थे भी, वे बिना मामला समझे दौड़ पड़ने वाले तो हर्गिज़ नहीं थे।
न सिर्फ पूरे लिथुआनिया का आजकल में यह हाल था, बल्कि पूरे बाल्टिक, नार्डिक, स्कैंडिनेवियन रीज़न का यह हाल था और जो संक्रमण अभी पूर्वोत्तर यूरोप में फैला था, वह तेज़ी से दक्षिण-पश्चिम यूरोप की तरफ़ पैर पसार रहा था और नये-नये इलाके इस संक्रमण की चपेट में आते जा रहे थे। कोरोना के बाद एक बार फिर यह इलाके इस तरह से आंशिक लॉकडाउन झेल रहे थे। बचने का कोई उपाय नहीं था, तो सुरक्षा को ही सबकुछ मान लिया गया था और सुरक्षा का हाल यह था कि जितने तरह की भी फोर्सेज इन देशों में मौजूद थीं, वह सब सड़कों पर उतार दी गयी थीं— और दिन की रोशनी में जहाँ डरे-सहमे नागरिक अपने काम निपटाते थे, वहीं अँधेरा होते ही अपने सुरक्षित ठिकानों पर सिमट जाते थे और सड़कों पर पूरा नियंत्रण इन फोर्सेज का हो जाता था। न सिर्फ यह हाल शहरों का था, बल्कि छोटी आबादियाँ भी गहरे आतंक के बीच इसी तरह सर्वाइव कर रही थीं।
यह जगह राजधानी विल्नुस के इंटरनेशनल एयरपोर्ट के पास के ही आलीशान होटल एयरइन से सटी हुई थी, जो रेजिडेंशल एरिया तो नहीं थी, इसलिये वहाँ जो लोग होते थे, वह अँधेरा होने से पहले कूच कर जाते थे और ऐसे में वह होटल ही बचता था, जहाँ इंसानों की मौजूदगी रहती थी। अब इंसान मौजूद थे तो उनकी सुरक्षा भी ज़रूरी थी और सुरक्षा के लिहाज से होटल को मिलिट्री पुलिस ने अपने सुरक्षा घेरे में लिया हुआ था और चारों दिशाओं में बंकर स्थापित कर रखे थे, जहाँ से वे अँधेरे भर निगाहबीनी करते सुरक्षा का दायित्व निभाते थे।
कारों से पैदा हुए शोर और निरंतर बजते अलार्म से न सिर्फ सुरक्षा पर पर तैनात एलएमपी (लिथुआनियन मिलिट्री पुलिस) के जवान तो आकर्षित हुए ही थे— साथ ही होटल के फ्रंट की तरफ़ मौजूद गेस्ट और स्टाफ के लोग भी आकर्षित हो गये थे और सब आँखों में सवाल लिये दोनों कारों पर टकटकी लगाये थम गये थे… किसी अनपेक्षित एक्ट की अपेक्षा में।
कुछ वक़्त पहले की बात होती तो शायद वे दौड़ पड़ते कि किसी घायल को मदद की ज़रूरत हो सकती है, लेकिन अब तो जैसे ऐसी घटनाएँ भी ट्रैप लगती थीं। पता नहीं, कार में जो हैं, वे इंसान ही हैं या स्पेक्टर्स हैं— अँधेरे के बाद यूँ सड़क पर दनदनाते फिरने की हिम्मत तो अब उन्हीं में थी। फिर भी… इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था कि वे इंसान हो सकते थे, लेकिन फिर भी पहले जाँचना-परखना ज़रूरी था।
जब कुछ मिनट हो गये दोनों गाड़ियों को थमे हुए, तब अगली कार का दरवाज़ा खुला था और ऊनी टोपी और ओवरकोट से मुंदी एक महिला दोनों हाथों से सर थामे निकली थी और लड़खड़ाते हुए कार के बोनट से सट कर खड़ी हो गयी थी, जैसे संभलने की कोशिश कर रही हो। दूर मौजूद निगाहें खामोशी से तमाशा देखती रहीं। सर दबाये खड़ी उस महिला ने उन्हें देख लिया था, लेकिन उनसे कुछ कहने की ज़रूरत न समझी।
फिर कुछ पल रुक कर लहराते हुए उस दूसरी कार की तरफ़ बढ़ी, जिसका एक पहिया फुटपाथ पर चढ़ कर एन वहीं पर मौजूद हायड्रेंट से टकरा जाने की वजह से कार वहीं थम गयी थी और पानी बहने लगा था। उस कार का सवार ज्यादा चोट खाया लगता था, लेकिन ग़लती भी उसी की थी— उसी की कार ने असंतुलित हो कर उस महिला की कार को टक्कर मारी थी।
महिला ने उस व्यक्ति तक पहुँच कर उसे हिलाया था जो स्टेयरिंग पर सर डाले ऐसे पड़ा था, जैसे चक्कर खा गया हो, या सर ही कहीं टकरा गया हो। महिला के छेड़ने पर जैसे उसकी तंद्रा लौटी और वह सचेत हो कर सीधा बैठते हुए उसे देखने लगा। फिर महिला की बात के जो जवाब उसने दिये होंगे, उन्होंने उस महिला को और आक्रोशित कर दिया— उसका यह आक्रोश दूर से भी देखा जा सकता था, जिसकी प्रतिक्रिया में वह व्यक्ति भी एकदम तैश में आता दिखा था और वह भी कार से बाहर निकल आया था… जिसके बाद वे दोनों ही एक दूसरे से बाकायदा लड़ने लगे थे।
दूर से उन्हें लड़ते देखते दर्शकों ने फिर भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया था।
जबकि उन दोनों की बढ़ती बहस इस मकाम पर पहुँच गयी थी कि उस व्यक्ति ने महिला को ज़ोर का थप्पड़ रसीद कर दिया था, जिससे वह महिला त्यौरा कर वहीं सड़क पर फैल गयी थी। वह व्यक्ति वापस कार में बैठने लगा था कि महिला ने खड़े होते हुए उसे पकड़ कर बाहर खींच लिया और उससे लिपट कर उसे सड़क पर गिराने की कोशिश करने लगी— जिससे उस व्यक्ति का क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच गया और वह बुरी तरह झुँझलाते हुए उस महिला पर पिल पड़ा। महिला अपनी जगह मज़बूत हो सकती थी, लेकिन शारीरिक शक्ति में उस व्यक्ति के आगे कहीं नहीं ठहरती थी— नतीजे में वह बुरी तरह पिटने लगी, साथ ही पिटते हुए चीखते भी जा रही थी और मदद की गुहार भी लगा रही थी।
अब यह तमाशा दर्शकों के लिये कुछ ज्यादा हो गया और उन्हें हस्तक्षेप करना पड़ा।
“हे— हे बडी— क्या कर रहे हो? छोड़ो उसे।” टुकड़ी इंचार्ज ने आगे बढ़ते हुए गरजदार आवाज़ में कहा।
लेकिन उस व्यक्ति पर जैसे कोई फ़र्क ही न पड़ा और वह पूरी बेरहमी से उसे मारने में लगा रहा। देख कर ही लग रहा था कि अगर महिला को फौरन बचाया न गया तो वह उसे मार ही डालेगा।
ऐसा आभास होते ही उस तरफ़ जितने भी लोग तैनात थे, वे उधर लपक लिये थे और कुछ लंबे डगों से वहाँ पहुँच कर उन्हें छुड़ाने लग गये थे— लेकिन जल्दी ही उन्हें अहसास हो गया कि वह महिला ख़ुद उस व्यक्ति को नहीं छोड़ना चाहती थी, जैसे उसे इस मार में भी कोई रस मिल रहा हो।
छुड़ाने वालों का माथा ठनका।
ठीक तभी, इससे पहले कि वे कायदे से होशियार हो पाते— इधर-उधर से ढेरों दौड़ते लोग जैसे आसपास बिखरे अँधेरे का सीना चीर कर पैदा हो गये थे, जो अब असुरक्षित हो गये, होटल के उस एंट्रेंस की तरफ़ दौड़ पड़े थे।
अफरा-तफरी मचते देर न लगी और एकदम से जैसे हर तरफ़ से आवाज़ें पैदा होने लगी थीं। अब तक दोनों आपस में लड़ रहे महिला और पुरुष अब वहाँ तक पहुँचे उन्हें छुड़ाने वालों से ही लिपट गये थे और अपने नुकीले कैनाईन दाँत अपने शिकार की गर्दन में धँसा देने पर उतारू थे। जो उनकी पकड़ में थे, वे तो किसी तरह उनके मुँह को अपनी गर्दन से दूर रखने की कोशिश में थे ही, बाकी उन्हें छुड़ाने के लिये पूरी ताक़त लगाये थे और उन्हें अहसास हो रहा था कि जैसे वे दोनों ही लोग कोई दानवीय शक्ति रखते थे कि इतने लोगों के बावजूद भी किसी तरह अपने शिकार को नहीं छोड़ रहे थे। दोनों पर चोटों का कोई असर नहीं हो रहा था और असंतुलित अवस्था के बावजूद भी जो उनके शरीरों से सटा कर उन्हें गोलियाँ मारी गयी थीं, उन गोलियों ने उन्हें एक झटका तो दिया था— लेकिन इससे ज्यादा उन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा था और अंततः वे अपने शिकार की गर्दन में दाँत धँसाने में कामयाब रहे थे।
पीछे असुरक्षित हुए एंट्रेंस पर जो चंद लोग बचे थे, वे एकदम से ख़ुद की तरफ़ दौड़ी भीड़ का सामना करने में सक्षम ही नहीं थे— लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी तरफ़ बढ़ते लोगों पर अंधाधुँध गोलियाँ चलायी थीं। इन गोलियों ने ढेरों लोगों को झटके दिये थे, उन्हें गिराया भी था, लेकिन रोक किसी को नहीं पाये थे और वह भीड़ उन तक पहुँचने और उनका शिकार करने में कामयाब रही थी। फिर उन्हीं के हथियारों से वहाँ मौजूद बाकी तीन दिशाओं में तैनात टुकड़ियों से लड़ने लग गयी थी और वातावरण राइफलों से चलती गोलियों की वजह से ऐसे दहल उठा था, जैसे वहाँ कोई जंग का मोर्चा खुल गया हो।
वह उतने भर ही नहीं थे, जितने सामने से प्रकट हुए थे— बल्कि वे हर तरफ़ थे और जैसे बस इसी इशारे का इंतज़ार कर रहे थे और इशारा पाते ही चारों तरफ़ से उनकी तरफ़ दौड़ लिये थे… जहाँ गुंजाइश थी, वहाँ कार, बस, बाइक से और जहाँ नहीं थी, वहाँ पैदल ही, हर तरफ़ से वे गोलियाँ खाते हुए भी उनके बंकरों पर टूट पड़े थे।
वे सिर्फ बाहर की तरफ़ होते तो उन्हें गोलियों के दम पर रोकने की कमज़ोर ही सही, पर एक कोशिश की जा सकती थी— लेकिन फ्रंट एंट्रेंस का मोर्चा टूटते ही वे अंदरूनी सर्किल में पहुँचना शुरु हो चुके थे, और अब दोनों साइड के मोर्चे तो दोतरफ़ा हमले के आगे जल्दी ही टूट गये थे, बचा था पीछे की तरफ़ का मोर्चा, तो वह साइड के दोनों मोर्चे टूटने के बाद तीन तरफ़ा हमले का शिकार हुआ था, और फिर उनके पास भी करने के लिये कुछ नहीं बचा था।
सिक्योरिटी फोर्स के तौर पर वहाँ जितने भी लोग थे, उन सबका शिकार कर लिया गया और शिकारी जैसे उनका खून पीने के लिये उन पर झुंड की तरह टूट पड़े थे— यहाँ तक कि उन्हें आपस में भी इसके लिये संघर्ष करना पड़ रहा था और वे एक दूसरे से लड़ने से भी पीछे नहीं हट रहे थे।
जल्दी ही सारे सुरक्षाकर्मी चूस लिये गये, तब उन स्पेक्टर्स की तवज्जो होटल की इमारत की तरफ़ गयी— जहाँ अंदर मौजूद मौत के ख़ौफ से निचुड़े चेहरे लिये लोग ऊपरी मंजिलों के शीशों से झाँकते उन्हें देख रहे थे।
जैसा हाल, फिलहाल चल रहा था कि ज़िंदा और सुरक्षित बचे लोगों ने रात के वक़्त उन स्पेक्टर्स से बचाव के चलते घरों को अलग-अलग तरीकों से पैक करना शुरु कर दिया था, वैसे ही होटल की इमारत के निचले पोर्शन के सभी हिस्से लोहे और स्टील के फ्रेम से सुरक्षित कर दिये गये थे कि कोई अनधिकृत तरीके से अंदर न घुसपैठ कर सके— तो नीचे से तो गुंजाइश थी नहीं कि वे सीधे दरवाज़े-खिड़की खोलते या तोड़ते अंदर घुस सकते। ऐसे में उनके पास दो विकल्प थे कि या वह ढेर से मिल कर एकसाथ किसी एंट्रेंस पर ताक़त लगाते या किसी तरह ऊपर की तरफ़ चढ़ते।
अब वे कोई जॉम्बी तो थे नहीं कि दिमाग़ का इस्तेमाल न कर सकते— बल्कि वे तो आम इंसानी क्षमता से कहीं ज्यादा दिमाग़ इस्तेमाल कर सकते थे। तो उन्होंने लोहे की मोटी ग्रिल से पैक्ड मेन डोर पर ही एक के बाद एक गाड़ियाँ ला भिड़ायीं— और फिर एक गाड़ी से तेल निकालते बाकी गाड़ियों पर भी छिड़क दिया। इसके बाद उन्होंने उन गाड़ियों में आग लगा दी और ख़ुद सुरक्षित दूरी पर पहुँच गये।
अब होटल की इमारत के चारों ही तरफ़ उन स्पेक्टर्स की भीड़ नज़र आ रही थी, जैसे विल्नुस और आसपास के इलाकों में मौजूद सारे ही स्पेक्टर्स उस एक जगह पर सिमट आये हों।
कारें जलने के साथ ही दगने भी लगी थीं और तेज़ी से भड़कती आग के साथ होते यह धमाके उस ग्रिल को भी पिघलाने और उड़ाने लगे थे। ज्यादा देर नहीं लगी— जल्दी ही पूरा एंट्रेंस ढह गया और सुरक्षा टूट गयी, लेकिन अब समस्या मुख्य द्वार पर भड़कती आग की थी, जिसके चलते वे अंदर नहीं घुस सकते थे।
अब फिर उनमें से किसी ने दिमाग़ लगाया और बस ले आया— जिसकी ज़ोरदार टक्करों से वह उन जलती हुई गाड़ियों को दूर धकेलने लगा।
कुछ ही कोशिशों में अंदर घुसने लायक रास्ता बन गया… और एक बार रास्ता बनने की देर थी— एंट्रेंस के पास मौजूद लार टपकाती भीड़ हल्ला बोलती अंदर घुस पड़ी। फिर जब रास्ता बन गया तो चारों तरफ़ मौजूद भीड़ उसी रास्ते से अंदर समाती चली गयी।
और फिर कुछ देर बाद… पूरे होटल से बस चीख़ें ही चीख़ें गूँज रही थीं, जो विल्नुस् के शांत आसमान को दहलाये दे रही थीं।
पुस्तक विवरण:
पुस्तक: लिलिथियंस | लेखक:अशफाक़ अहमद | पृष्ठ संख्या: 237 | प्रकाशक: ग्रेडियास पब्लिशिंग हाउस | पुस्तक लिंक: अमेज़न