लेखक परिचय:
नोट: वैसे तो लेखक परिचय मैं अक्सर खुद लिखता हूँ लेकिन इस बार लेखक ने स्वयं इतना अच्छा परिचय लिखकर भेजा है कि उसे मैंने जस का तस लगाया है।
रमाकांत मिश्र जी |
उत्तराखण्ड का देहरादून शहर मेरी जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों है । जाहिर है कि स्वभाव से पहाड़ी हूँ। किन्तु पूर्वज पूर्वांचल के थे तो पूर्व की सरसता और भावुकता दोनों ही स्वभाव में रची बसी है । किस्से तो पूज्य अम्मा ने दूध के साथ ही पिला दिए थे। विद्वान पिता की पढ़ने में रुचि ने इसे और धार दी। लेकिन एक संयोग मुझे साहित्य से दूर विज्ञान की ओर ले गया और सारी शिक्षा विज्ञान की हुई। फिर जब कमाने का अवसर आया तो विज्ञान ही से आजीविका का साधन बना। पेशे से कीट वैज्ञानिक हूँ किन्तु मन से साहित्य प्रेमी हूँ । सौभाग्य से धर्मपत्नी भी साहित्य रसिक हैं सो नून तेल लकड़ी से जो भी समय शेष बचता है, साथ होने पर साहित्य चर्चा में अथवा साहित्य वाचन में व्यतीत होता है।
आप चाहें तो मेरे ब्लॉग पर जाकर कुछ रचनाएँ पढ़ सकते हैं-साहित्य
विशेष रुचि अपराध साहित्य में रही है तो एक ब्लॉग जासूसी संसार भी चलाने के प्रयास में रहता हूँ ।
जनप्रिय लेखक श्री ओम प्रकाश शर्मा जी के लेखन से बहुत कुछ सीखा है सो एक साधारण प्रशंसक के रूप में कृतज्ञता ज्ञापन स्वरूप उनकी एक वेबसाइट की कल्पना की जो कि उनके सुपुत्र श्री वीरेन्द्र शर्मा जी के स्नेह और आशीर्वाद से तथा जनप्रिय लेखन के एक बड़े प्रशंसक डॉ ज्योतिर्मय दुबे के निस्वार्थ सहयोग के बूते संचालित हो रही है। आशीर्वाद इन दोनों बड़े भाईयों का और तकनीकी सहायता मेरे पुत्र श्री हनुमेंद्र मिश्र की, किन्तु यश मुझे मिलता है। चाहें तो कभी वहाँ भ्रमण करें- जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा
यह पूर्णत: निशुल्क है और ऐसी ही रहे यही अभिलाषा है।
तो ईश्वर पर आस्था रखने वाला सनातन धर्म का अनुयायी हूँ इसलिए मानवता में विश्वास रखता हूँ ।
ईश कृपा से सदा सभी से स्नेह और सम्मान मिला इसलिए सभी के समक्ष कृतज्ञतापूर्वक नतमस्तक हूँ ।
रमाकांत जी ने अब तक दो पुस्तकें लिखी हैं। अगर आपने अब तक उन्हें नहीं पढ़ा है तो आप उन्हें निम्न लिंक पर जाकर खरीद सकते हैं।
सिंह मर्डर केस
महासमर
‘एक बुक जर्नल’ की साक्षात्कार श्रृंखला की यह तीसरी कड़ी है। रमाकांत मिश्र जी एक मृदु भाषी व्यक्तिव के स्वामी हैं जिनसे मिलने का मुझे सौभाग्य मिल चुका है। सूरज पॉकेट बुक्स द्वारा आयोजित एक इवेंट में मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई थी और उस वक्त काफी बातें हुई थी। उस वक्त महासमर का कार्य प्रगति पर था। उस मुलाकात के दौरान उनके साथ लेखन और उनकी रचना प्रक्रिया के ऊपर बात हुई थी। उसके बाद भी हम लोग एक दो बार मिल चुके हैं। जब भी उनसे मुलाक़ात होती है उनसे कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता रहता है।
इसी कारण जब ब्लॉग पर मैंने साक्षात्कार श्रृंखला की शुरुआत की तो उनका साक्षात्कार लेना लाजमी था। उम्मीद है यह साक्षात्कार आपको भी उतना ही पसंद आएगा जितना कि मुझे आया। आपको भी उतना ही कुछ सीखने को मिलेगा जितना मुझे मिला।
प्रश्न: सर, कुछ अपने विषय में बताइये। आप कहाँ से हैं? आपके परिवार में कौन कौन हैं?आप कहाँ कार्यरत हैं?
उत्तर: मैं देहरादून का हूँ। यही जन्म हुआ, शिक्षा हुई और यहीं नौकरी की। अपने पिता की छत्रछाया में उन्हीं के घर में रहता हूँ। भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद्, देहरादून में काम करता हूँ। परिवार के सूत्र उ.प्र. के बलरामपुर (पूर्व गोण्डा) से जुड़ते हैं। वहाँ से भी उतना ही लगाव ही जितना देहरादून से।
प्रश्न: सर साहित्य से आपका जुड़ाव कब और कैसे हुआ? ऐसी कोई बात है,जिसने आपको साहित्य की तरफ खींचा? कौन से लेखकों को पढ़कर आप लिखने को प्रेरित हुए?
उत्तर: साहित्य की ओर रूझान बचपन से रहा है। मेरे पिता पुस्तकों के शौकीन थे। घर में धर्मयुग नियमित आता था। फिर मेरे नाना जी भी पुस्तकों के शौकीन थे। मेरी स्वर्गीय माँ को रामायण, महाभारत, कथा सरित्सागर की कथायें और लोककथायें हस्तामलक थीं। मैं तो उन्हें लोककथाओ का ब्रहमाण्ड कोश मानता हूँ। असंख्य लोककथायें और अनके असंख्य संस्करण। मैंने उनके श्रीमुख से जो कथायें सुनी, वे भूल न सका। वही मेरी अक्षुण्ण प्ररेणा हैं। उन जैसा किस्सागो बनना चाहता हूँ।
तो उन्होने जो बीजारोपण किया, साहित्य की वह भूख दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये शायद 1972 या 1973 की बात होगी जब पहला थ्रिलर पढ़ा- श्री वेदप्रकाश शर्मा जी का ’प्रलयंकारी विकास’। उस बाल मन के लिये वह अद्भुत उपन्यास था। फिर जो सफर शुरू हुआ तो रूका नहीं। प्रेमचन्द सुलभ थे, सरल भी थे तो पहले उनको घोटा फिर दूसरे साहित्यकारों को। इनके साथ ही साथ अपराध कथायें भी पढ़ता रहा। किसी एक लेखक ने अगर प्रभावित किया तो वे जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा थे। उनके उपन्यासों में देश की महक थी।
प्रश्न: सर, लेखन में आपकी रूचि कब विकसित हुई। आपने कौन सी उम्र में लिखना शुरू किया? आपकी पहली रचना के विषय में बताएं जो प्रकाशित हुई थी? उस वक्त प्रकाशन की स्थिति कैसी थी? अब कैसी है?
उत्तर: लिखने में भी प्रेरणा तो बाबू देवकीनंदन खत्री से मिली। उनके लेखन में जो प्रवाह है वह मुझे किसी अन्य लेखक में आज तक न मिला। साहित्य में मुझे पं. अमृतलाल नागर, श्री अमरकान्त, डॉ. शिव प्रसाद सिह, डॉ नरेंद्र कोहली अधिक सुहाये। श्रीयुत श्रीलाल शुक्ल की अनुपम कृति ’राग दरबारी’ मेरे लिये प्रतिमान है। लेखन का एक शब्द भी व्यर्थ न हो ऐसा इस उपन्यास में ही मुझे मिला।
अंग्रेजी में मैने बहुत कम पढ़ा है, अपराध कथायें ही अधिक पढ़ी हैं। इसमें मुझे सिडनी शेल्डन, आर्थर हैली, गार्डनर, कीगो हीगाशीनो अच्छे लगे। भारतीय लेखकों में उदय सत्पथी, विवेक राव, सिडिन वाडीकुट आदि अच्छे लगे।
लिखने की तो कह नहीं सकते किंतु हाँ, मेरी पहली कविता 1976-77 में स्कूल की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी- ’टिप गये टिप गये, स्कूल से टिप गये’। ये कविता तत्काल हिट हो गई और बच्चे-बच्चे की जुबान पर आ गई। फिर एक बाल कहानी ’नंदन’ में 1983 में प्रकाशित हुई। ’लक्ष्मण लेखा’ कहानी मुक्ता में 1986 या 87 में प्रकाशित हुई।
इसी प्रकार 1990-91 में एक कहानी ’निज भाषा’ सरिता में छपी। इस कहानी की भी एक कहानी है। जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा जी का एक उपन्यास है – अपना अपना प्यार। यह उपन्यास मुझे अत्यंत प्रिय है। जब पहली बार पढ़ा था तब से आज तक उतना ही प्रिय। हुआ ये कि ये किताब गुम हो गई। बहुत कोशिश की किंतु इसकी कोई प्रति न पा सका। इसकी कहानी पढ़ने की ऐसा व्यग्रता हुई कि उस जैसी एक कहानी लिख डाली। यही कहानी – ’निज भाषा’ है।
फिर तो बहुत सी कहानियाँ लिखी और प्रकाशित हुई। अब तो मुझे स्वयं स्मरण नहीं कि कितनी कहानियाँ लिखी और वे कहाँ-कहाँ से प्रकाशित हुईं। कुछ कहानियां जो मुझे उपलब्ध हो सकीं मेरे ब्लॉग पर उपलब्ध हैं।
इसके अतिरिक्त कीट विज्ञान पर मेरे 50 के लगभग शोध पत्र भी है जो विभिन्न देशी-विदेशी जर्नलों में प्रकाशित हुये हैं। दर्जनों पुस्तकों, रिपोर्टों, न्यूजलैटरर्स आदि का भी संपादन किया है। तो भरपूर लिखा। लेकिन हाँ, लिखने की प्यास अभी मिटी नहीं है।
प्रश्न: आपका पहला उपन्यास सिंह मर्डर केस एक मर्डर मिस्ट्री था।उसका ख्याल मन में कैसे आया? इस उपन्यास की विशेष बात इसका स्ट्रक्चर था। इस स्ट्रक्चर का ख्याल कैसे आया?
उत्तर: ’सिंह मर्डर केस’ मेरे मन में दबी एक प्रतिहिंसा का संप्रेषण है। 70 के दशक में ‘मथुरा बलात्कार काण्ड’ हुआ था। मेरे मन में उस बेबस आदिवासी लड़की की विवशता एक आक्रोश को पनपाये थी। बाद में जब अवसर आया तो उसे मैने इस प्रकार व्यक्त किया।
यह उपन्यास एक नई शैली में लिखा गया है, हिंदी में ऐसी शैली में कोई उपन्यास मैने नहीं पढ़ा। वास्तव में इस शैली का कोई उपन्यास मैने पढ़ा ही नहीं। इस उपन्यास में दो कहानियाँ चलती हैं। एक वर्तमान से भविष्य की ओर दूसरी वर्तमान से भूत की ओर । कहानी के एक मोड़ पर भूतकाल को अग्रसर कहानी अपने उत्स तक पहुँच जाती है और तब सब कुछ वर्तमान में आ जाता है। मेरी इस शैली से कुछ लोगों को परेशानी हुई तो कुछ को बहुत अच्छी लगी। किंतु मेरा विश्वास है कि पाठक को भी थोड़ा मानसिक श्रम करना चाहिये।
प्रश्न: आपका दूसरा उपन्यास महासमर एक पर्यावरण केंद्रित रोमांचक उपन्यास है। यह उपन्यास आपने सबा खान जी के साथ मिलकर लिखा है। उपन्यास का विचार कहाँ से आया? साथ में उपन्यास लिखने का अनुभव कैसा रहा और यह अकेले उपन्यास लिखने के अनुभव से कैसे जुदा था।
उत्तर:‘महासमर’ का विचार तो चौथाई सदी पूर्व उदित हुआ था। किंतु कुछ समय का अभाव और कुछ इतने बड़े कैनवास पर लिखने के संकोच के चलते टलता रहा। किंतु जब ’सिंह मर्डर केस’ प्रकाशित होने के उपरान्त सभी मित्रों का आग्रह होने लगा तो फिर विवश होकर इस उपन्यास को निपटाने की सोची। इस बीच डॉ. सबा खान से ’सिंह मर्डर केस’ के चलते परिचय हुआ था और वह परिचय धीरे-धीरे चाचा-भतीजी के रिश्ते में कब विकसित हुआ पता भी न चला। तब वे भी मुझे आग्रह करने लगी कि अब दूसरा कुछ लिखूँ। लिहाजा महासमर की कथा का प्रारूप बना और प्रथम ड्राफ्ट जब डॉ. सबा को भेजा तो उनके अनेक सुझाव प्राप्त हुये। धीरे-धीरे उनसे चर्चा कर महासमर के स्वरूप की अपनी कल्पना पर चर्चा हुई। फिर चर्चा ऐसी स्थिति में पहुँच गई कि सुझाव किसका था इसका न मुझे पता था न डॉ. सबा को। मुझे ये गवारा नहीं था कि अपनी बेटी की बौद्धिक संपदा को मैं अपने नाम से प्रकाशित करूँ। इसलिए मैंने उनसे सह लेखिका बनने को कहा। वे पहले तो राजी न हुई लेकिन फिर मेरे बहुत समझाने पर वे तैयार हुई क्योंकि उनके सह लेखिका न होने की दशा में मैने उन सुझावों से किनारा कर लेना था और कहानी को उसकी वर्तमान स्थिति के स्थान पर पहले प्रारूप में ही प्रकाशित करना था। इस प्रकार हम लोगों ने साथ लिखने का निर्णय किया जो कि बहुत से उतार-चढ़ाव के उपरान्त पूर्ण हो सका। अभी मैं पूर्ण होना नहीं कहना चाहूँगा क्योंकि अभी तो मात्र भूमिका लिखी गई है। ये आइसबर्ग की टिप है। अभी बहुत कुछ बाकी है जो समय के साथ लिखा जायेगा।
अकेले लिखने और साथ में लिखने में बहुत अंतर होता है। अकेले आप अपने एकांगी विचार को विकसित करते हैं जबकि साथ में लिखने पर विचारों पर चर्चा और विमर्श से नये आयाम खुलते है जिससे कहानी सघन और विस्तृत दोनों ही हो जाती है। एक ही विषय पर अलग-अलग दृष्टिकोण और संभावनाएं जुड़ती हैं और फिर कहानी का एक अलग ही स्वरूप निखरता है। मुझे तो दोनों में ही आनंद आता है। वैसे मेरा ये अनुभव पुराना है। शोध पत्र भी हम कई लोग मिलकर ही लिखते हैं।
प्रश्न: अभी तक आपने दोनों बड़े फलक की कृतियों को अपराध साहित्य के इर्द गिर्द ही रचा है। लेकिन आपके ब्लॉग पर मैंने सामाजिक और गंभीर साहित्यिक रचनाएं भी पढ़ी हैं। उदाहरण के लिए आपकी लिखी कहानी वो फिर नहीं आते। क्या आप इस शैली में भी कुछ लिखने का विचार बना रहे हैं? क्या कुछ तैयार हो रहा है?
उत्तर: मेरी दोनों रचनायें अपराध आधारित है। इसके पीछे एक ख्याल यह है कि मुझे लगता है कि अपराध भी मानव समाज का एक, बुरा ही सही-पर, अंग है। इसने मानव मन को सदा आकर्षित किया है। मेरे इस विचार को पुष्ट करने के पीछे एक ख्याल यह भी है कि बचपन में इंद्रजाल कॉमिक्स पढ़ा करता था जिसका पात्र बेताल मुझे बहुत पसंद था। रही बात दूसरी रचनाओं की तो उसका भी एक रहस्य है। आपने देखा होगा कि मेरी सभी सामाजिक/साहित्यिक रचनायें मेरे अकेले द्वारा नहीं लिखी गई है। इसमें मेरी धर्मपत्नी श्रीमती रेखा जी मेरी सह लेखिका रही है। वे मेरी सबसे अच्छी मित्र, साहित्यिक मार्गदर्शक और मेरी कल्पनाओं की प्रथम श्रोता हैं। इस विषय पर लेखन की मेरी इच्छा उनके सहयोग पर निर्भर है। वैसे हम लोग एक उपन्यास की सोच तो रहे हैं किंतु अभी उसमें समय है।
प्रश्न. महासमर का एक भाग आ चुका है जो कि पाठकों को खूब भाया है। इसका दूसरा भाग आने वाला है। इससे पाठक क्या उम्मीद लगा सकते हैं? इतना विस्तृत कथानक लिखने का अनुभव कैसा रहा?
उत्तर: ‘महासमर-परित्राणाय साधूनाम’ का दूसरा भाग ‘सत्यमेव जयते नानृतम’ के नाम से आ रहा है। यह उपन्यास प्रथम भाग में अधूरे छूटे सूत्रों को उनकी तार्किक परिणति तक ले जाता है। इस उपन्यास में पाठक आपराधिक षडयंत्र की जल जनित वाहक से फैली बीमारी का प्रसार और उसके आयामों से दो चार होंगे। पाठक यह भी अनुभव करेंगे कि अगर सत्ता प्रतिष्ठान दृढ़ संकल्प हो तो बड़े से बड़े अपराधिक षडयंत्र से हुई क्षति की भरपाई की जा सकती है। ये एक रोचक और तेज रफ्तार इकोलाजिक्ल थ्रिलर है। निश्चय ही यह एक नवीन अनुभव देगा।
वृहत कथानक और परिदृश्य में लिखना सदा चुनौतीपूर्ण होता है। यह भी ऐसा ही प्रोजेक्ट है। इसके आगे के जो उपन्यास आयेंगे लेखकद्वय इस बारे में कृत संकल्प हैं कि हर उपन्यास अपने में सम्पूर्ण होगा। अगर एक जिल्द में हो सकना संभव न हो सकेगा तो दोनों भाग एक साथ ही आयेंगे।
प्रश्न: महासमर के बाद पाठको को और क्या पढ़ने को मिलेगा? क्या आप कुछ नए प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं? क्या पाठकों को उनके विषय में बता सकते हैं?
उत्तर: महासमर के बाद क्या? तो मैं ये बताना चाहूँगा कि महासमर इस उपन्यास से पूर्ण नहीं हो जा रहा है। यह एक बहुत बड़ी कहानी की मात्र भूमिका है। जिसे कहते है न कि पिक्चर तो अभी शुरू हुई है। तो महासमर के बाद कहना उचित नहीं। महासमर एक ऐसी संकल्पना है जिस पर अभी वर्षों लिखा जाना है। किंतु ’सत्यमेव’ के उपरान्त मैं एक स्वतंत्र उपन्यास की योजना बना चुका हूँ। इस उपन्यास का नाम ’तांडव’ है। यह भी एक थ्रिलर होगा।
प्रश्न: हिन्दी में पाठक कम हो रहे हैं और इसका मुख्य कारण यह है कि हम नए पाठक नहीं बना पा रहे हैं। नए पाठक इसलिए नहीं बन पा रहे हैं क्योंकि रोमांचक बाल साहित्य की बाज़ार में काफी कमी है। आपका इस संदर्भ में क्या विचार है? क्या आप कभी बाल साहित्य में हाथ आजमाएंगे?
उत्तर: रोमाँच प्रधान बाल उपन्यास की हिंदी में सदा कमी रही है। जब मैं बच्चा था, वैसे अभी भी बच्चा ही हूँ, तो उस समय कई बाल पाकेट बुक्स आती थीं। वे अधिकांशतः राजकुमारों की कहानियाँ होती थीं। चंदर ने किशोरों के लिये डबल सीक्रेट एजेंट 001/2 की कल्पना की जिसमें राम-श्याम नायक होते थे। उसके कुछ उपन्यास आये। निश्चय ही ’एटम बम’ तक तो इन उपन्यासों की अलग ही क्लास थी। मनोज ने ’रायजादा’ के नाम से राम-रहीम खरीद निकाली जो बाद में जासूसी से हॉरर में परिवर्तित हो गई। ’चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट’ ने पाँच जासूस के नाम से एनिड बिल्टिन शैली की एक किताब बहुत बाद में प्रकाशित की। श्री एस.सी. बेदीजी ने भी राजन इकबाल को नायक बना कर खूब लिखा।
इतना होने पर भी हिंदी में स्तरीय रोमांचक बाल साहित्य की कमी अखरती रही है। ऐसा क्यों? क्योंकि बाल और किशोर थ्रिलर लिखना अत्यंत कौशल का काम है। जहाँ तक मेरी बात है तो मैं स्वयं को अभी इतना परिपक्व नहीं मानता कि बाल/किशोर थ्रिलर लिख सकूँ।
प्रश्न: सर आप इतने वर्षों से लिख रहे हैं। पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहे हैं। नए लेखकों को आप क्या सलाह देना चाहेंगे?
उत्तर: नये लेखकों को सलाह दे सकने जितनी सलाहियत तो मेरी नहीं है। मैं तो स्वयं नया लेखक हूँ और अभी सीख ही रहा हूँ। हाँ, मैं अपने विचार अवश्य साझा कर सकता हूँ। मेरा मानना है कि लिखना वही चाहिये जिससे आपका मन और विवेक सहमत हो। जो लिख कर आपको संतोष और आनंद हो। जो ऐसा हो जिसे आपके गुरूजन और आपके कनिष्ठ अर्थात बडे और छोटे यदि पढ़े तो आप शर्मिंदा न हो।
प्रश्न: सर अब आखिर कोई ऐसी बात जो आप पाठकों को कहना चाहें तो उन्हें कहें। जो भी आपके मन में हो।
उत्तर: हिंदी साहित्य तो उत्तरोत्तर समृद्ध हो रहा है। नये-नये लेखक आ रहे हैं और अलग-अलग श्रेणियों में भिन्न-भिन्न स्तरों का लेखन उपलब्ध है। अपराध कथा लेखन भी ठहराव के दौर से उबर रहा है। नये लेखक आ रहे हैं और इसे समृद्ध कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह विधा भविष्य में नये आयाम छुयेगी।
तो यह थी रमाकांत जी के साथ हुई बातचीत। बातचीत आपको कैसी लगी? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा। तब तक के लिए पढ़ते रहें लिखते रहें।
ब्लॉग में मौजूद अन्य साक्षात्कारों को आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
साक्षात्कार
©विकास नैनवाल ‘अंजान’
बहुत शानदार इंटरव्यू।
जी, आभार आनंद भाई….
अदभुत! पढ़कर मन तृप्त हो गया। चाचा जी ने जनप्रिय जी की वेबसाइट के रूप में जो भेंट हम पाठकों को दी है, उसके लिए जितना आभार व्यक्त करूँ कम है। जनप्रिय जी की उपन्यासें अपने मोबाइल में देखता हूँ तो मेरा 7000 रुपये का मोबाइल मुझे लाखों रुपये का लगने लगता है। लेखक के रूप में भी चाचा जी और सबा दीदी का 'महासमर' अद्भुत कृति है, जिसके द्वितीय भाग का हम सभी फैंस को बेसब्री के साथ इंतजार है। इतने बड़े कैनवास पर इतनी शानदार रचना लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई और सादर चरणस्पर्श!
जी, आभार ब्रजेश जी। ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आपने सही कहा रमाकांत जी के कारण जनप्रिय लेखक जी के उपन्यासों का पठन पाठन काफी सरल हुआ है। रमाकांत जी के आने वाले उपन्यासों का मुझे भी बेसब्री से इंतजार है।ब्लॉग पर आते रहियेगा।
जनप्रिय जी की वेबसाइट के बाद मैंने उपन्यासों पर जो सबसे अच्छा ब्लॉग देखा है, वो आपका ही है. इतना अच्छा ब्लॉग संचालित करने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई.
आभार ब्रजेश जी। ऐसी टिप्पणियाँ ही बेहतर करने के लिए प्रेरित करती हैं।
आभार बृजेश जी।
शानदार साक्षात्कार । बहुत सारे पहले के लेखकों के बारे में जान कर सुखद अनुभूति हुई ।
जी, आभार मैम। साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा।
साहित्य जगत के सितारे रमाकांत मिश्र जी यह साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा, काफी कुछ उनके विषय में जानने को मिला।
विकास भाई का यह प्रयास सराहनीय है।
धन्यवाद।
– गुरप्रीत सिंह
http://www.sahityadesh.blogspot.in
आभार,गुरप्रीत जी। साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा।
गुड
आभार सर। ब्लॉग पर आते रहियेगा।
बहुत बढ़िया साक्षात्कार। आपको साधुवाद। अगले साक्षात्कार का इंतजार रहेगा।
आभार हितेष भाई। जल्द ही कुछ प्रस्तुत करता हूँ। ब्लॉग पर आते रहियेगा।
मज़ा आ गया पढ़ कर।
धन्यवाद विकास जी, आपके द्वारा नए-नए लेखको के बारे मे पता चल रहा है।
आभार, अमन भाई। एक छोटी सी कोशिश है साथ बनाये रखें।
विकास भाई आपका आभारी हूँ कि आपने यह सुअवसर प्रदान किया। इस आयोजन के बहाने बहुत सी स्मृतियाँ ताजा हो गईं। ये मेरे लिये एक प्रेरक और आनंददायक अनुभव रहा।
कोटिश: आभार 🙏🙏।
जी आभार सर। इस बातचीत से मुझे ही नहीं कई और पाठको को काफी कुछ सीखने को मिलेगा। वक्त निकालकर अपने शब्दों को हमसे साझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
इस साक्षात्कार पर इतने विलम्ब से आने का मुझे सदैव खेद रहेगा विकास जी । रमाकान्त जी न केवल एक श्रेष्ठ लेखक हैं वरन बहुत अच्छे इंसान भी हैं । मैं 'महासमर' का दूसरा भाग भी पढ़ चुका हूँ तथा इसकी समीक्षा लिखने का प्रयास कर रहा हूँ । रमाकान्त जी के व्यक्तित्व के अब तक अज्ञात रहे आयामों तथा उनके द्वारा रचित उपन्यासों की पृष्ठभूमि से परिचित करवाने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार एवं अभिनंदन ।