आशा है मेरा यह प्रयास आपको पसंद आएगा।
सभी इमेजेज कहानियाँ प्रकाशित करने वाली साइट्स से ली है। स्वदेश दीपक जी की तस्वीर गूगल से ली है। बायें से दायें: शरत चन्द्र,अमिताभ कुमार अकेला और स्वदेश दीपक |
1) अहेरी -स्वदेश दीपक
साईट : साहित्य विमर्श
पहला वाक्य:
उन्होंने वह पत्रिका बंद कर मेज पर रख दी।
वह कई कारखानों के मैनेजिंग डायरेक्टर थे। एक पत्रिका को उलट-पलट कर देख रहे थे कि किसी चीज पर उनकी नज़र टिक गई। वह एक चीता था जो जिसे देखकर उन्हें लगा जैसे वह चीता उन्हें ही बुला रहा है। उनके अन्दर के अहेरी को ललकार रहा है। उन्होंने शिकार पर जाने का मन बना लिया था। कुछ दिनों में ही फैक्ट्री के डायरेक्टर्स की मीटिंग होने वाली थी लेकिन इससे उनका मन नहीं बदलने वाला था। अब वह शिकार करके ही दम लेने वाले थे।
आगे क्या हुआ? क्या साहब शिकार कर पाये? यही कहानी का कथानक बनता है।
अहेरी एक रोचक कहानी थी। शिकार के ऊपर मैंने कुछ कहानियाँ पढ़ी हैं और वह सभी अर्नेस्ट हेमिंगवे की थी या विल्बर स्मिथ की थी। इस कहानी को भी जब मैं पढ़ रहा था तो कहीं न कहीं अर्नेस्ट हेमिंग वे की कहानियों का ख्याल मन के किसी कोने में आ रहा था। कहानी सामान्य तरीके से शुरू होती है लेकिन पढ़ते पढ़ते ही कहानी एक ऐसा मोड़ ले लेती है जिसके पश्चात पाठक कहानी को खत्म करके ही दम लेता है। शुरुवात करने पर जो मेरी मनस्थिति थी वह अंत करने पर बिलकुल ही बदल गई। मुझे लगा था मैं रोमांचित होऊँगा लेकिन अंत तक आते आते मन को इसने झकझोर सा दिया था।
कई बार हमे अहेरी होने का भान होता है लेकिन हम असल में आखेट होते हैं। इस सोच लेकर काफी कहानियाँ लिखी गई होंगी। इसमें भी कहीं यही सोच है लेकिन इसका ट्रीटमेंट इसे अलग बनाता है। मुझे कहानी बहुत पंसद आई।
कहानी का लिंक: अहेरी
मेरी रेटिंग : 5/5
2) बंगला नम्बर 14 – आशीष
प्रकाशक : जगरनौट
पहला वाक्य :
27 अप्रैल को शहर के पॉश इलाके के बंगला नम्बर 14 की छत से गिरकर 28 साल के व्यापरी संजीव गुप्ता की मृत्यु हो गई।
अट्ठाइस वर्षीय संजीव को जीवन में कोई परेशानी नहीं थी। उसका एक परिवार था। उसका व्यापार अच्छा ख़ासा फल फूल रहा था और उसकी जल्द ही अपनी प्रेमिका तान्या अरोड़ा से सगाई होने वाली थी। पर एक रात अपने घर की छत से गिरकर उसकी मृत्यु हो गई।
आखिर ऐसा क्या हुआ था उस रात? क्या संजीव ने आत्महत्या की थी? क्या यह एक दुर्घटना थी? या क्या यह हत्या थी?
यही प्रश्न इंस्पेक्टर सरवर खान के मन में आये थे। क्या इंसपेक्टर इस गुत्थी को सुलझा पाया। यह तो आपको इस कहानी को पढ़कर ही पता चलेगा।
कहानी छोटी है परंतु रोचक है।मुझे वैसे तो अंदाजा तो हो गया था कि कातिल कौन हो सकता है। अंदाजा सही भी निकला लेकिन कथानक अंत तक बाँधकर रखता है। शक की सुई एक दो जगह लेखक ने घुमाने की अच्छी कोशिश की है।
एक बार पढ़ सकते हैं।
कहानी का लिंक : बंगला नम्बर 14
मेरी रेटिंग: 2.5/5
3) कत्ल नहीं होने दूँगा – लकी निमेश
प्रकाशक : जगरनौट
पहला वाक्य:
डबल बेड पर आड़ी तिरछी अवस्था में पड़ी वह लड़की दुनिया जहान से बेखबर सोई पड़ी थी।
इंस्पेक्टर राजन आजकल परेशान है। एक सपना है जो रोज उसे आता है। सपने में वह किसी युवती का क़त्ल होते हुए देखता है। सपने तो सपने होते हैं वह यह सोचकर अब तक इस बात को नजरंदाज करता रहा था। परन्तु उसे झटका तब लगता है जब एक दिन उसे वही लड़की अपने थाने में दिखती है।
लड़की का नाम रूचि है और वह हाल फिलहाल में ही भारत लौटी है।
क्या सच में इस लड़की का कत्ल होने वाला है? आखिर सपने में मौजूद लड़की का अस्तित्व कैसे हो सकता है? यही सब प्रश्न राजन को परेशान कर रहे हैं। आखिर में होता क्या है यह तो आप कहानी पढ़कर ही जान पाएंगे।
कहानी के पीछे का विचार पंसद आया। आखिर तक यह पाठक पर पकड़ बनाने में सफल रहती है। कहानी में कई जगह वर्तनी(स्पेलिंग) की गलतियाँ थी जिन्हें लेखक को ठीक करना चाहिए। इसके अलावा कहानी में बातचीत को कोट्स में डालना चाहिए ताकि पता लगा कौन क्या बोल रहा है। मोटा मोटी बात बोलूँ तो इस कहानी का सम्पादन ठीक से नहीं किया गया। अच्छा सम्पादन होता तो असर ज्यादा होता।
मेरी रेटिंग: 2/5
4) अँधेरे से उजाले तक – रेणु गुप्ता
प्रकाशक : प्रतिलिपि
पहला वाक्य:
‘अम्मा बड़ी जोर से ठंड लग रही है, सारी गुड्डी तो तूने अपने तरफ खींच ली है, नींद नहीं आ रही है।’ भागो ने अपनी माँ से कहा था।
ठंड का मौसम था। भागो और उसकी माँ कल्लो एक पतली सी गुदड़ी में ठंड से बचने की नाकाम कोशिश कर रही थी। उन्हें सुबह काम पर भी जाना था। भागो अभी बच्ची थी लेकिन अगरबत्ती की फैक्ट्री में काम करती थी। उसका काम करना जरूरी भी था। और काम करने के लिए सोना भी जरूरी था। फिर चाहे जितनी ठंड पड़े।
आगे क्या हुआ? यह तो आपको कहानी पढ़ने पर पता चलेगा।
यह कहानी उम्मीद जगाती है कि आज भी समाज में कुछ अच्छाई है। लेकिन अगर आप देखे तो पायेंगे कि वह अच्छाई कुछ नसीब वालों तक ही पहुँच जाती है। कहानी पढ़कर मुझे यही लगा कि भागो और कम्मो जैसे न जाने कितने उसी फैक्ट्री में रहे होंगे जिनकी हालत उनके जैसे ही रही होगी लेकिन अँधेरे से उजाले तक जाने की किस्मत उन्ही की थी। पाठक के रूप में मैं एक परिवार के लिए खुश हुआ लेकिन बाकी परिवारों के विषय में भी सोचने पर मजबूर हुआ। यह सोच कहानी जगाती है तो मेरे हिसाब से अपने मकसद में कामयाब होती है।
कहानी का लिंक : अँधेरे से उजाले तक
मेरी रेटिंग: 3.5 /5
5) अतृप्त आत्माओं की रेलयात्रा – शरद जोशी
प्रकाशक: जगरनॉट
पहला वाक्य:
कम्बल ढकी पहाड़ियाँ, तीखी तेज़ हवा और लदी-लदी रेल चली जा रही थी।
एक रेल चली जा रही है। रेल में यात्री भी हैं। बस इस रेल में बैठे यात्रियों की ख़ास बात यह है कि सभी ने अभी अभी धरती पर प्राण त्यागे हैं। अब इन आत्माओं को मरने के बाद उनकी आगे की यात्रा के लिए ले जाया जा रहा है।
वे आपस में बात कर रहे हैं। एक दूसरे का हाल चाल जान रहे हैं और सफर काट रहे हैं। ज्यादातर धरती छोड़ने के कारण दुखी हैं।
ये आत्माएं कौन हैं? उन्हें क्या दुःख है?
यह सब तो आ कहानी पढ़कर ही जान पायेंगे।
उस वक्त रेल गाड़ी का चलन काफी रहा होगा। देश के एक हिस्से को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने के लिए रेल तो थे ही। रेल उधर की संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा रही होगी और शायद यही कारण है कि शरद जोशी ने जी आत्माओं को धरती से स्वर्ग की ले जाने वाले वाहन के रूप में रेल गाड़ी की कल्पना की है। इस रेल गाड़ी में पाठक कई आत्माओं से मिलता है। कुछ ही मौत प्राकृतिक हुई है, एक ने आत्महत्या की है, एक को जहर देकर मारा गया और एक को लोगों ने पीट पीट कर मार दिया। ऐसे ही कई चरित्रों से पाठक इस कहानी के दौरान मिलता है और इन्ही चरित्रों के माध्यम से लेखक ने समाज में मौजूद दोगले पन, लालच और ऐसे ही विकारों के ऊपर टिपण्णी की है। मुझे कहानी पंसद आई। हाँ, कहानी का अंत जब हुआ तो लगा कि इसे और होना चाहिए था लेकिन लेखक जो दिखाना चाहते थे वह दिखा चुके थे। आगे उन आत्माओं के साथ क्या होता इसका शायद न उन्हें पता था और न ही कहानी में इसकी कोई जरूरत थी। एक बेहतरीन कहानी। अगर पढ़ी नहीं है तो एक बार पढियेगा जरूर।
कहानी का लिंक: अतृप्त आत्माओं की रेलयात्रा
मेरी रेटिंग : 5/5
6) औरत की परिभाषा और लक्ष्मण रेखा – अमिताभ कुमार ‘अकेला’
वेबसाइट : रचनाकार
औरत की परिभाषा
दिन भर काम करने के बाद वह घर आई है। अब उसका थका शरीर आराम चाहता है। पर वह औरत है। अभी कई और जरूरतों को उसे पूरा करना है।
आखिर औरत क्या है? कभी माँ,कभी बहन, कभी पत्नी। औरत के ऐसे ही कई रूप हैं और अपने हर एक रूप में वो खुद को तोड़कर दूसरों की इच्छाओं को पूरी करती है। इसी टूटने का बड़ा मार्मिक चित्रण लेखक ने इस लघु-कथा में किया है। एक पठनीय लघु कथा।
लक्ष्मण रेखा
मंजरी आज फिर विचलित है। उसका अधेड़ पति फिर शराब पीकर आया है। उसकी भी कुछ जरूरतें है जिन्हें वह नजरंदाज करता आया है। परन्तु आज मंजरी ने फैसला किया है।
आखिर यह फैसला क्या था? यह तो आप इस लघु कथा को पढ़कर ही जान पायेंगे।
आदि काल से ही समाज ने औरत को एक पिंजरे में कैद करके रखा है। यही कारण है उसे इज्जत का ठीकरा थमा दिया गया है जिसके चलते उसे बाँध दिया गया है। वही आदमी पर ऐसी कोई रोक टोक नहीं है। यही प्रश्न सदियों से औरतों को परेशान करता आया है। वह सामाजिक बन्धनों को मानने को मजबूर होती है। लेकिन यह कब तक होगा। हर रिश्ते की कुछ जिम्मेदारियाँ होती है। अगर वह जिम्मेदारी पूरी नहीं हो पाती तो रिश्ते का महत्व नहीं रहता और उसकी लक्ष्मण रेखा लांघ दी जाती है।
हाँ, कहानी का अंत मुझे इतना पसंद नहीं आया। मुझे लगा था कि मंजरी रिश्ते को तोड़ेगी। अक्सर मेरी दिक्कत यही होती है कई औरतें को शारीरिक जरूरत की बात करती है वह भौतिक जरूरतों की उतनी ही आदि होती हैं। वह एक शादी से तलाक लेकर अपनी शारीरिक जरूरतें पूरी कर सकती हैं लेकिन अक्सर ऐसा नहीं करती हैं क्योंकि उन्हें लड्डू दोनों हाथों में चाहिए होता है। हो सकता है कुछ मजबूरी भी हों परन्तु प्रयास तो करना चाहिए। इस कहानी में मुझे उम्मीद थी वो रिश्ते को तोड़ेगी,या उस तरफ कुछ प्रयास करेगी परन्तु वह दूसरा कदम उठाती है जो मुझे ठीक नहीं लगा।
लघु कथा पठनीय है।
लघुकथाओं का लिंक : औरत की परिभाषा और लक्ष्मण रेखा
मेरी रेटिंग: औरत की परिभाषा 4/5, लक्ष्मण रेखा 3/5
आशा है आप इन कहानियों को साइट्स में जाकर पढेंगे और अपने विचारों से लेखको को अवगत करवाएंगे।
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विकास जी कुछ महीने पहले आपके इस ब्लॉग से परिचित हुआ था और आपकी किताबों पर नियमित लिखने की आदत और शैली से बहुत प्रभावित हुआ. तब से नियमित आपके ब्लॉग पर आता हूँ. और बातें तो फिर कभी कहूँगा पर फिलहाल एक भूल सुधार करना चाहता हूँ.
"अतृप्त आत्माओं की रेलयात्रा" शरदचंद्र की कहानी नहीं है, बल्कि मशहूर व्यंग्यकार शरद जोशी की व्यंग्य रचना है. जिस साईट पर आपने इसे पढ़ा है वाह विश्वसनीय नहीं मालूम होता. उन्होने गलत सूचना दी है. कृपया जानकारी को दूसरे सोर्स से भी कन्फर्म कर लिया करें.
मैंने कई साल पहले इसे पढ़ा था और शरद जोशी का वह व्यंग्य संग्रह भी मेरे पास है जिसमें यह रचना है
अरे!! ये नई जानकारी बताई आपने। मैंने तो इसे फेस वैल्यू पर ले लिया था। अब देखा तो आपका कहना सही पाया। यह शरद जी की ही रचना है। शुक्रिया। मैं इधर सुधार कर लेता हूँ और उनकी साईट पर भी इस चीज को मेंशन कर देता हूँ। सोमेश जी आपका आभार। ऐसे ही बने रहियेगा।
विकास जी, नमस्कार……। सबसे पहले तो आपका बहुत-बहुत आभार जो आपने इतनी गहराई से मेरी लघुकथा का अवलोकन किया।
जहाँ तक लघुकथा "लक्ष्मणरेखा" के अंत का प्रश्न है तो उसे लघुकथा का रूप देने हेतु इस प्रकार का दुविधापूर्ण अंत लेखक की मजबूरी थी। क्योंकि लघुकथा की प्रकृति ऐसी होती है जिसमें शब्दों के अधिक विस्तार की गुंजाइश कम रहती है। हाँ, यदि कथा लंबी होती तो शायद उस प्रकार का अंत लेखक के लिए सुलभ होता जैसा आपके लिए वाँछनीय था।
फिर भी लेखक के लिए पाठक का विचार सर्वोपरि है और आगे से इस बात का पूरा खयाल रखा जायेगा। भविष्य में इसी प्रकार आपके बहुमूल्य सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी। आशा है संवाद बना रहेगा…..।
अमिताभ कुमार "अकेला"
This comment has been removed by the author.
जी, आपने सही कहा कि लघुकथाओं की अपनी कुछ चुनौतियाँ होती है। लघु कथा पठनीय है और मुझे पसंद आई थी। हाँ, प्रश्न मन में रह गया था तो इधर लिख दिया।
आपने इस पोस्ट पर टिप्पणी की इसके लिए आभार सर। आपकी दूसरी लघु-कथाओं का इन्तजार रहेगा।
डायन
सुबह-सुबह नित्यक्रिया से निवृत्त होकर मैं बालकनी में टहल रहा था। चाय की तलब आ रही थी सो सुधा को आवाज लगाकर बेटी को आज का अखबार लाने नीचे भेज दिया। ये पेपर वाला भी नीचे दरवाजे पर ही पेपर फेंक कर चला जाता है।
थोड़ी देर बाद सात साल की बेटी अखबार के मुख पृष्ठ पर छपे समाचार को पढ़ते हुये आयी। आते ही उसने मेरे सम्मुख एक साथ कई सारे प्रश्न दाग दिये – ” पापा ये डायन क्या होती है……? देखिये न आज के अखबार में ये क्या……? और क्यों लोगों ने उसे….? ”
उसके इस प्रकार प्रश्न किये जाने पर अखबार में छपे समाचार के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी। उसके हाथ से अखबार लेकर मैंने मुखपृष्ठ पर नजरें गड़ा दी। लिखा था – ” कल शाम शहर के गाँधी चौक पर डायन के शक में उन्मादी भीड़ ने एक बृद्ध महिला को बंधक बनाये रखा। किसी ने उसके बाल काट दिये, तो किसी ने उसके वस्त्र फाड़ दिये। किसी ने उसके मुँह में कालिख भी पोत दी। फिर निर्वस्त्र अवस्था में उसे भीड़ भरे बाजार में घुमाया गया। इसी बीच बड़ी निर्ममता से उसकी पिटाई भी की गयी। हर तरह से अपमानित और प्रताड़ित करने के बाद उसे मरणासन्न अवस्था में वहीं गाँधी चौक पर लावारिस हालत में फेंक दिया गया। भीड़ में से कोई भी व्यक्ति उस लाचार की मदद को आगे नहीं आया।
पुलिस के पहुँचने से पूर्व ही उस बेबस लाचार गरीब ने तड़प-तड़प कर उसी गाँधी चौक पर दम तोड़ दिया। गाँधी बाबा की प्रतिमा भी उस लाचार की हालत पर आँसू बहाती रह गयी। “
पूरी खबर पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लगा – मानो शरीर शक्तिविहीन-सा हो गया हो। सुधा कब आकर चाय रखकर चली गयी ज्ञात ही नहीं हो सका। बेटी अब भी मुझे झकझोरते हुये अपना प्रश्न दुहरा रही थी – ” बताओ न पापा – डायन क्या होती है…..? ” – मैं निरुत्तर एकटक छत को घूरे जा रहा था……
अमिताभ कुमार "अकेला"