साक्षी – सुरेन्द्र मोहन पाठक

संस्करण विवरण:

फॉर्मेट: पेपरबैक (लघु उपन्यास काला कारनामा उपन्यास के साथ प्रकाशित हुआ था) | प्रकाशक:  रवि पॉकेट बुक्स | पृष्ठ संख्या: 78 | श्रृंखला: सुधीर कोहली

पहला वाक्य :
वो मेरे ऑफिस में यूँ डरती,झिझकती, सकुचाती दाखिल हुई जैसे कि उसे अंदेशा हो कि अभी किसी ने दरवाज़े के पीछे से निकल कर उस पर हमला किया। 

सुधीर कोहली अपनी ऑफिस में बैठा रजनी, उसकी सेक्रेटरी, के बीमार होने का दुःख मना रहा था कि एक लड़की ने उसके ऑफिस में प्रवेश किया। साक्षी नाम की यह लड़की अभी चार दिन पहले ही शादी शुदा हुई थी और एक दिन पहले से उसका पति, रजत महाजन, गायब हो गया था। वो उसके हित के लिए चिंतित थी और चाहती थी कि सुधीर उसका पता लगाए।

यही नहीं साक्षी बेहद डरी हुई भी थी क्योंकि उसके पति के गायब होने के साथ साथ किसी ने उसके ऊपर दो जानलेवा हमले कर दिए थे।


आखिर इन हमलों के पीछे कौन था? 

साक्षी का पति किधर गायब हुआ? 
क्या किसी ने उसका अहित कर दिया था?


इन्ही सवालों का जवाब सुधीर को तलाशना था। 
क्या वो इनका उत्तर पाने में कामयाब हुआ? इन राजों से पर्दा उठाने के लिए उसे क्या क्या करना पड़ा? 
ये सब बातें तो आपको इस लघु उपन्यास को पढ़कर ही पता चलेगा।

अभी कुछ दिनों पहले ही इस लघु-उपन्यास को पढना खत्म किया है। जब रवि पॉकेट बुक्स ने काला कारनामा उपन्यास अमेज़न पे अवेलेबल करवाया था तो मुझे पता नहीं था कि इसमें सुधीर का ये लघु उपन्यास भी होगा। फिर हिंदी वाणी के हिंदी महोत्सव में जाने का प्लान बना क्योंकि इसमें पाठक साहब की आमद होनी थी और इसलिए मैंने इस किताब को उठाया। उस वक्त मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि इसमें साक्षी नाम से एक लघु-उपन्यास भी है। अक्सर पॉकेट बुक्स के धंधे में अगर उपन्यास की लम्बाई कम होती है तो उसमे एक कहानी फिलर के तौर पर जोड़ दी जाती है और ये मैं कई बार देख चुका हूँ। इसलिए फिलर के तौर पर लघु-उपन्यास को देखकर तो मेरी बांछे खिल गईं। सुबह वेन्यू  के लिए रूम  निकला तो पहले इसी लघु-उपन्यास को पढ़ने की सोची।

उपन्यास की अगर बात करें तो इसने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया। इसमें सुधीर का अपना अंदाज तो है जो कि उपन्यास को पठनीय बनाता है लेकिन कहानी इतनी अच्छी नहीं बन पड़ी है। मुझे सुधीर से पहले ही ये अंदाजा लग गया था कि असल मामला क्या है। फिर कहानी उसी दिशा में बढ़ने लगी । नए किरदार आते गये और मेरा अंदाजा मुझे सही होते दिखा।  
ऐसा नहीं है कि कहानी पठनीय नहीं है। कहानी तो पठनीय है लेकिन वो मज़ा नहीं देती है जो कि एक मिस्ट्री या जासूसी उपन्यास से मिलना चाहिए। अगर आपको इस बात का अंदाजा लग जाये कि मामला क्या है और क्यों सब हो रहा है तो जासूसी उपन्यास अपना प्रभाव खो देता है। और यही इसके साथ होता है। 
लघु उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि ये खाली जगह भरने के लिए लिखी गयी थी। और अपने इस काम को बखूबी निभाती है। इसे एक बार पढ़ा जा सकते हैं। अगर  मैं इसे  दूसरी बार पढूँगा तो केवल सुधीर की हरकतों का लुत्फ़ उठाने के लिए न कि कहानी के रहस्य के लिए। 
हाँ, इस लघु-उपन्यास की एक खासियत जरूर है। अगर सुधीर से आप वाकिफ होंगे तो उसकी कई हरकतें स्त्री विरोधी नजर आती हैं। इस लघु-उपन्यास के शुरुआत में भी ऐसा ही दिखता है लेकिन उपन्यास के अंत तक आते आते उसका एक अलग रूप आपको देखने को मिलता है। एक ऐसा रूप जिसमें वह लड़की की न केवल इज्जत करना जानता है बल्कि साथ में ऐसा बंदोबस्त भी कर देता है जो उसके संवेदनशील रूप को दर्शाता है। उसका ऐसा रूप कम ही देखने को मिलता है। 
साक्षी का पेपरबैक एडिशन तो मिलना मुश्किल है लेकिन डेलीहंट पे आप इसे एक पढ़ सकते हैं। 15 रूपये में ये किताब कुछ बुरी नहीं है। 
अगर पाठक साहब का कुछ और पढने के लिए नहीं है तो इसके तरफ देखें वरना उन्होंने काफी अच्छी कृतियाँ लिखीं हैं जिनके तरफ देखा जा सकता है।  

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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4 Comments on “साक्षी – सुरेन्द्र मोहन पाठक”

    1. टिपण्णी के लिए शुक्रिया।

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