कोलाबा कॉन्सपिरेसी – सुरेन्द्र मोहन पाठक

Rating : 3.5/5
Finished On: 27th of April 2014

संस्करण विवरण –

फॉर्मेट:
पेपर बैक | पृष्ठ संख्या: ४०६ | प्रकाशक: हार्पर कॉलिंस इंडिया

 पहला वाक्य :
मोबाइल की घंटी बजी।
 

कोलाबा कांस्पीरेसी जीत सिंह सीरीज का सातवाँ उपन्यास है ।

जीत  सिंह एक ताला चाबी बनाने में कुशल  है।  वो हिमाचल का रहना वाला है । और अकसर किस्मत से धोका खा जाता है ।  वो एक लड़की से मुहब्बत करने लगता है।  और जब उस लड़की  को पैसों  की ज़रुरत पड़ती है तो उसे पूरा करने के लिये वो गुनाह का सहारा लेता है और वो बन जाता है मुंबई का नामचीन वॉलटबस्टर । लेकिन वो लड़की,सुष्मिता , जिससे जीत इकतरफ़ा प्यार करता था , किसी और से शादी कर लेती है।

ये सब जीत सिंह सीरीज के निम्न ६ उपन्यासों में घटित हो चुका है –
दस लाख , तीस लाख ,पचास लाख ,खोटा सिक्का ,जुर्रत ,मिडनाइट क्लब।

हालाँकि ये जीत सिंह सीरीज का सातवाँ उपन्यास है लेकिन फिर भी नये पाठक इसे पढ़ सकते हैं क्यूंकि इसमें पाठक  साहब ने जीत सिंह कि पुरानी ज़िन्दगी के विषय में जरूरी ज़ानकारी दी है। 
 
इस  उपन्यास की शुरुआत होती है जब सुष्मिता के पति कि निर्मम हत्या हो जाती है और उसके पति के पहली पत्नि से जो बच्चे हैं वो सुष्मिता को घर से बेधखल कर देते हैं ।
जीत सिंह जो अभी अभी एक बड़े केस से छूठ कर आया है ,वो फ़ैसला करता है कि गुनाह कि राह में वो कुछ महिनों तक तो वो नहीं चलेगा । लेकिन तभी सुष्मिता मदद की गुहार लगाने जीत सिंह के पास जाती है।  
क्या जीत सिंह उसकी मदद करेगा ?और अगर हाँ तो इसके लिये उसे किन किन  खतरों का सामना करना पढ़ेगा ? क्या उसे फिर गुनाह करना पड़ेगा ?

ये सब जानने के  लिये  आपको पाठक साहब का ये हैरतअंगेज उपन्यास पढ़ना पडेग़ा ।

उपन्यास काफी रोमांचकारी था । जहाँ एक तरफ ये गुत्थी थी की सुष्मिता के पति कि हत्या किसने कि वहीं दूसरी तरफ़ जीत सिंह के रोमांचित क़रने वाले कारनामें थे ,जिन्हे वो उपन्यास में अँजाम देता है ।  इन दोनों कारणों से उपन्यास कहीं भी बोर नहीं करता है बल्कि ये पाठक को उपन्यास को जल्द से जल्द खत्म करने के लिये प्रेरित करता रहता है ।

जहाँ इस उपन्यास में रोमांच कि कमी नहीं है वही इसमें इमोशंस भी है । हम जीत  सिंह के इमोशंस के साथ इस तरह जुड़ जाते हैं कि उसके दुख को महसूस कर सकते है और उससे sympathize करने लगते हैं । 

उपन्यास में मुझे तो कहीं कोई कमी नहीं लगी ।  हाँ, बस उपन्यास की प्रति जो मेरे को मिली उसमें पन्ने उलटे पुलटे प्रिन्टेड थे  और एक दो जगह तो पन्नें कोरे थे । इस वजह से उपन्यास को मैं पूरी तरह एन्जॉय नहीं कर पाया ।  ये या तो किस्मत कह सकते हैं या उपन्यास को ऑनलाइन मँगाने का  खामियाज़ा । बहरहाल , उपन्यास से कोइ शिकवा नहीं है  और मैं कोशिश करूँगा कि पाठक जी के और  भी उपन्यासों को मैं पढ़ूँ ।

इस उपन्यास को आप निम्न लिंक्स के द्वारा आप मँगा सकते हैं –
कोलाबा कॉन्सपिरेसी का होमशॉप १८ लिंक
कोलाबा कॉन्सपिरेसी का फ्लिपकार्ट लिंक
कोलाबा कॉन्सपिरेसी का अमेज़न लिंक

इस उपन्यास के विषय में अपनी राय देने में हिचकिचाईयेगा नहीं ।


FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *