आवारा भीड़ के खतरे – हरिशंकर परसाई

किताब दिसम्बर 22 2018 से मार्च 15 2019 के बीच पढ़ी गई

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 156
प्रकाशक: राजकमल पेपरबैक
आईएसबीएन: 9788126708635

आवारा भीड़ के खतरे - हरिशंकर परसाई
आवारा भीड़ के खतरे – हरिशंकर परसाई 


‘आवारा भीड़ के खतरे’
में हरिशंकर परसाई जी के 28 लेखों को संकलित किया गया है। ये लेख 1988 से 1994 के बीच में लिखे गये थे। पुस्तक में मौजूद लेख निम्न हैं:

आवरा भीड़ के खतरे
पहला वाक्य:
एक अन्तरंग गोष्टी-सी हो रही थी युवा असंतोष पर।

युवा असंतोष के ऊपर यह लेख परसाई जी ने जून 1991 में लिखा था। लेख की शुरुआत एक युवक की हरकत से होती है जिसमे वो कपड़े में शोरूम में रखे एक पुतले पर पत्थर केवल इसलिए मार देता है क्योंकि वो अत्यधिक सुंदर लग रही थी। ऐसे विचार युवक के मन में क्यों आये? आखिर आजकल के युवक इतने आक्रोशित क्यों रहते हैं और क्यों वो पहली की पीढ़ी से ज्यादा अवसाद में हैं? इन्ही सब प्रश्नों के ऊपर परसाई जी लिखते हैं। अलग अलग देशों में अलग अलग आर्थिक वर्गों के युवकों के बीच में पनपने वाले असंतोष और उसके कारणों के विषय में परसाई जी इस लेख में लिखते हैं।

लेख भले ही बीस साल पहले लिखा गया था लेकिन आज भी बहुत ज्यादा प्रासंगिक है।

लेख की आखिरी में परसाई जी कहते हैं वो हमे हमेशा याद रखने की जरूरत है। वो कहते हैं:

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका उपयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है 

सिद्धांतों की व्यर्थता 
पहला वाक्य:
अब वे धमकी देने लगे हैं कि हम सिद्धान्त और कार्यक्रम की राजनीति करेंगे।

सितम्बर 1988 में लिखा गया यह लेख भारतीय राजनीति में सिद्धांतों की व्यर्थता के ऊपर बात करता है। किस तरह से नेता लोग बातें तो बड़ी बड़ी करते हैं लेकिन काम करने के वक्त उनकी बातें खोखली ही साबित होती हैं। ऐसे में जनता भी अब उनके इरादे भांप चुकी है।

चूँकि यह लेख 1988 का है तो उस समय के विभिन्न राजनीतिक समीकरणों और मुख्य सिद्धांतों जैसे गांधीवाद और समाजवाद और इन सिद्धांतों के प्रति विभिन्न पार्टियों और उनके नेताओं के भावों का भी जिक्र इस लेख में होता है। किस तरह केवल नाम के लिए पार्टी सिद्धांतों को उठा लेते हैं और फिर ऐसी दुशाला के तरह इन सिद्धांतों को ओढ़कर चलते हैं जिससे वो विशिष्ट तो दिखते हैं लेकिन इसके अलावा सिद्धांत का उनके ज़िन्दगी में कोई मोल नहीं होता है।

आज की राजनीति में भी ज्यादा कुछ बदला नहीं है। यही हाल आज भी है और इस कारण लेख प्रासंगिक है।

इसी लेख से :
हम लोगों को सिद्धांतों के बारे में पिछले चालीस सालों में सुनते सुनते एलर्जी हो गई कि हमें उसमें दाल में काला नजर आता है। जब कोई नया मुख्यमंत्री कहता है कि मैं स्वच्छ प्रशासन दूँगा तब हमें घबराहट होती है। भगवान, अब क्या होगा? ये तो स्वच्छ प्रशासन देने पर तुले हैं! स्वच्छ प्रशासन के मारे हम लोगों की किस्मत में कब तक स्वच्छ प्रशासन लिखा रहेगा?


हमारे देश में सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना है। कई सदियों से हमारे देश के आदमी की प्रवृत्ति बनाई गई है अपने को आदर्शवादी घोषित करने की, त्यागी घोषित करने की। पैसा जोड़ना त्याग की घोषणा के साथ ही शुरू होता है।


हरिजन, मन्दिर और धर्म 
पहला वाक्य:
समाज का कसमसाना प्रगति का लक्षण है।

यह लेख अक्टूबर 1988 में लिखा गया था। स्वामी अग्निवेश ने नाथद्वारा मन्दिर में कछ दलितों के साथ प्रवेश किया था और इसी खबर को लेकर यह लेख लिखा गया है। इसमें बताया जा रहा है कि मंदिर में प्रवेश करने से भी ज्यादा जरूरी मुद्दे हैं जिन्हें दलित चिंतकों को उठाना चाहिए। अक्सर ऐसी गतिविधियाँ सिंबॉलिक (प्रतीकात्मक) होती हैं और इनसे जिन लोगों के लिए यह किया जा रहा है उनके जीवन में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। यह इसलिए भी है क्योंकि उन लोगों के जीवन में इससे जरूरी मुद्दे हैं।

उदाहरण के लिए कुछ दिनों पहले एक मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के लिए एक आंदोलन चला था। उस वक्त मैं यही सोच रहा था कि क्या यह जरूरी मुद्दा है? इससे भी अधिक जरूरी मुद्दे हैं जिनके प्रति आंदोलन किया जा सकता है।

यही चीज परसाई जी कहते हैं कि सामाजिक चिंतकों को ऐसा मुद्दा चुनना चाहिए जिससे जिनके लिए आंदोलन हो रहा है उनके जीवन में कोई व्यापक असर हो। इधर ऐसा नहीं है कि इन मान्यताओं में बदलाव नहीं होना चाहिए, लेकिन जिस तामझाम के साथ इन्हें किया जाता है और बदलाव के बाद हम यह सोचते हैं कि चलो हमने किला फ़तेह कर दिया, ऐसी कोई बात इसमें होती नहीं है। शोषित वर्ग शोषित ही रहता है क्योंकि मंदिर न जाने दिया जाना ही उसका शोषण नहीं है। कई जगहें ऐसी हैं जहाँ शोषण चलता रहता है।

लेख के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
समाज का कसमसाना प्रगति का लक्षण है, परिवर्तन का लक्षण है। जो समाज कसमसाता नहीं है, वह जड़ रह जाता है। इस कसमसाहट के कारण इक्का-दुक्का घटनाएं होती हैं। ये प्रतीक हैं- व्यापक परिवर्तन और विकास की इच्छा की। ये घटनाएँ अच्छी भी होती हैं और दुखदायी भी।

पूजा स्थल भव्य इमारतें हैं, धर्म नहीं हैं। सच्चा धर्म भावना और आचरण में होता है। जिसे सर्वव्यापी माना जाता है, वह मंदिर या मस्जिद में कैद नहीं है। गरीबों के झोंपड़ीनुमा मंदिर में भी भगवान है और विशाल भव्य मंदिर में भी। जितनी विशाल धर्म की जरूरत होगी, उतना बड़ा झगड़ा होगा।


मार्क्स ने कहा है – धर्म आत्महीन जगत में आत्मा की पुकार है। धर्म सुख का भ्रम पैदा करता है जबकि मनुष्य वास्तविक सुख चाहता है, जो सामाजिक परिवर्तन से आता है।

समाजवाद और धर्म 
पहला वाक्य:
एक सज्जन ने एक पत्रिका का फोटो दिखाया।

परसाई जी ने यह लेख 1990 जून में लिखा था। लेख में हरिशंकर परसाई जी बताते हैं कि कैसे रूस जैसे समाजवादी देश में कृष्ण भक्तो की जनसंख्या बढ़ रही है और यह बात कैसे उनके एक मित्र को अटपटी लगती है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? क्यों रूस में धार्मिक लोग और धार्मिक गतिविधियाँ बढ़ रही हैं? इसी सवाल का जवाब परसाई जी देने की कोशिश इस लेख में करते हैं।

 धर्म कैसे समाजवाद के नजदीक है और कैसे अलग अलग धर्म को मानने वाले और समाजवादी भी रहे हैं इस बात पर भी परसाई जी उदाहरण के साथ लिखते हैं। संग्रह में इससे पहले एक लेख हरिजन, मन्दिर, अग्निवेश है जिसमें भी रूस में बढ़ते कृष्णभक्तों की बात की गई है। वह लेख वैसे तो  अक्टूबर 1988 में छपा था लेकिन चूँकि संग्रह में ठीक पहले है तो आपको एक ही विचार के दोहराव का अहसास होता है।

लेख के जो अंश मुझे पसंद आये वो निम्न हैं:

धर्म जड़ दृष्टि देता है, भाग्यवादी और अकर्मण्य बनाता है। धर्म मूल अच्छे तत्व छोड़कर कर्मकाण्ड का रूप ले लेता है। जनता को शोषण के लिए तैयार करता है। शोषक के हाथ में धर्म हथियार है।

किसी अलौकिक परम सत्ता के अस्तित्व और उसमें आस्था मनुष्य के मन में गहरे धँसी होती है। यह सही है। इस परम सत्ता को, मनुष्य अपनी आखिरी अदालत मानता है। इस परम सत्ता में मनुष्य दया और मंगल की अपेक्षा करता है। फिर इस सत्ता के रूप बनते हैं, प्रार्थनाएँ बनती हैं। आराधना-विधि बनती है। पुरोहित वर्ग प्रकट होता है।कर्मकाण्ड बनते हैं। सम्प्रदाय बनते हैं। आपस में शत्रु भाव पैदा होता है, झगड़े होते हैं। दंगे होते हैं।


वनमानुष नहीं हँसता 
पहला वाक्य:
दो महीने पहले मेरा एक लेख हास्य और व्यंग्य पर छपा था।




यह लेख फ़रवरी 1991 में लिखा गया था। लेख की शुरुआत में परसाई जी कहते हैं कि उनके हास्य और व्यंग्य के ऊपर छपे हुए लेख को पढ़कर कई लोगों को लगता है कि उन्हें हँसी से दिक्कत है लेकिन ऐसा नहीं है। इस बात को आगे बढ़ाते हुए परसाई जी हँसी और उसके प्रकार के ऊपर बात करते हैं। वो इस पर भी बात करते हैं हास्य जीवन की हर परिस्थिति में मौजूद होता है। विनोदी व्यक्ति के लिए जीवन के किसी भी मौके से हास्य निकालना कोई बड़ी बात नहीं होती है।

लेख का शीर्षक पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के निबन्ध से आया है जिसमें वो कहते हैं कि जब वो चिड़ियाघर गये तो उन्होंने काफी देर वनमानुष को देखा लेकिन वो हँसा नहीं। यहाँ उनके कहने का अर्थ यह है कि जो मनुष्य हँसता नहीं है वो वनमानुष के समान है। परसाई जी इसमें ये जोड़ते हैं कि केवल हँसना ही मनुष्य को मनुष्य नहीं बनाता। कई मनुष्यों की हँसी लकड़ब्ग्घे की तरह होती है जो कि क्रूर होती है।
ये कैसे होता है ये तो आप लेख पढकर ही जानेंगे।

मूल बात ये है हँसना जरूर अच्छा है लेकिन किसी कमजोर की कमजोरी पर हँसना सबसे बुरी बात है। इस बात को परसाई जी लेख में यूँ कहते हैं:

मनुष्य को हँसना चाहिए। पर निमर्ल,स्वस्थ हँसी हँसना चाहिए। जो नहीं हँसता, वह वनमानुष है। पर मनुष्य लकड़ब्ग्घे की हँसी हँसें, तो उसे गोली मार देनी चाहिए।

बात ज्यादा तल्ख है लेकिन सत्य है। एक पठनीय और विचारणीय लेख। आप कौन सी हँसी हँसते हैं? निर्मल या लकड़ब्ग्घे की?


तेरे वादे पे जिए हम, ये तू जान भूल जाना 
पहला वाक्य:
मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर है:


इस लेख का शीर्षक मिर्ज़ा गालिब के शेर से ली गई है। शेर कुछ यूँ है:


तेरे वादे पे जिए हम ये तू जान भूल जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता 

लेख में पहले यह बताया गया कि कैसे अब इतने साल बाद भारतीय जनमानस हताश हो गया है। उसे पता है कि चाहे कोई भी पार्टी आएगी वह वादे तो करेगी लेकिन उनके पूरे होने की सम्भावना बहुत कम है।

आगे जाकर लेख में यह भी बताया गया है कि कैसे सांसदों की गुणवत्ता में वक्त के साथ कमी आई है। कैसे उनके व्यवहार बदले हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष कैसे केवल विरोध करना ही अपना दायित्व समझते हैं। भले ही दोनों में से कोई एक सही बात कर रहा हो, देश हित की बात कर रहा हो लेकिन दूसरा उसका विरोध ही करेगा। इस सबके बाद नेता लोग भारतीय जनमानस से अपनी कमियाँ छुपाने के लिए कई तकनीकी शब्द इस्तेमाल कर देते हैं जिसका अर्थ ज्यादातर लोगों को नही पता होता। कुल मिलाकर बात ये है नेता सत्ता वाला हो या विपक्ष वाला उसके हमेशा मजे ही रहते हैं, पिसता आम गरीब आदमी है।

यह लेख भले ही सितम्बर 1991 में लिखा गया हो लेकिन अभी  भी यह प्रासंगिक है। अभी भी सत्ता पक्ष ऐसा डाटा लोगों के सामने रखता है जिसका आम आदमी को पता नहीं होता लेकिन वह यह मान लेता है कि सत्ता में आने के बाद उन्होंने काफी कुछ किया है। उदाहरण के लिए जीडीपी ही देख लीजिये। बड़ी हुई जी डी पी को दिखाकर देश के विकास से जोड़ा जाता है लेकिन क्या बड़ी हुई जी डी पी इसका सही मापदंड है। शायद नहीं, लेकिन आम जन इसे देख फूला नहीं समाता है।


लेख के कुछ अंश जो पसंद आये:
आम  भारतीय जो गरीबी में, गरीबी की रेखा पर, गरीबी की रेखा के नीचे हैं, वह इसलिए जी रहा है कि उसे विभिन्न रंगों की सरकारों के वादों पर भरोसा नहीं है। भरोसा हो जाये तो वह खुशी से मर जाये। यह आदमी अविश्वास, निराशा और साथ ही जिजीविषा खाकर जीता है।


अगर वादे पूरे होने लगे तो लोग खुशी से मर जायेंगे। इसलिए मानवतावादी सरकारें, शासकीय कर्मी और नेता लोगों की जान बचाने के लिए यह क्रूरकर्म नहीं करते। मगर यह भारतीय भौंचक मनुष्य वादे सुनता है। घोषणाएँ सुनता है। नारे सुनता है। और उल्टा होते देखता है, भोगता है।




महात्मा गांधी से कौन डरता है?
पहला वाक्य:
गांधी ने कोई नहीं डरता है और सब डरते हैं



महात्मा गांधी जितने देश के लोगों के लिए श्रद्धा के पात्र रहे हैं वहीं एक वर्ग के लिए वो नफरत के पात्र रहे हैं। यह चीज अभी ही नहीं वरन हमेशा से रही है। ये कौन लोग हैं जो महात्मा गांधी से नफरत करते हैं? उनके मरने के बाद भी उनसे डरते हैं। इसी चीज के ऊपर परसाई जी का यह लेख है।

लेख में गांधी जी की बात करते करते टोलोस्टॉय की बात भी आती है। गांधी जी उन्हें अपना गुरु मानते थे और दोनों के विचारों में क्या समानता और क्या भिन्नता थी यह भी लेख में पढ़ने को मिलता है। इसके अलावा आज़ादी के वक्त पर गांधी जी की भूमिका, विभाजन में उनका हाथ जैसे बिन्दुओं पर भी बात की गई है।

लेख प्रासंगिक है क्योंकि आज भी ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं हुई है। कुछ दिनों पहले महात्मा गांधी के पुतले को गोली मारकर ऐसे लोगों ने उनकी ह्त्या के दिन की खुशियाँ मनाई थी। एक बेहद प्रासंगिक और संग्रह के जरूरी लेखो में से एक लेख।


 लेख की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे पसंद आईं :
 हमारे देश की दो मजबूरियाँ हो गई थीं – महात्मा गांधी और नेहरु द्वारा प्रचारित समाजवाद।


 मगर जैसे मैंने कहा, कुछ लोगों की मजबूरी है- गांधीजी का विरोध करना। ये कौन  लोग हैं? वे लोग, जो मनुष्य की बराबरी में विश्वास नहीं करते? नस्ल, जाति, रंग, वर्ण, धर्म के कारण अपने को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हैं। दूसरे समूहों से घृणा करते हैं। इनका जीवन मूल्य प्रेम नहीं, घृणा होता है। ये हिंसा से अपने उद्देश्य की पूर्ती करना चाहते हैं।इन लोगों के लिए जरूरी है गांधीजी को बार बार मारना। मगर ये डरते हैं लोगों से, क्योंकि आम आदमी घृणा और हिंसा के विरोधी होते हैं।


वास्तव में डर है, उन सिद्धांतों, मूल्यों, मानवीयता, नैतिकताओं से जो गांधी देश को दे गए। ये अभी भी प्रबल हैं। जनमानस में बैठे हैं। इन्हें मिटाना उद्देश्य है। इन्हें मिटाए बिना संकीर्ण राष्ट्रीयता, अमानवीय व्यवस्था, अपसंस्कृति लाई नहीं जा सकती और लोकतंत्र की भावना को मिटाया नहीं जा सकता।


क्या तिरुपति में  नेहरु ने  राजसिंहासन त्यागा 
पहला वाक्य:
एक अच्छी अंग्रेजी पत्रिका में कांग्रेस के तिरुपति अधिवेशन पर अच्छे लेख पढ़े



इस लेख की शुरुआत किसी पत्रिका की हैडलाइन से होती है कि क्या नेहरु ने तिरुपति में सिंहासन त्याग दिया है। यानी क्या अब कांग्रेस में नेहरूवादी सोच का अंत हो चुका है?

इसके पश्चात परसाई जी यह बताते हैं कि किस तरह राजीव गांधी के बाद ऐसा दिखने लगा है कि नेहरुवादी नीतियों के प्रति कांग्रेस में झुकाव कम होगा। और कैसे कुछ लोग चाहते हैं कि अगर उस परिवार के कुछ सदस्य इधर मौजूद हों तो यह नीतियों में प्रति जो कम झुकाव की प्रवृति आई है इसे सुधारा जा सकता है।

इसके बाद पूरे लेख में परसाई जी ने नेहरु और उनकी नीतियों की बात की है। आज के वक्त में जब एक पार्टी देश की सभी परेशानियों के लिए नेहरु को जिम्मेदार करार देकर अपना पल्ला झाडना चाहती है। और इससे यह दर्शा रही है जैसे कि नेहरू किसी काम के नहीं थे ऐसे में यह लेख नेहरु की अलग तस्वीर प्रस्तुत करता है। आपको क्या मानना है यह तो आपके व्यक्तिगत विचारों पर निर्भर करेगा लेकिन इतना तो तय होता है कि आदमी में कमियाँ और खूबियाँ दोनों ही होती हैं।

एक और अच्छा लेख जो न केवल उस वक्त की राजनीति दर्शाता है बल्कि आज के वक्त में भी काफी प्रासंगिक है।



उद्घाटन शिलान्यास रोग 
पहला वाक्य:
मैं एक कॉलेज के वार्षिक उत्सव का उद्घाटन करने गया।


परसाई जी कहते हैं कि उन्हें अब उद्घाटन के लिए अक्सर बुलाया जाता है। वो अक्सर पैसे लेकर ये काम करने पहुँच जाते हैं परन्तु उन्हें हैरत होती है कि इस काम के लिए अब नेताओं को क्यों नहीं बुलाया जा रहा है। वो यह प्रश्न बुलाने वालों से करते हैं तो उन्हें इसके जवाब भी मिलते हैं। वो जवाब क्या हैं यह तो आप इस लेख को पढकर ही जानियेगा तो बेहतर होगा।

इस लेख के  माध्यम से वो लेख में यह दर्शाया जा रहा है कि कैसे नेता अपना नाम चमकाने के भूखे होते हैं। कैसे कई चीजें तैयार होती है लेकिन आम जनता को उसका उपयोग नहीं करने दिया जाता है क्योंकि नेताजी ने उद्घाटन नहीं किया तो उन्हें बुरा न लगे। भले ही यह लेख जुलाई 1991 का है लेकिन आज भी नेताओं की हालत में सुधार नही हुआ है। यह उद्घाटन करने और अपने नाम चमकाने का रोग उन्हें लगा ही हुआ है।

कुछ दिनों पहले ही एक बड़ी राष्ट्रवादी पार्टी के सांसद ने उसी पार्टी के विधायक को जूतों से मारा था। और उसके पीछे कारण यह था कि विधायक साहब ने सांसद का नाम शिलालेख में नहीं लिखवाया था। तो यह चीज तो अभी भी चल रही है।



लेख के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
अब त्याग की राजनीति खत्म हो चुकी थी, प्राप्ति की राजनीति आ चुकी थी। जो त्याग की राजनीति में दुबले थे, वे प्राप्ति की राजनीति में मोटे हो गए। स्थूल हो गए। तोंद निकल आई। गर्दन मोटी हो गई। अब यह उलझन आ गई कि मोटी गर्दन में महँगी मालाएँ डालें या तोंद का नगाड़ा मुफ्त बजा लें। 


पहले कहते थे- भैयाजी पधार रहे हैं।  बढ़िया मालाएँ ले जाना।  सुन्दर स्वागत- द्वार सजाना। लड़कियों से स्वागत गान गवाना। फिर कहने लगे- अरे वो हरामखोर आ रहा है, जिसने अकाल-राहत के पैसे खा लिए। हज़ारों बच्चो को भूखा मार डाला। तबादलों में भी लाखों खाए। हजारों बच्चों को भूखा मार डाला। तबादलों में भी लाखों खाए।  उसके लिए कुछ माला-वाला ले आना खस्ती-सी। कुछ आदमी खड़े हो जाना हाथ जोड़कर  ‘आइये ‘ कहने के लिए। कुछ दिखावा तो करना पड़ेगा, उस दुष्ट के लिए


उद्घाटन एक शुभ-अनुष्ठान की जगह अशुभ रोग हो गया। अशुभ रोग इस कारण कहा कि ऐसा होने लगा है उद्घाटन के बाद पुल में दरार पैदा होने और गरीब कॉलोनी के उद्घाटन के बाद मकान गिरने की घटनाएँ होने लगी हैं


जमाना खराब चल रहा है। सरकारी इमारतों की एक बुरी आदत पड़ गई है। उसमें फीता काटने के बाद गिर जाने की प्रवृत्ति आ गई है। मेरी मंत्रियों को सलाह है कि वे फीता काटकर भीतर कतई नहीं जाएँ। फीता काटकर फौरन कार में बैठकर रेस्ट हाउस जाकर जान बचाएँ। 






विधयाकों की बिक्री 
पहला वाक्य:
एक सज्जन बड़े दुःख से कह रहे थे – सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के देश में विधायक बिकने लगे।

यह लेख परसाई जी ने अप्रैल 1994 में लिखा। उन दिनों विधायको की बिक्री की बात मशहूर रही होगी जिसके ऐवज में ये लेख लिखा गया था। इस लेख में परसाई व्यंगात्मक रूप से ये दिखा रहे हैं कि विधायक का इलेक्शन लड़ने के लोगों के पास क्या क्या कारण होते हैं। विधायकी पाकर उन लोगो का सबसे महत्वपूर्ण काम कैसे खुद के कार्य करना होता है,उसे लेकर एक काला मुर्गा वाला प्रसंग बताया है। यही नहीं कैसे अपने स्वार्थ के लिए कानून होते हुए भी दल बदल का कार्यक्रम चलाया जाता है इस पर भी बात परसाई जी करते हैं। लेख पढ़ते हुए लगता है कि जैसे बस किरदार बदले हैं लोगों के हाल वही हैं। राजनेता बदले हैं, लेकिन फितरत वही है।

वैसे यह लेख लिखा तो दस पंद्रह साल पहले गया था लेकिन विधायकों की बिक्री आज भी जारी है। कुछ दिनों पहले ही कई विधायकों को एक होटल में इसी कारण ठहराया गया था। उत्तरखण्ड के भूतपूर्व मुख्यमंत्री भी इस खरीद फरोख्त को करते हुए पकड़े गए थे। तो लेख आज भी उतना ही प्रासंगिक है। चुनाव अब पहले से ज्यादा महंगे हो चुके हैं तो खर्चा पूरा करने का काम विधायक लोग आते ही कर देते हैं।  अब तो प्रचार के माध्यम भी अलग अलग हो चुके हैं। एक महत्वपूर्ण लेख जो शायद भारतीय राजनीति में हमेशा प्रासंगिक रहेगा।

ये क्या नमरूद की खुदाई थी 
पहला वाक्य:
शीर्षक पढ़कर कुछ पाठक चकित होंगे।


यह लेख जून 1994 को पहली बार छापा  गया था। लेख का शीर्षक ग़ालिब के एक शेर से आता है जो कि कुछ इस तरह है:


ये क्या नमरूद की खुदाई थी 
बन्दगी में भी मेरा भला न हुआ 


लेख की शुरुआत में लेखक होली के त्यौहार की बात करते हुए कहते हैं कि कैसे इस बार होली में कोई हुड़दंग नहीं हुआ और फिर वो इसके कारण के ऊपर बात करते हैं। इसके बाद लेख में परसाई जी कहते हैं कि किस तरह दुनिया भर में कृषि के त्यौहार मनाये जाते रहे हैं और फिर उनके साथ धर्म के प्रचार के लिए कुछ कथाएँ, मिथक इत्यादि जोड़ दिये जाते हैं। लेख में लेख नमरूद की कहानी, इब्राहिम की कहानी और हिरण्यकश्यप की कहानी की चर्चा भी करते हैं। वहीं नास्तिकों के ईश्वर में न विश्वास करने और उनका अस्तिको से टकराव के विषय में भी लेखक लिखते हैं। अंत तक आते आते वह इस पर बात करने लगते हैं कि कैसे बड़े चिंतकों ने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारा है और कईयों ने खुद को खुदा माना है। यह काम मूर्खो ने भी किया है। लेकिन दोनों के रवैयों में बहुत फर्क रहा है।

एक पठनीय लेख है। लेकिन इधर से उधर काफी जाता है।  कई बार पढ़ते पढ़ते सोच रहा था कि इस दिशा में यह बढ़ रहा है।  पहले लगा त्यौहार के नाम पर जो फूहड़पन होता है उस पर कोई टिप्पणी होगी, वो होती भी है, वर्ग के हिसाब से त्यौहार कैसे बने हैं इस पर लिखा भी है, लेकिन फिर त्योहारों की शुरुआत और उनके पीछे के मिथक से होते हुए ईश्वर के अस्तित्व तक बात पहुँच जाती है। इस कारण लेख दिशाहीन लग सकता है।


लेख के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
व्यवस्था के मंथन से रत्न निकलते हैं, ये हर क्षेत्र में चमकते हैं, और यही उत्सव की, समारोह की, या राजनीतिक हलचल की जान होते हैं। ये रत्न किशोरावस्था से 30-35 साल तक के होते हैं। उत्सव को रंग ये ही देते हैं। यही उत्सव को प्राण देते हैं। ये ही त्यौहार को डरावना बना देते हैं। हर मोहल्ले में ये अलग दिखते हैं।


दुनिया भर में कृषि के त्यौहार मनाये जाते हैं। फिर इनके साथ कथाएँ, मिथ आदि लग गये। ये अक्सर किसी खास धर्म के प्रचार में अटल आता के प्रचार के लिए कभी प्राचीन काल में गढ़ लिए गये।


सृष्टि के आरम्भ में लोग भय और अज्ञान के कारण सुख देनेवाली प्राकृतिक शक्ति को देवता या देवी मान लेते थे और स्तुति करते थे। दुःख देने वाली शक्तियों को इसी प्रकार अनिष्टकारी देव मानकर उनकी निंदा करते थे। फिर चिन्तन में ईश्वर का एक स्वरूप निर्धारित किया पर इसमें बहुत लोग विश्वास नहीं करते थे- इन नहीं मानने वालों में कुछ परम विद्वान् चिंतक होते थे। कुछ अहंकारी, मूर्ख।



दर्द लेकर जाईये 
पहला वाक्य:
सम्मेलन सब अच्छे होते हैं।

मई 1989 में छपा यह लेख एक कांग्रेस के अधिवेशन और उसमें राजीव गांधी के वक्तव्य से अपना शीर्षक लेता है।  उस अधिवेशन में राजीव गांधी ने अपने भाषण में कहा कि आप लोग यहाँ से दर्द लेकर  जाईये।  इसी चीज पर व्यंग्य करते हुए हरिशंकर परसाई जी ने यह लेख लिखा है।  वो लेख में बताते हैं कि कांग्रेसी नेताओं के दिल में दर्द तो होगा और दर्द तो लेकर जायेंगे लेकिन वह दर्द उन गरीबों का नहीं अपितु खुद का होगा। यह सोच केवल कांग्रेसी नेताओं की नहीं अपितु सबकी ही है।  सब केवल सार्वजनिक तौर पर गरीबों का दर्द महसूस करते दिखते हैं लेकिन उसे दूर करने की किसी को कोई इच्छा नहीं होती है।  इसके बाद लेख में अधिवेशन में लिए फैसलों पर बात होती है।  गरीबों को चीजें देने की बात होती है और फिर लेखक यह बताते हैं कि कैसे नौकरशाही के चलते कोई भी अच्छी योजना ढंग से किर्यान्वित नहीं हो पाती है।
इसी नौकरशाही के चरित्र को दर्शाने के लिए लेख एक रूसी कहानी और एक यूगोस्लावियक कहानी का भी जिक्र करते हैं।
लेख प्रासंगिक है क्योंकि आज भी नेताओं के जबान पर गरीबी और उसके उत्थान का ही नाम है और न जाने कब तक यह रहेगा।


लेख के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये :
इस देश में ‘समाजवाद’ तो होमियोपैथी की शक्कर की गोली है।  इससे न फायदा, न नुकसान। 


हर प्रदेश में कांग्रेस दो जातियों में बंटी है – संतुष्ट और असंतुष्ट। ये जातियाँ ब्राह्मण, कायस्थ, ठाकुर, अग्रवाल आदि भेद मिटा देती हैं, जैसे वर्ग-भेद होता तब जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र के भेद मिट जाते हैं और दो वर्ग रह जाते हैं, आमने-समाने। हर राजनीतिक दल में संतुष्ट और असंतुष्ट होते हैं।  जातियाँ बदलती रहती हैं। जो आज संतुष्ट जाति का है, वह कल असंतुष्ट जाति में कन्वर्ट हो सकता है और असंतुष्ट संतुष्ट की जनेऊ धारण कर सकता है।  जो न संतुष्ट है, न असंतुष्ट, वह पागल है। 


नौकरशाही पर अच्छे काम छोड़े तो वे नहीं होंगे।  साम्राज्यवादियों ने एक हृदयहीन अमानवीय नौकरशाही का ढाँचा बनाया और हमें दे गए।  स्वाधीनता के बाद लगातार यह  भ्रष्ट होती गई और उसका अधिक से अधिक अमानवीयकरण होता गया। यह क्रूर और लोभी भ्रष्ट नौकरशाही शोषक गुटों, वर्गों से मिली है। यह कोई कल्याणकारी काम नहीं होने देगी।

प्रवचन और कथा 

पहला वाक्य:
पिछले तीन चार सालों में प्रवचन और उपदेशों की लड़ी लगी है।

यह लेख 1993 का है। इस लेख में परसाई जी कहते हैं कि उन्होने देखा है पिछले कुछ वर्षों में प्रवचनों और उपदेशों की झड़ी सी लग गई है। इसके बाद वो पहले किस तरह की कथाएँ कही जाती थी और उस वक्त कथावाचकों का क्या उद्देश्य होता था इस पर वो बात करते हैं। लेख के अंत तक आते आते वो जब लेख लिखा गया था उस वक्त के कथावाचकों के कथा कहने में क्या फर्क आया है यह बताते हैं। परसाई जी कहते है कि कैसे अब धर्म और राजनीति का कॉकटेल तैयार किया जा रहा है जो कि सम्प्रदायिकता का द्वेष समाज में घोल रहा है। ऐसा नहीं है कि सभी यह करते हैं लेकिन जो कुछ करते हैं वो भी समाज के लिए घातक है।

एक प्रासंगिक लेख क्योकि आज भी धर्म के लबादे में ओढ़ाकर राजनीति बेची जा रही है। हर धर्म यही कर रहा है और इसमें आम आदमी पिसता है।

लेख के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
ये माया-विरोधी कहते हैं- मूर्खो, इस नाशवान देह की सेवा करते हो। स्वादिष्ट भोजन कराते हो। अरे एक दिन यह नष्ट हो जाएगी। इसे कीड़े-मकोड़े खायेंगे। मैंने देखा, स्वामी जी रबड़ी का गिलास गटक गये। इसलिए कि कीड़े मकौडों को आगे उनकी देह खाने में मज़ा आये।


पिछले कुछ सालों में प्रवचनों के विषय और शैली और उद्देश्य बदले हैं। कुछ प्रवचनकारों के, सबके नहीं। बाकी तो वही कथा, अध्यात्म, दृष्टांत, पुराण के प्रवचन करते हैं। पर जब से राजनीतिक उद्देश्य के लिए धर्म का उपयोग शुरू हुआ, प्रवचनकर्ता धर्म के बहाने राजनीति बोलते हैं। राजनीतिज्ञ हैं नहीं तो कच्ची राजनीति बोलते हैं। साम्प्रदायिक द्वेष की राजनीति बोलते हैं। ये अक्सर, ओछा, कुरुचिपूर्ण और भद्दा बोलते हैं। अशिष्ट बोलते हैं।

स्वस्थ सामजिक हलचल और अराजकता 
पहला वाक्य
कभी कभी समाज में विशेष हलचल होती है।

परसाई जी ने इस लेख में बताया कि समाज में हलचल होना जरूरी है। जब समाज में हलचल होती है तो पता लगता है कि समाज पुरानी कुरीति से बाहर आकर कुछ अच्छा कर रहा है। ऐसी अगर हलचल होती है तो उसका स्वागत होना चाहिए। परन्तु हमेशा ही ऐसा नहीं होता।  कई बार जब धर्म और राजनीति का मिश्रण होता है तो वो भी एक तरह की हलचल पैदा करती है जो समाज को तोड़ती है और विध्वंस फैलाती है। ऐसे हलचलों को उन्होंने उदाहरण से समझाया है। इन्हें पहचान कर इनसे न जुड़ना ही एक समझदार व्यक्ति की निशानी है।

आज के वक्त में भी यह लेख बहुत ज्यादा प्रासंगिक है।

 लेख के कुछ अंश :
 कभी कभी समाज में विशेष हलचल होती है। खंडन मंडन होते हैं। अशान्ति भी होती है। उपद्रव भी होते हैं। ये इस तथ्य का संकेत हैं कि यह एक जीवित समाज है। इसमें परिवर्तन की कशमकश चल रही है। बेचैनी है। पुराने मूल्य अगत मूल्यों से टकरा रहे हैं। अच्छे परिवर्तन होंगे, नये मूल्य आयेंगे, नई जीवन-पद्धति आएगी- वरना लगातार शांत रहने वाला समाज, जिसमें कोई बैचैनी और हलचल नहीं, मृत समाज होता है। जड़ समाज होता है। इस नज़रिए से हलचल अशान्ति को स्वस्थ माना जाता है।

कौन हलचल,बेचैनी यथास्थिति को तोड़नेवाली  और कल्याणकारी है, यह पहचानना होता है। बेचैनी, हलचल, उन्माद कोई स्वार्थी सत्ता के इच्छुक या पागल भी इतने पैदा कर सकते हैं कि पूरी जाति एक पागल के पीछे चलकर दुनिया का और अपना खुद का नाश करती है।

दुनिया की हलचलों में इस समय धर्म के नाम पर सबसे अत्यधिक संगठित हलचल है। कई सशस्त्र उन्मादी संगठन बन गये हैं, जो छापामारी करते हैं। राजनीतिक शक्ति इन्हें दो तरीके से पकड़ती है और इनका इस्तेमाल करती है। दूसरे धर्म की प्रतिद्वंदिता में संगठन बनता है और तरकीब से राजनितिक शक्ति उन्हें पकड़ लेती है; या राजनीतिक शक्ति पहल करके धर्म के नाम पर ऐसे संगठन बनाती है और उनका उपयोग करती है। सेकड़ों संगठन इस प्रकार के होंगे जो दुनिया भर में खून खराबा करते हैं। किसी राजनीति के आदेश पर या उनके खुद के संकीर्ण उद्देश्य होते हैं।


भारतीय गणतंत्र – आशंकाएँ और आशाएँ

पहला वाक्य:
अभी जब मैं इस आलेख को लिखने बैठा हूँ, संसद की कार्यवाही चलने नहीं दी जा रही है।


जैसा कि नाम से जाहिर है इस लेख में परसाई जी गणतन्त्र के ऊपर विचार कर रहे हैं। बात की शुरुआत वो संसद के कार्य करने के तरीके से करते हैं और फिर उन बिन्दुओं को रेखांकित करते चले जाते हैं जो कि भारतीय गणतंत्र के लिए ख़तरा हैं। राज्यों के बीच का आपसी टकराव हो, साँसदो का निराशाजनक रवैया हो, जीवन मूल्यों का पतन हो या साम्प्रदायिक राजनीति का उदय हो। परसाई जी सभी बिन्दुओं पर बात रखते हैं। आज के वक्त में भी यह लेख उतना ही प्रासंगिक है जितना कि मार्च 1993 को था जबकि यह लिखा गया था।

लेख के कुछ महत्वपूर्ण अंश जो मुझे पसंद आये:


समाज में दो शक्तियाँ होती हैं- जय-जयकार की और धिक्कार की। जय-जयकार अच्छे कार्यों को प्रोत्साहन देता है। धिक्कार व्यक्ति और समूह के दुराचार को रोकता है। पर अब जय-जयकार गलत आदमी करवा लेते हैं। धिक्कार की शक्ति समाज ने खो दी है। नतीजा है- जहाँ देखिये बेखटके अनैतिकता, घूसखोरी, चोरी और गैरजिम्मेदारी, अमानवीयता फैली है। इसे धिक्कारने वाला कोई नहीं है। हम अपने गिरेबान में नहीं झांकते हैं। दूसरों को देखते हैं।


आज देश की हवा में जहर है। यह आकस्मिक और कुछ समय का आवेश-उन्माद नहीं है। यह ठंडे दिमागों से बनाई गई एक योजना है, जिसका उद्देश्य साम्प्रदायिक नफरत, टकराव और विभाजन के द्वारा देश की सत्ता पर कब्ज़ा करना है। इस राजनीति ने कितने दंगे कराए, कितनी जाने लीं, कितनी सम्पत्ति नष्ट की! आदमी आदमी से अजनबी हो गया। कई सालों के मित्र अलग-अलग हो गये। सामाजिक सम्बन्ध बिखर गये।मैं सत्य कहता हूँ कि तीस-तीस सालों के मेरे मित्रों से जिनसे मैं खुलकर बात करता था, अब हिचक से सावधानी से बात करता हूँ। इस राजनीति ने काफी हद तक समाज को बाँट दिया है।



टेलीविज़न का निजी यथार्थ होता है
पहला वाक्य:
टेलीविज़न से लोगों को बहुत शिकायतें हैं।

यह लेख टीवी में दर्शाए जाने वाले धारावाहिकों पर एक तगड़ा कटाक्ष है। इस लेख में टीवी में  किस तरह से  जटिल समस्याओं का आतार्किक साधारिकरण किया जाता है उस पर टिप्पणी की गई है।


पहले के धारवाहिक तो फिर भी यथार्थ की समस्याओं को लेकर लिखे गये थे। यह लेख पढ़ते हुए मैं ये सोच रहा
था कि अगर आज के धारावहिक परसाई जी देखते तो उसके ऊपर क्या लिखते।अब तो स्थिति पहले से भी काफी बुरी है।




आचार्य नरेन्द्र देव और समाजवादी आन्दोलन 
पहला वाक्य:
16 दिसम्बर, आचार्य नरेन्द्र देव का जन्मदिन है।

फरवरी 1989 में यह लेख लिखा गया था। इससे पहले दिसम्बर में आचार्य नरेन्द्र देव की शतवार्षिकी मनाई गई थी।  इसी समारोह को केंद्र में रखकर यह लेख लिखा है।

आचार्य नरेन्द्र देव कौन थे इसका मुझे अंदाजा नहीं था। लोहिया, जय प्रकाश नारायण का मैंने नाम तो सुना है लेकिन नरेन्द्र देव जी का नाम नहीं सुना था। यह इनसे पहले के नेता थे और समाजवादी थे। लेख आचार्य नरेंद्र देव के विषय में तो बतलाता ही है लेकिन समाजवादी राजनीति में उस वक्त के नेताओं के आपसी समीकरण के विषय में भी बतलाता है। इस वजह से  भी लेख मुझे रोचक लगा।





अन्य भाषाओं में व्यंग्य
पहला वाक्य:
व्यंग्य और विनोद लेखक माना जाता हूँ।


जैसे की शीर्षक से ही जाहिर होता है इस लेख परसाई जी अन्य व्यंग्य लेखकों के विषय में बात कर रहे हैं।  ज्यादातर लेखक अंग्रेजी भाषा के हैं,रूसी भाषा और चेक भाषा के लेखको का भी नाम है। जब मैंने इस लेख का शीर्षक पढ़ा था तो मुझे लगा था कि अन्य भारतीय भाषाओ  के व्यंग्य लेखकों के विषय में मुझे और जानकारी मिलेगी लेकिन अन्य भारतीय भाषा के केवल एक ही लेखक का उल्लेख इसमें है। वो बंगाली लेखक हैं और वो भी विनोद लेखक हैं व्यंग नहीं। जिन भारतीय भाषा के व्यंग लेखों का जिक्र है उनका नाम परसाई जी को याद नहीं था। बस लेख के नाम याद थे कवि कुन्दन लाल की मेघदूत और वदन चौधरी की शोक सभा। अगर आपको इनके लेखकों का नाम याद हो तो जरूर बताइयेगा। अगर अन्य भारतीय भाषाओँ के व्यंग्य लेखकों के नाम पता हो तो जरूर बताइयेगा।

इस लेख में निम्न लेखकों के नाम हैं। कुछ को मैंने पढ़ा है, जिनको नहीं पढ़ा है उनको पढ़ने की कोशिश मैं करूँगा।

ए जी गार्डनर,मैक्स बरिबोम,जॉर्ज बर्नार्ड शॉ,मार्क ट्वेन, स्टेफिन लीकॉक ,दोस्तवोस्की

मार्क ट्वेन और बर्नार्ड शॉ को तो मैंने पढ़ा है, बाकियों को पढ़ने की कोशिश करूँगा।



मेरी प्रिय कहानियाँ 
पहला वाक्य:
दुनिया की तमाम भाषाओं में लिखित असंख्य कहानियों में से श्रेष्ठ कहानी निकालकर बता ऐना दुस्साहस ही नहीं, मूर्खता है।

इस लेख में परसाई जी अपनी प्रिय कहानियों के विषय में बात कर रहे हैं। वो ऐसी कहानियों की बात कर रहे हैं जिसे पढने से मन सोचने को मजबूर हो जाये। मन को कुछ खटका हो जाये। लेख में प्रेमचंद,एन्टन चेखव, मैक्सिम गोर्की, ओ हेनरी की कहानियों का जिक्र है।

चेखव की दो कहानियाँ
पहला वाक्य:
महान कहानीकार चेखव की कहानियाँ बार बार गूँजती हैं।

‘चेखव की दो कहानियाँ’ में नाम के अनुरूप ही परसाई जी ने चेखव की दो कहनियो का जिक्र किया है। चेखव एक उम्दा कहानीकार थे। उनकी कहानियों के पात्र आज भी यदा कदा देखने को मिल जाते हैं। उनके  पात्रों के दुःख उनके जीवन की स्थिति के साथ पाठक जुड़ाव महसूस कर पाता है।
लेख में नौकरशाही की तस्वीर दिखाती कहानी क्लर्क और एक दूसरी कहानी द लॉजर के विषय में लेखक ने लिखा है। पहली कहानी तो मैंने पढ़ी है लेकिन द लॉजर पढ़ने की इच्छा है।
जल्द ही पढूँगा।

डिकन्स के दिलचस्प पात्र
पहला वाक्य:
चार्ल्स डिकन्स ने कुछ ऐसे दिलचस्प पात्रों का निर्माण किया है कि वे मानस में स्थायी स्थान बना लेते हैं।

जैसा की शीर्षक से ही जाहिर है, परसाई जी इसमें चार्ल्स डिकन्स द्वारा रचित विभिन्न प्रसिद्ध पात्रों की बात करते हैं। डिकन्स की बात करते करते वो एक रूसी कवि युवेतेशंको और एक रूसी कहानी की बात करने लगते हैं। यह रूसी कहानी स्टॅलिन के वक्त की नौकरशाही का चित्रण करती है। डिकन्स से रूसी लेखकों पर आना थोड़ा अजीब लगता है। डिकन्स के दो ही उपन्यासों के विषय में बात की जाती है जबकि उनके कई और पात्रों के विषय में बात हो सकती थी।

दोस्तोवस्की मुक्तिबोध के प्रसंग में
पहला वाक्य:
एक लम्बे साक्षात्कार के दौरान मुझसे पूछा गया – रूसी लेखक दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध – दोनों त्रासद स्थितियों से गुजरे, दोनों ने बहुत कष्ट भोगे, हमेशा असुरक्षित रहे।

लेख में परसाई जी कहते हैं कि कई बार उनसे पूछा जाता है कि उनका लेखन  दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध की तरह क्यों नहीं है। क्यों उन्होंने अपने दुःख को हँसी या व्यंग्य में उड़ा दिया। इस बात की चर्चा करते हुए परसाई जी कहते हैं कि दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध के लेखन में फर्क है और इस फर्क को वो इस लेख में बताने की कोशिश करते हैं।

हाँ, लेख पढ़ते हुए मुझे लगा कि उन्होंने दोस्तोवस्की के विषय में तो ज्यादा लिखा है लेकिन मुक्तिबोध के विषय में उतना नहीं लिखा। लेख में वो टोलोसटॉय के विषय में भी वो लिखते हैं लेकिन क्यों मुक्तिबोध और दोस्तोवस्की का लेखन एक जैसा नहीं है इस बात पर केवल इतना कहते हैं कि जहाँ दोस्तोवस्की आशा खो चुका है वहीं मुक्तिबोध ने कभी आशा नहीं खोई थी। मुक्ति बोध मनुष्य के कर्म और संघर्ष में विशवास रखते थे। शायद मुक्ति बोध भारतीय हैं और उस वक्त सभी उनसे परिचित रहे होंगे तो केवल एक कविता के जिक्र करने के अलावा उन्होंने मुक्तिबोध के विषय में ज्यादा नहीं लिखा है। वहीं दोस्तोवोस्की के कई रचनाओं का जिक्र वो लेख में करते हैं।

साहित्य में प्रसिद्ध कुछ नारियाँ
पहला वाक्य:
मेरी टाड ने अब्राहम लिंकन की लम्बी टाँगे देखी।


‘साहित्य में प्रसिद्ध कुछ नारियाँ’ शीर्षक मैंने जब पढ़ा था तो मन में यह ख्याल आया था कि हो न हो इसमें रचनाकारों द्वारा बनाये गये महिला चरित्रों के बात होगी। परन्तु ऐसा पूर्णतः नहीं है। लेख में अब्राहम लिंकन की पत्नी मैरी टॉड, केनेडी की पत्नी जैकलिन, मेरी एंटाईनेट, एनी बेसेंट, विनी मंडेला के विषय में लिखा गया है। उनके जीवन, उनके संघर्षों, उनकी गलतियों के विषय में लिखा गया है। लेख के अंत में शरतचन्द्र जी के
उपन्यास चरित्रहीन में मौजूद किरदार पार्वती का जिक्र भी परसाई जी करते हैं।

हाँ, मेरे हिसाब से लेख का शीर्षक इतिहास में प्रसिद्ध कुछ नारियाँ होता तो शायद ज्यादा फिट बैठता।

एतिहासिक किरदारों के बीच पार्वती का होना अटपटा लगता है। अगर वो नहीं भी होती तो शायद ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।



टॉमस हार्डी और प्रेमचन्द 
पहला वाक्य:
जब अंग्रेजों की हुकूमत थी, तब कुछ अंग्रेजीदाँ लोगों में हीनता की भावना थी और अंग्रेज लेखकों जैसा अपने देश का कोई  लेखक ढूँढते थे।

यह लेख टॉमस हार्डी और प्रेमचंद की तुलना कर यह दर्शाता है कि कैसे प्रेम चंद का लेखन टॉमस हार्डी से भिन्न है। और इस तरह यह कहना कि प्रेमचन्द भारत के टॉमस हार्डी हैं एक गलत वक्तव्य है। दोनों ने ही ग्रामीण पात्रों के विषय में लिखा है लेकिन प्रेमचंद के विषय में परसाई जी कहते हैं कि वो एक व्यापक दृष्टि के क्रांतिकारी लेखक हैं।

इसके अलावा एक बात मैंने और नोट की है। वैसे तो ये लेख टॉमस हार्डी और प्रेमचंद के ऊपर है लेकिन इसमें परसाई जी एक रूसी कहानी पाथ होल्स (गड्ढे) का जिक्र करते हैं।  मुझे ये लगता है कि परसाई जी इस कहानी से बहुत प्रभावित हुए थे क्योंकि इस संग्रह में मौजूद कई लेखों में इस कहानी के विषय में लिखा गया है। इस कहानी के माध्यम से क्रूर नौकरशाही को दर्शाया गया है। इधर इंग्लैंड में मौजूद क्रूर नौकरशाही दर्शाने के लिए वो फिर इस कहानी का सन्दर्भ देते हैं। यह दोहराव भले ही प्रासंगिक हो लेकिन अटपटा लगता है।

अमेरिका के कुछ राष्ट्रपति (एक)  
पहला वाक्य:
बिल क्लिंटन राष्ट्रपति हुए।

1993 में लिखा ये लेख बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति बनने की बात से शुरू होता है और अमरीका के ज्यादातर राष्ट्रपतियों की चर्चा करता है। उनके जीवन के कई पहलुओं, उनकी कमजोरी और ताकतों को दर्शाता है। बीच में गांधी जी का जिक्र और अखिर में विंस्टन चर्चिल का जिक्र भी आता है।

लेख का अंत महत्वपूर्ण है।

परसाई जी लिखते हैं।

दूसरे महायुद्ध के बाद से अमेरिकी राष्ट्रपतियों की विदेश नीति डर से बनती रही- विष साम्यवाद के डर से। सोवियत संघ के टूटने के बाद भी यह डर का भूत उतरा नहीं है। चीन है, वियतनाम है, क्यूबा है। अगर चीन और भारत के सम्बन्ध अच्छे हो गये तो अमेरिका साम्यवाद के डर से फिर काँपेगा और ऊलजलूल करेगा।

यह वक्तव्य सोचने वाला है। क्लिंटन की कहानी में मेरी टॉड का जिक्र है। वह साहित्य में प्रसिद्ध कुछ  नारियाँ लेख में किया है तो दोहराव लगता है। गांधी जी वाला हिस्सा भी पहले किसी लेख में पढ़ा था तो वो भी दोहराव का एहसास करवाता है। यह इसलिए भी है क्योंकि लेखों के बीच में अंतराल रहता है। लेकिन संग्रह में चूँकि आप एक के बाद एक पढ़ते जाते हो तो यह दोहराव आसानी से दिखता है। यहाँ पर मेरे हिसाब से सम्पादन की जरूरत थी।

लेख के कुछ अंश जो पसंद आये:


दूसरे महायुद्ध के बाद हमारे देश के वाइसराय भी एक जनरल लार्ड वेवल बनाए गये थे। अधिकतर जनरल युद्ध का संचालन अच्छा करते हैं, पर कूटनीति,राजनीतिक ज्ञान में कमजोर होते हैं। लार्ड वेवल गांधीजी से बात करते हुए बहुत घबराता था। उसके सचित ने अपनी डायरी में लिखा है कि गांधीजी के मिलने आने की सूचना पर लार्ड वेवेल पत्ते की तरह काँपने लगता था। वह गांधीजी के तर्कों से परेशान हो जाता था। एक बार काफी देर बातचीत के बाद वेवेल ने स्वीकार किया – मिस्टर गांधी, मैं सिपाही हूँ, वकील नहीं। गांधीजी ने कहा- मैं दोनों हूँ। वकील भी और सिपाही भी। वेवेल ने कहा- आप क्या चाहते हैं, पाँच वाक्यों में लिख दीजिये। गांधीजी ने पाँच वाक्य लिख दिये। वेवेल ने पढ़े और बोला-ठीक है। अब मैं समझ गया। आधी रात में उसने सचिव को बुलाया और कहा- यह अधनंगा फकीर गांधी मुझे बुद्धू बना गया। ये पाँच वाक्य ठीक मालूम होते हैं, पर हर वाक्य दूसरे को काटता है।

हमारे यहाँ कई मंत्री शपथ लेते ही हृदय की बाईपास सर्जरी के लिए विदेश चले जाते हैं। उनकी यही उपलब्धि होती है।


दक्षिण अफ्रीका में प्रकाश
पहला वाक्य:
दक्षिण अफ्रीका में लम्बे संघर्ष के बाद आखिर रंगभेद और अलगाववाद खत्म हुए।


 यह लेख जुलाई 1994 में लिखा गया है। यह वो वक्त था जब दक्षिण अफ्रीका में आखिरकार रंग भेद की समाप्ति हुई थी। इस लेख में नेल्सन मंडेला की सरकार का जिक्र तो है ही,साथ में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की निति,दक्षिण अफ्रीका में मौजूद भारतीयों के हाल, महात्मा गांधी के उधर के अनुभव, नेल्सन मंडेला और उनकी बीवी के आपसी सम्बन्ध और ऐसे ही दक्षिण अफ्रीका से जुड़ी कई बातों का जिक्र होता है। लेख छोटा है तो बातें सरसरी तौर पर कही गयीं हैं। नेल्सन मंडेला और उनकी पत्नी वाला प्रसंग हटाया जा सकता था क्योंकि वो पहले भी एक लेख में आ चुका है।


धर्म विज्ञान और सामाजिक परिवर्तन 
पहला वाक्य:
अपनी दुनिया और सम्पूर्ण सृष्टि की व्याख्या और समझ सबसे पहले धर्म ने दी, विज्ञान ने नहीं।

परसाई जी इस लेख में धर्म और विज्ञान के ऊपर चर्चा करते हैं। किस तरह कभी धर्म और विज्ञान एक दूसरे से अलग थे? कैसे धर्म को विज्ञान को पहले नकारा और फिर स्वीकारा। धर्म और विज्ञान में मूलतः क्या समानताएं और क्या असमानताएँ हैं?

लेख से ही हमे पता चलता है कि धर्म और विज्ञान मूलतः एक तरह के औजार हैं और आखिर यह बुराई करेंगे या अच्छाई यह इसके इस्तेमाल करने वाले पर ही निर्भर करता है।

लेख के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:

सत्य की खोज धर्म और विज्ञान दोनों का लक्ष्य है। बहुत से साधक चिंतक सत्य को ही ईश्वर मानते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि सत्य यदि ईश्वर है तो हम उसी की खोज कर रहे हैं।


इतिहास बताता है कि हर धर्म के लोग विशेषकर धर्माचार्य यह भ्रम पालते रहे हैं कि ज्ञान उन्ही के पास है। सत्य केवल उन्हीं ने पा लिया है। दूसरे धर्मावलम्बी अज्ञानी हैं और धर्म से दूर हैं। यह दुराग्रह अंधकार और संकीर्णता देता है। और यही अहंकार और संकीर्णता धर्मावलम्बियों को अज्ञान की तरफ ले जाता है और वे सत्य से दूर हो जाते हैं।


विज्ञान ने बहुत से भय भी दूर कर दिये हैं, हालाँकि नये भय भी पैदा कर दिये हैं।   विज्ञान तटस्थ (न्यूट्रल) होता है। उसके सवालों का, चुनौतियों का जवाब देना होगा। मगर विज्ञान का उपयोग जो करते हैं, उनमें वह गुण होना चाहिए, जिसे धर्म देता है। वह गुण है – ‘अध्यात्म’ – अन्ततः मानवतावाद, वरना विज्ञान विनाशकारी भी हो जाता है।




सन्नाटा बोलता है
पहला वाक्य:
एक बन्धु परेशान आए थे।

सन्नाटा बोलता है साहित्यिक लोगों की आत्ममुग्धता पर एक करारा व्यंग्य है। साहित्यिक जगत में मौजूद गुटबाजी और लोगों का अहम् कि वो हैं तो सब कुछ हैं और वो नहीं तो कुछ भी नहीं पर यह लेख करारा प्रहार करता है।

लेख के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:

परेशानी साहित्य की कसरत है। जब देखते हैं, ढीले हो रहे हैं, परेशानी के दंड पेल लेते हैं। माँसपेशियाँ कस जाती हैं।


साहित्य में जब सन्नाटा आता है, तब कुत्ते भौंककर उसे दूर करते हैं; या साहित्य की बस्ती में कोई अजनबी घुसता है तब भी कुत्ते भौकते हैं। साहित्य में दो तरह के लोग होते हैं- रचना करने वाले और भौंकने वाले। साहित्य के लिए दोनों जरूरी हैं।


किसी शहर के साहित्य में अगर सन्नाटा आ जाए तो किसी लेखक की टाँग तोड़ दी जाए। उसकी चीख से सन्नाटा मिट जायेगा। हिन्दी का इतिहास है कि जब-जब किसी लेखक की या गुट की टाँग टूटी है,सन्नाटा मिटा है।


अपना सन्नाटा हम शहर से जोड़ देते हैं। इस मुगालते में जीना कितना सुखद है कि शहर मेरे भीतर है। मैं जब कॉफ़ी हाउस में किसी की कविता को घटिया कहता हूँ तो तब मेरी जेब में पड़ा शहर सुनता रहता है। शहर बोलना चाहता है पर मैं उसे चुप कर देता हूँ। सन्नाटा है न!  शहर से कुल मतलब लेखक का यह है कि वह उसमें किराए के कमान में रहता है। अनुभव भी किराए से मिलते हैं। मुझे भी यह बड़ा सुखद अहसास होता है कि जो मेरे भीतर हो रहा है, सिर्फ वही शहर में हो रहा है। मुझे शहर को देखने की जरूरत नहीं है। शहर के बारे में मेरे अंदाज हमेशा सही रहे हैं।

तो यह थे इस संग्रह में मौजूद लेख। इसमें कोई दोराय नहीं है कि पुस्तक में मौजूद लेख पठनीय हैं। परंतु यह पुस्तक पूरी तरह से व्यंग्य संग्रह नहीं है। ऐसा नहीं है कि इसमें व्यंग्य नहीं है।  व्यंग्य इसमें जरूर मौजूद हैं लेकिन ज्यादातर लेखों में परसाई जी ने उनके समय की राजनीतिक गतिविधियों, साहित्य, टेलीविज़न इत्यादी के ऊपर टिपण्णी की है।

लेख कालानुक्रमिक तरह से पुस्तक में मौजूद नहीं हैं। कई लेख जो पहले लिखे गये थे वो पुस्तक में बाद में आ जाते हैं और जो बाद में लिखे गये थे वो पहले आ जाते हैं। क्योंकि यह अलग अलग लेखों, जो काफी अंतराल में लिखे गये थे, से बनी पुस्तक है तो इसमें दोहराव दिखता है। जब लेख छपे रहे होंगे तो उस वक्त यह इतना महसूस नहीं होता था क्योंकि इनके छपने के बीच में काफी अंतराल था लेकिन चूँकि लेख एक ही संग्रह में है तो यह दोहराव आसानी से महसूस होता  है। इसे सम्पादन की कमी कह सकते हैं कि उन्हें ऐसे लेखों को चुनने से बचना चाहिए था या इनसे दोहराव वाले विषय वस्तु को हटवा देना चाहिए था। ्इस दोहराव से यह संकलन कमजोर जरूर लग सकता है। अगर ऐसे लेखों को हटाकर इसके पृष्ठ थोड़ा और कम कर दिये जाते तो बेहतर रहता।

अंत में यही कहूँगा कि दोहराव के बावजूद भी इस संग्रह में काफी ऐसे लेख हैं (आवारा भीड़ के खतरे, वनमानुष नहीं है,समाजवाद और धर्म, सिद्धांतों की व्यर्थता, महात्मा गांधी से कौन डरता है? सन्नाटा बोलता है इत्यादि ) जिसके लिए इस संग्रह को एक बार जरूर पढ़ा जा सकता है। हाँ, अगर व्यंग्य संग्रह सोचकर आप इसे पढेंगे तो शायद आपको इससे निराशा हो सकती है क्योंकि इसमें व्यंग्य आपको कम ही मिलेंगे।

रेटिंग : 3/5

अगर आपने इस संग्रह को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे टिप्पणियों के माध्यम से आप अवगत करवा सकते हैं। अगर आपने इस पुस्तक को नहीं पढ़ा है और पढ़ना चाहते हैं तो इसे  निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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9 Comments on “आवारा भीड़ के खतरे – हरिशंकर परसाई”

  1. परसाई जी की रचनाओं अद्भुत मारक क्षमता होती है। उनके व्यंग्य, कहानी, निबंध आदि बहुत अच्छे हैं।
    आपकी अच्छी समीक्षा के लिए धन्यवाद।
    http://www.sahityadesh.blogspot.in

    1. जी सही कहा। उनके लेख अभी भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने के उस वक्त थे जब लिखे गये थे।

  2. परसाई जी के बारे मे……, ऐसी समीक्षा और लेख मेरे लिए संग्रहणीय है । वे मेरे पसन्दीदा लेखकों में से एक हैं । आभार ।

    1. जी हार्दिक आभार। परसाई जी मेरे भी पसंदीदा लेखकों में से एक हैं। उनको पढ़ना हमेशा कुछ न कुछ सिखाता रहा है।

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