उपन्यास अक्टूबर 30, 2017 से नवम्बर 2,2017 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 76
प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशनस
आईएसबीएन : 9788131008218
मूल भाषा : पंजाबी
पहला वाक्य:
कार्तिक माह की सुहावनी दुपहरी।
कार्तिक माह की सुनहरी दुपहरी थी। सुखद और मीठी मीठी धूप से वातावरण खुशनुमा हो रहा था। लेकिन संतोख सिंह इस सब से अनजान अपनी ही सोच में डूबा हुआ था। वो परेशान था।
तभी डाकिये की आमद ने उसके सोच की धाराओं को तोड़ा। डाकिया उसके लिए एक चिट्ठी लाया था। संतोख सिंह ने जैसे ही चिट्ठी का लिफाफा उठाकर पढ़ा तो उसके तन बदन में आग सी लग गयी। पता भले ही अंग्रेजी में था लेकिन संतोख सिंह जानता था कि भेजने वाला कौन था। उसके मन में भेजने वाले के लिए अनेक अपशब्द निकले। इस मौके पर अगर पत्र भेजने वाला उसके समक्ष होता तो संतोख सिंह न जाने क्या कर गुजरता।
पंडित गोपीनाथ शर्मा का था। संतोख सिंह शर्मा की कभी बहुत इज्जत करा करता था। लेकिन अब शर्मा के प्रति उसके मन में घृणा ही थी। एक बार को उसके मन में आया कि पत्र समेत लिफाफा फाड़ कर फेंक दे। लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर वो हिंदी में लिखे इस पत्र को पढने लगा।
और पत्र ख़त्म करते करते उसकी आँखों से झर झर अश्रु धारा बहने लगी।
संतोख सिंह किस बात से परेशान था? आखिर संतोख सिंह पंडित गोपीनाथ शर्मा से क्यों नाराज था? इन दोनों के बीच का रिश्ता क्या था? पत्र में ऐसा क्या लिखा था?
मुख्य किरदार
संतोख सिंह: एक पंजाबी किसान जो कि राम पुर की रियासत में आये पंजाबी किसानों में सबसे अग्रणी था
बालीराम – एक युवक को वापस रामपुर लौटा था। मूलतः बालीराम रामपुर का ही था लेकिन बचपन अपने परिवार के साथ रामपुर छोड़कर चले गया था। अब वो अपनी बहन के साथ वापस लौटा था।
ततिया उर्फ़ माला – बालीराम की बहन। बहन की आज्ञा को बालीराम ईश्वरीय वचन समझता था।
कृपाल कौर – संतोख सिंह की पत्नी
पंडित गोपीनाथ शर्मा – एक पच्चीस छब्बीस साल का युवक जो गाँधी जी के पत्र हरिजन का सह सम्पादक था। मूलतः रामपुर का निवासी था जो कि वापस रामपुर एक खास मकसद से आया था
ठाकुर भवानी सिंह – जमींदारों का मुखिया
हाजी सलीमुल्ला – हाजीखेड़ा का कर्ता धर्ता
नानक सिंह जी का इस उपन्यास से पहले भी मैं एक उपन्यास पढ़ चुका हूँ। उस वक्त मैंने उनका लिखा उपन्यास एक म्यान दो तलवारें पढ़ा था। ये २०१४ की बात होगी। तब मैंने सोच लिया था कि देर सवेर उनके बाकी उपन्यास भी पढूँगा लेकिन फिर वो देर इतनी हुई की तीन साल बाद ही उनके उपन्यास खरीदने का मौका लगा। ऐसा इसलिए भी था कि उनके हिंदी में अनूदित उपन्यास अमेज़न या फ्लिप्कार्ट जैसे पोर्टल से नदारद थे और हिंदी बुक सेण्टर (जहाँ से मैंने ये और दो और उपन्यास मंगवाये) के अस्तित्व से उन दिनों मैं परिचित नहीं था। खैर, देर आये दुरुस्त आये की तर्ज पर मैंने इस कृति को पढ़ा और अनुभव बेहतरीन था।
नानक सिंह जी ने जब ये उपन्यास लिखा था तो उन दिनों हिंदी और पंजाबी भाषा को बैरी की तरह प्रोजेक्ट किया जा रहा था। वो लेखकीय में लिखते हैं कि:
मूल रूप में जब मैं इस पुस्तक को लिख रहा था तो मेरे मन में एक बात की आशंका थी कि कहीं इसे पढ़कर कतिपिय पंजाबी पाठक (जो उन दिनों साम्प्रदायिकता का शिकार होकर हिंदी और पंजाबी का झगड़ा कर रहे थे) नाराज न हो जाएँ। कारण एक तो इसमें अधिक पात्र गैर पंजाबी लाये गए हैं, दूसरा वार्तालाप के समय उन्हें पंजाबी भाषा के स्थान पर मैंने उन्ही की उपभाषा में बुलवाया है।
इसी लेखकीय में वो ये भी कहते हैं :
परोक्ष और अपरोक्ष रूप में मेरे मन में एक चिर-लालसा बनी हुई है कि हिंदी और पंजाबी भाषाओँ को इतना निकटतम देखूँ जितना माँ के निकट बेटी, अथवा बड़ी बहन के निकट छोटी बहन। उस सौभाग्य-समय की मैं उत्सुकता से प्रतीक्षा करता चला आ रहा हूँ जिस दिन प्रत्येक पंजाबी, हिंदी भाषा का समर्थक होगा, और प्रत्येक हिंदी भाषी, पंजाबी भाषा का प्रेमी होगा।
इन दो कथनों के पढ़ पर मेरे मन में एक तरह से ख़ुशी भी हुई और थोड़ा दुःख भी। दुःख हिंदी की किस्मत को लेकर हुआ कि कैसे विभिन्न राजनेताओं ने उसे अपनी राजनीतिक रोटी पकाने के लिए अन्य भाषाओँ के विरुद्ध लाकर खड़ा कर दिया। उस वक्त पंजाबी में रहा होगा। लेकिन मराठी और दक्षिण भारतीय भाषाओँ के विरूद्ध तो अभी भी इसको लाकर खड़ा किया जाता है। अभी भी हिंदी को ऐसे दैत्य की तरह प्रचारित किया जाता है जो जिधर जाएगी उसकी भाषा को निगल जाएगी। ये विडम्बना नहीं तो क्या है?
दूसरे कथन को पढ़कर मुझे बेहद ख़ुशी भी हुई है। मुझे नहीं लगता है अब हिंदी और पंजाबी का बैर रहा है। पंजाबी से हिंदी भाषी उतना ही प्रेम करते हैं जितना कि शायद पंजाबी हिंदी से करते होंगे। नानक सिंह जी आज होते तो शायद ये देखकर खुश होते। ये बात एक और उम्मीद मन में जगाती है कि बाकी भाषाओँ के साथ भी ऐसे ही सुमधुर सम्बन्ध भविष्य में हिंदी के बनेंगे और लोग ऐसी नफरत की राजनीति को नकारकर उसको नेताओं के लिए अनुपयोगी बनायेंगे।
अब उपन्यास पर आते हैं। उपन्यास की पृष्ठ भूमी रामपुर रियासत है। उपन्यास के शुरुआत में ही ये बता दिया जाता है कि उधर के हालात कैसे थे और कैसे ज़मींदारों और नवाब की लापरवाही के चलते किसानी अपना दम तोड़ रही थी। फिर कैसे पंजाबी लोग इधर बसना शुरू हुए और उपन्यास का पहला मुख्य किरदार संतोख सिंह इधर आया। संतोख सिंह एक कोमल हृदय पंजाबी है। जो परहिताभिलाषी है और मेहनती है। इसी रवैये के चलते उसकी जान पहचान बालीराम और उसकी बहन तातिया से होती है जो कि उपन्यास के दूसरे मुख्य किरदार हैं और इन तीनों के बीच एक सम्बन्ध सा बन जाता है। बालीराम और ततिया भी ऐसे ही किसान परिवार में से थे जिन्हें अपनी जमीन बेचकर बाहर जाना पडा था लेकिन अब वो वापस अपने गाँव वापस आये थे। ततिया है तो अनपढ़ लेकिन तीक्ष्ण बुद्धि की तेज तर्रार लड़की है। वो बालीराम से छोटी है लेकिन बालीराम और उसका रिश्ता भाई बहन कम माँ बेटा का ज्यादा लगता है। बालीराम उसकी वैसे ही इज्जत भी करता है। यही रामपुर में पंडित गोपीनाथ शर्मा भी आते हैं। ये उपन्यास के चौथे मुख्य पात्र है जो एक विशेष मकसद से यहाँ आये हैं। उन्हें पता है कि रामपुर के मूल किसानों की हालत जब तंग थी तो यहाँ के जमींदारों ने उनकी मजबूरी का फायदा उठाते हुए बेहद कम दामों में उनसे उनकी जमीन हथिया ली थी। शर्मा जी का मकसद किसानो को उनका हक़ दिलाना है। इसी मकसद के कारण चारों पात्र नजदीक आते हैं और उपन्यास का कथानक आगे बढ़ता है।
उपन्यास पठनीय है। इसकी शुरुआत इस तरह से होती है कि पाठक के अंदर उपन्यास को पढने की लालसा जागृत हो जाती है।
उपन्यास कई चीजें सोचने पर मजबूर करता है। उपन्यास का कथानक मूलतः ये दर्शाता है कि तरह आज़ादी की लड़ाई के लिए लोगों ने अपनी व्यक्तिगत लड़ाई का त्याग किया था। उन्हें जब देश और व्यक्तिगत मकसद के बीच का चुनाव करना पड़ा तो उन्होंने देश को चुना। इसका उन्हें खामियाजा भी उठाना पड़ा। इसके इलावा उपन्यास में कई प्रसंग ऐसे थे जो कई बार मेरे लिए नये थे और कई बार उन्होंने मुझे ठिठकने पर मजबूर किया।
उदाहरण के लिए जब बालीराम को पता लगता है कि उसके इलाके में पंजाबी बसने लगे हैं तो उसकी प्रतिक्रिया इतनी अच्छी नहीं होती। वो कहता है
“हे भगवान्!” अत्यंत घृणा युक्त स्वर में बालीराम बोला,”हर जगह ये पंजाबी लोग आ जुटे हैं तो किसी की बहन बेटी की लाज कैसे बचेगी?”
ये वक्तव्य मेरे लिए थोड़ा सा विस्मित कर देने वाला था क्योंकि हमारे यहाँ पंजाबियों के प्रति ऐसी धारणा नहीं है। हाँ, ये माना जाता है कि वे लोग बहुत ज्यादा बहिर्मुखी होते हैं। लेकिन इधर नानक सिंह जी ने ही ऐसा लिखा था। वो खुद पंजाबी थे तो इस ऐसा माना जा सकता है कि शायद ऐसी धारणा उस वक्त रही होगी। क्योंकि इस पर संतोख सिंह की प्रतिक्रिया दिखाकर अपने मन के भावों को शायद दर्शाया है:
उसका ये लहजा संतोख सिंह के सीने में तीर बनकर चुभा। वह क्रोध से आग बबूला हो उठा। उसकी इच्छा हुई कि ऐसे धृष्ट और कृतघ्न व्यक्ति को गर्दन से पकड़कर झोपड़े से बाहर धकेल दे। परन्तु दूसरे ही क्षण उसका क्रोध शांत हो गया। उसे अपने पंजाबी बंधुओ की चरित्रहीनता के कई कारनामों का ध्यान हो आया। जो पंजाब से बाहर जाकर अपने प्रांत को कलंकित करते थे।
…..उसके ह्रदय में एक तीव्र अभिलाषा जाग उठी-“काश! मैं पंजाबियों के माथे पर से यह कलंक का टीका मिटा सकता।”
मैं इसे पढ़ते वक्त यही सोच रहा था कि कैसे व्यक्ति चीजों के प्रति धारणा बना लेता है। ऐसे स्टीरियोटाइप आज भी हैं। लेकिन हम भूल जाते है कि हर इन्सान जुदा होता है। और गलत हरकतें करने वाला इन्सान किसी भी राज्य और प्रांत में होता तो गलत हरकतें ही करता। इस उपन्यास में मौजूद ये स्टीरियोटाइप मेरे लिए नया था। खैर, ऐतिहासिक पृष्ठभूमी में लिखे उपन्यासों की खासियत ये ही होती है कि आपको पुराने वक्त के स्टीरियोटाइप पढने को मिल जाते हैं। जैसे शायद शरत जी की चरित्रहीन में एक डायलॉग है कि हिंदीभाषी और जानवरों के खाली पूँछ का फर्क होता है। उसे पढ़कर मैं खूब हंसा था। खैर, एक सोचने वाली बात ये भी है उस वक्त नानक सिंह जी ऐसा लिख पाए थे। आज लिखते तो इसका नतीजा क्या होता। ये उपन्यास तो वैसे पंजाबियों से पढ़ा होगा। उनकी उस वक्त इसके ऊपर क्या प्रतिक्रिया रही होगी ये सोचने वाली बात थी। और मैं जानने का इच्छुक हूँ कि उस वक्त उनकी क्या प्रतिक्रिया रही होगी।
उपन्यास एक पहलू तातिया और गोपीनाथ का रिश्ता भी है। वो दोनों बिल्कुल अलग किस्म के इंसान हैं। जहाँ गोपीनाथ धीर गंभीर और पढ़ा लिखा है वहीं ततिया एक अनपढ़ और मुंहफट है। फिर भी इनकी जोड़ी बनती है और प्रेम होता है। नानक सिंह जी ने इनके रिश्ते को खूबसूरती से दर्शाया है। हाँ इक्का दुक्का बातें मुझे खटकी थी। जैसे गोपीनाथ ततिया का नाम बदल देता है। मुझे लगता है जब ततिया को अपने नाम से दिक्कत नहीं थी तो ऐसा गोपीनाथ को नहीं करना चाहिए था। भले ही गोपीनाथ को लगता है इतने उत्कृष्ट व्यक्तित्व की मालकिन के लिए ततिया नाम शोभनीय नहीं है। फिर भी मुझे ये ठीक नहीं लगा। उपन्यास में एक और प्रसंग है जो उनके बीच के अंतर को दर्शाता है। उस वक्त तो प्रसंग काफी खूबसूरत लगा था लेकिन उसने मेरी सोच को एक और दिशा में मोड़ दिया था। प्रसंग निम्न है:
“आया कुछ समझ में?” अपने भाषण की समाप्ति पर पहुँच कर शर्मा जी ने पुछा।
“ऊँहूँ!”
“हाय रे किस्मत!” वे खीजभरे स्वर में बोले,”न जाने कितना भूसा भरा है तेरे भेजे में। जब भी कोई अक्ल की बात कही कि बस एक ही जवाब है,’कुछ नहीं समझी’, ‘कुछ नहीं समझी’।”
“रूठ गए?” पति की बगल में गुदगुदी करते हुए माला ने पूछा और पति महाशय हँसते हँसते लोटपोट हो गए।
नाराजगी दूर होने में यदि कमी थी तो वह माला के एक छोटे से गीत ने पूरी कर दी।यही उसका महामन्त्र था पति का गुस्सा दूर करने का।
ऊपर दर्ज प्रसंग पति पत्नी के खूबसूरत रिश्ते को दर्शाता है / गोपीनाथ शर्मा और माला के बीच का समीकरण बेहतरीन है। लेकिन इस प्रसंग ने मुझे जहाँ गुदगुदाया वहीं ये सोचने पर भी मजबूर किया कि बौद्धिक रूप से दोनों कितने जुदा है। अभी उनकी नयी नयी शादी हुई थी तो ये फर्क गुदगुदी से और गाने से भर सकता है। लेकिन दस पंद्रह साल बाद शर्मा की ये खीज क्या बढ़ेगी नहीं। या भविष्य में उसे कोई ऐसा साथी मिलता है जो बौद्धिक रूप से माला से बेहतर है तो फिर वो किसका चुनाव करता। काफी देर तक मैं इसी के ऊपर सोचता रहा।
बाकी उपन्यास बेहतरीन है। उस वक्त की सामाजिक स्थिति को दर्शाता है। ये कितना सही दिखाया गया है इस पर मैं टिपण्णी तो नहीं कर सकता लेकिन एक पाठक के तौर पर मुझे कुछ भी बनावटी नहीं लगा। उपन्यास कहीं पे भी बोझिल नहीं होता है और पाठक की रूचि कथानक में बरकरार रहती है। हाँ, हंडिया भर खून शीर्षक किसी अपराध साहित्य से जुड़े उपन्यास का लगता है। कवर भी इसका थोड़ा पल्प जैसा है लेकिन इसके शीर्षक के औचित्य को एक डायलॉग से लेखक बखूबी साबित कर देता है। वो आपको उपन्यास पढने के दौरान पता चल ही जाएगा।
उपन्यास में कहीं कमी तो नहीं हैं। इक्का दुक्का जगह शब्दों की वर्तनी गलत है। जैसे :पृष्ठ ६१ ‘अपने भाषण की समाप्ति‘ की जगह ‘अपने भीषण की समाप्ति‘ लिखा है। ऐसे ही कुछ जगह और है लेकिन मैंने इतना नोट
नहीं किया। हाँ पृष्ठ 14 में वर्ष 1940 को वर्ष 1640 लिखा है जो कि टाइम लाइन को पूरी तरह गड़बड़ा देता है। इसने मुझे थोड़ी देर के लिए भ्रमित कर दिया था क्योंकि मुझे लगने लगा कि उपन्यास 1640 का है। लेकिन बाद में जब 1942 का जिक्र हुआ तो पता चला कि 1640 गलत से छपा है।
उपन्यास मुझे तो काफी पसंद आया। हाँ, अंत, मेरी कल्पना के अनुरूप नहीं था। इधर तो इतना ही कहूँगा कि इस अंत ने मुझे दुखी किया और इस कारण मैंने इस उपन्यास को पूरे 5 स्टार नहीं दिये। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि मुझे लगता है कि ऐसा अंत कराने की आवश्यकता नहीं थी। कहानी का असर इस अंत के बिना भी चल सकता था। खैर, ये इतनी बड़ी बात नहीं है और मैं तो सभी को नानक सिंह जी के इस उपन्यास को पढने की राय दूँगा।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो इसके विषय में जरूरी बताइयेगा। इस उपन्यास के कवर में ये नहीं लिखा है कि नानक सिंह जी के किस पंजाबी उपन्यास का ये अनुवाद है। आपको अगर जानकारी हो तो जरूर बताइयेगा।
अगर अपने उपन्यास नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से मंगवा सकते हैं :
पेपरबैक | अमेज़न
Very good review. This novel is not available on Amazon. So where is that Hindi Sahitya Centre.
you can get it from here too:
http://www.hindibook.com/index.php?p=sr&Uc=HB-12689