राजस्थान में अफीम की पिनक में अमलदारों द्वारा किये गए कारनामों के किस्से काफी मशहूर हैं। प्रस्तुत किस्सा घोड़ों की खेती भी ऐसे ही अमलदारों के समूह का है, जिन्होंने घोड़ो की खेती करने का पूरा मन बना लिया था। अब आप कहेंगे कि घोड़ों की खेती भी कभी हुई है भला! पर अमलदार अपनी धुन के पक्के थे। न केवल उन्होंने खेती की बल्कि घोड़े उगाने में कामयाब भी हो गए।
तो बात यह हुई कि एक बार 10-15 अमलदार अफ़ीम घोट के ले चुके और फुल मस्ती में गप्पों का दौर हुआ चालू। तब एक जने ने सुझाव दिया कि हम सारा दिन बैठे रहते हैं कुछ काम करना चाहिए। फिर क्या था, चर्चा चल पड़ी काम के बारे में। क्या काम किया जाए तो हमारा साथ भी बना रहे और काम भी होता रहे और अफ़ीम भी चलती रहे। तो सभी अमलदार मिलकर काम-धंधे पर चर्चा करने लगे।
तो संग्राम, जो एकदम चूंच हो चुका था नशे में, बोला, “भाई धंधा करना ना अपने बस का सौदा है और ना ही अच्छा। बुज़ुर्गों ने कहा है- ‘नीच नौकरी, मध्यम बान और उत्तम खेती’ तो हम नीच और मध्यम काम करें ही क्यों जब उत्तम खेती अच्छे से कर सकते हैं।”
संग्राम की बात का खैराज ने समर्थन किया और बोला, “बहुत ठीक कहते हो संग्राम भाई! खेती तो अपाहिज को भी पालती है। हमें खेती करनी चाहिए।”
बाकी सभी का समर्थन भी खेती को मिल गया। अब फ़सल क्या बोई जाए, इसपे मशवरा चला। माँगू बोला, “फ़सल तो बाजरा ही ठीक है। अनाज भी हो जाएगा और उतने ही मोल का चारा भी हो जाएगा।”
सत्तार ने इसका तुरंत विरोध किया, वैसे तो सभी अमलदार लीचड़ और आलसी होते हैं और बकरी और अमलदार का पानी से साँप-नेवले का बैर होता है, लेकिन सत्तार इस टोली में सबसे ज्यादा लीचड़ था। सर्दियों की तो छोड़ो, वो गर्मियों में भी बिना स्नान के 10 दिन निकाल लिया करता था।
तो सत्तार बोला, “ना भाई ना बाजरा,ज्वार और ग्वार हमारे बस का नहीं। उसकी कंपि चिपकती है शरीर से और नहाए बिना खुजली पीछा नहीं छोड़ती। अब शाम को काम के बाद नहाने की हिम्मत किसकी होगी बताओ?”
और सत्तार की बात सभी की समझ में आ गई। नहाने का और वो भी शाम को नहाने का आतंक सभी के दिमाग पर छाया हुआ था।
तभी भूरा बोला, “मूंग कैसे रहेंगे?” हाथों हाथ मूले ने प्रस्ताव खारिज किया। एक तो मूंग की रखवाली बहुत कठिन। फूल और फली लगने के बाद नील गायें टूटकर पड़ेंगी। कौन करेगा रात भर पहरेदारी? और अगर नील गायों से बच भी गये तो पकने पर अगर बारिश हो गई तो दाना-दाना खेत में बिखरा पड़ा होगा। तो मूंग भी रद्द।
तभी सबसे वरिष्ठ अमलदार बालू बोला, “अगर मेरी सलाह मानो तो हमें घोड़े बो देने चाहिए। एक-एक घोड़ा हज़ारों रुपये का। सवारी के भी काम आ जायेंगे वो अलग।”
तभी सबसे छोटा अमलदार तुलसा बोला, “बालू दादा, घोड़ों की भी खेती होती है?”
बालू ने उसकी तरफ़ उपेक्षा देखा और बोला, “खेती तो होती ही है, वरना घोड़े क्या आसमान से बरसते हैं?” और बालू की बात सबके दिमाग में बैठ गई।
घोड़ों की खेती करेंगे।
संग्राम का जो गाँव के पास वाला बीस बीघे का खेत है और उसके चारों तरफ़ दीवार भी है, उसमें घोड़े बोने का फैसला सर्वसम्मति से हो गया।
तो संग्राम के खेत में घोड़े बोना तय हो गया। खेत में एक देशी बबूल का बहुत ही घना पेड़ था, उसके नीचे जाजम जमेगी अफ़ीम की केवल दिन में। रात को दीवार की सुरक्षा का ही भरोसा किया गया।
पूरी मंडली आ गई बबूल के नीचे और खेत का मुआयना किया गया, अफ़ीम लेने के बाद। खेत अच्छा था। समतल था। उपजाऊ था। गाँव के नजदीक था। और सबसे बड़ी बात, बबूल की छाया थी और क्या चाहिये!
तब माँगू बोला, “बालू दादा, खेत तो ठीक है। नमी भी अच्छी है अभी। लेकिन, हमें घोड़ों का बीज कहाँ मिलेगा?”
अब बालू गम्भीर हो गया बोला, “भाई, बीज बाजार में तो मिलेगा नहीं, कोई मामूली चीज़ तो है नहीं। आखिर घोड़े का बीज है। यह तो जहाँ घोड़े होंगे, वहीं मिलेगा।
तब तुलसा बोला, “दादा पाँच-सात घोड़े तो अपने ठाकुर साहब के पास हैं।”
बालू ने कहा, “चार-पाँच घोड़ों वालों के पास बीज कहाँ धरा होगा? जहाँ हज़ारों घोड़े हो वहाँ मिलेगा।”
“फिर इतने घोड़े तो जोधपुर महाराजा के पास ही है और कहाँ होंगे?”, सत्तार ने ज्ञान बघारा।
“हाँ, वहीं चलते हैं,” बालू उत्साह से बोला, “हमारे राजा हैं वो और हम उनकी प्रजा। तो हम दूसरी जगह क्यों भटके? महाराजा के पास बीज ज़रूर मिलेगा और नहीं हुआ तो उनको क्या भार है? वो गुजरात, काठियावाड़ से मँगवा लेंगे आखिर महाराजा है।”
तो सभी ने यह तय किया कि कल सवेरे जल्दी निकल जाओ घर से मुँह अँधेरे, बगल में दो-दो रोट दबा लो। अमल लेने समय पीपाड़ पहुँच जायेंगे। वहाँ ब्राह्मणों की बगेची में अफ़ीम लेकर आगे चल पड़ेंगे। सुबह सवेरे जोधपुर जाने का फैसला करके अमलदार मंडली अपने-अपने घर गई।
Ha! Ha! Sounds like good fun. Intrigued to know what the king will say when they ask for "ghode ka beej?" 😁😁😁
It sure is a laugh riot. Do give it a try.