साजिश के हवन कुंड में आहुतियाँ डाली जा रही थीं, लपटें निरंतर उग्र रूप लेती जा रही थीं, सब कुछ जल्दी ही स्वाहा हो जाने वाला था। अफसोस कि किसी को उस बात की भनक तक नहीं थी। एक लॉ ग्रेजुएट लड़की के कत्ल से शुरू हुई ऐसी हौलनाक दास्तान, जिसे हत्यारे ने अपने तेज दिमाग के इस्तेमाल से बुरी तरह उलझा कर रख दिया। नतीजा ये हुआ कि हत्या की एक वारदात धीरे-धीरे अपराध की महागाथा में परिवर्तित होती चली गई।
“साँवली।”
“बोल सलोने।”
“तू मेरी जान है, तेरे बिना तो मैं अपनी जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकता। तू है तो सबकुछ है, वरना कुछ नहीं। आई लव यू।”
“यानी मुझे कुछ हो गया तो तुम भी अपनी जान दे दोगे?”
“पागल हो गई है! मैं तो सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि तेरे बिना जीने की कल्पना नहीं कर सकता, मगर जीना तो पड़ेगा ही, कल को बच्चे भी तो पैदा करने हैं। तू तो जानती ही है मुझे बच्चों से कितना लगाव है।”
“यानी असल में तुम्हें मुझसे कोई प्यार-व्यार नहीं है, बल्कि उन बच्चों से होगा, जिन्हें शादी के बाद मैं जनने वाली हूँ?”
“नहीं उनकी माँ से भी होगा, बल्कि है, आई लव यू, और खबरदार जो दोबारा ऐसी कोई अशुभ बात अपने मुँह से निकाली। मैं ये नहीं कहता कि तेरे पीछे जान दे दूँगा, मगर टूट जाऊँगा, बिखर जाऊँगा, मेरा वजूद खत्म हो जायेगा साँवली। और वैसी जिंदगी से तो मर जाना ही बेहतर होगा।”
“पागल।”
“वही सही।”
तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी।
“कौन है?” श्यामली ने उच्च स्वर में पूछा।
जवाब में फिर से दरवाजा खटखटा दिया गया।
“होल्ड करना” – कहकर वह उठ बैठी – “कोई दरवाजा नॉक कर रहा है, देखकर आती हूँ।”
“इतनी रात गये?”
“कोई फ्रैंड होगी, होल्ड करो।”
सिद्धांत इंतजार करने लगा।
“कौन है?” श्यामली की आवाज उसके कानों में पड़ी। फिर चिटखनी सरकाये जाने की हल्की सी ध्वनि, तत्पश्चात दरवाजा खुलने की हल्की सी चरमराहट। अगले ही पल सिद्धांत को यूँ लगा जैसे कोई हौले से हँस पड़ा हो। और एक चटाख की जोरदार आवाज, फिर कुछ अजीब सी खड़-खड़ ना समझ में आने वाली ध्वनि, अगले ही पल उसे यूँ महसूस हुआ जैसे श्यामली का मोबाइल कहीं जोर से टकराया हो।
“हलो” – सिद्धांत एकदम से घबरा उठा – “साँवली क्या हुआ? सब ठीक तो है?”
जवाब नदारद!
“साँवली! साँवली जवाब दो।”
“सि…द्धां…त – श्यामली की आवाज उसे बहुत दूर कहीं से आती महसूस हुई। यूँ लगा जैसे किसी ने उसका मुँह दबा लिया हो – ब…चा…ओ…।”
उसके बाद कुछ अजीब सी आवाजें सिद्धांत के कानों में पहुँची, तत्पश्चात दूसरी तरफ से कैसी भी आवाज या आहट सुनाई देनी बंद हो गई। वह हैलो-हैलो करता रहा, मगर जवाब नहीं मिला। मोबाइल को कान से हटाकर स्क्रीन पर निगाह डाली, तो कॉल अभी भी चलती दिखाई दी।
उसने फिर से साँवली को आवाज दी, मगर कोई रिस्पांस नहीं मिला। लगा ही नहीं कि दूसरी तरफ कोई उसकी बात सुन भी रहा था।
अगले ही पल उसके मन में दिल दहला देने वाले भयानक ख्याल उठे।
वह तेजी से बेड से उतरा, स्टडी टेबल से बाइक की चाबी कब्जाई और बगूले की तरह कमरे से बाहर निकल कर सीढ़ियों की तरफ भागा। एक छलांग में तीन-चार सीढ़ियाँ फांदता वह नीचे पहुँचा। फिर उस तरफ को भागा जिधर उसकी मोटरसाइकिल खड़ी थी, दौड़ते-दौड़ते उसने गार्ड को इमरजेंसी का हवाला देते हुए गेट खोलने को कह दिया।
बाइक स्टार्ट कर के जब तक वह गेट पर पहुँचा, बुरी तरह हड़बड़ाया सा गार्ड दरवाजा खोल चुका था।
“क्या हुआ सिद्धांत साहब?” गॉर्ड ने पूछा।
मगर जवाब देने लायक वक्त उसके पास नहीं था।
अगले ही पल वह फुल स्पीड से अपनी मोटरसाइकिल गर्ल्स हॉस्टल की तरफ दौड़ाये जा रहा था। रास्ते में उसके मन में पुलिस को कॉल करने का भी ख्याल बराबर आया। मगर जानता था कि पुलिस को वहाँ पहुँचने में वक्त लग जाना था, जबकि वह खुद छह-सात मिनटों या उससे कहीं कम समय में हॉस्टल के सामने होता। फिर पुलिस को कॉल करने के लिए उसे बाइक रोकनी पड़ती, जिसमें कुछ मिनट तो जाया हो ही जाने थे।
कमरे से निकलने के ठीक आठ मिनट बाद उसने गर्ल्स हॉस्टल के गेट पर पहुँचकर बाइक को ब्रेक लगाया, नीचे उतरा, और मोटरसाइकिल ज्यों की त्यों छोड़ दी। स्टैंड लगाने तक का होश उसे नहीं था, नतीजा ये हुआ कि बाइक जोर की आवाज करती हुई नीचे जा गिरी।
सामने गर्ल्स हॉस्टल की पूरी इमारत उसे अंधेरे में डूबी दिखाई दी।
अभी वह गेट पर पहुँचा ही था कि दूसरी तरफ खड़े गार्ड पर उसकी निगाह पड़ी, जो कि उस वक्त किसी साये से ज्यादा नजर नहीं आ रहा था। सिद्धांत ने उसे गार्ड इसलिए कबूल कर लिया क्योंकि गेट पर उस वक्त और किसी के मौजूद होने का कोई मतलब नहीं बनता था।
“अच्छा हुआ इंस्पेक्टर साहब कि आप जल्दी, जल्दी आ गये। पुलिस को कॉल मैंने ही किया था।” गेट खोलता हुआ गार्ड बोला। अंधेरे में उसका चेहरा देख पाना संभव नहीं था, ऊपर से सिद्धांत वैसी किसी बात पर ध्यान देने की पोजिशन में भी नहीं था, हाँ साये की आवाज जरूर उसे कुछ अजीब लगी थी। यूँ महसूस हुआ था जैसे वह मुँह में कुछ चबा रहा हो।
“हुआ क्या है?” सिद्धांत ने धड़कते दिल के साथ पूछा, उसने ये बताने की कोई जरूरत नहीं समझी कि वह पुलिसवाला नहीं था, क्योंकि उन हालात में हो सकता था कि गार्ड उसे हॉस्टल में घुसने ही नहीं देता।
“कुछ लड़के एक स्टूडेंट के कमरे में घुसे हुए हैं” – इस बार गार्ड बोला तो उसका लहजा थोड़ा घबराया हुआ था –
“मेरे साथ आइए जल्दी, जल्दी कीजिये।” कहकर आगे बढ़ने से पहले वह तेजी से अपने केबिन में घुसा और वहाँ मौजूद दो-ढाई फीट का एक डंडा उठाकर सिद्धांत के आगे-आगे चल पड़ा।
“आप हथियार लेकर तो आये हैं न जनाब?” – तेजी से आगे बढ़ता वह बोला – “क्योंकि कमरे के भीतर से गोली चलने की आवाज सुनाई दी थी हमें, जरूर उनमें से कोई हथियारबंद है।”
“नहीं मेरे पास हथियार नहीं है, लेकिन मैं निपट लूँगा उनसे। तुम चिंता मत करो, बस जरा अपनी स्पीड तेज कर दो।”
सिद्धांत की बात का उसपर पूरा-पूरा असर हुआ, वह दौड़ता हुआ आगे बढ़ा और तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। सिद्धांत उसके पीछे हो लिया।
“आप इसे रख लीजिये” – दौड़ते दौड़ते उसने हाथ में थमा डंडा सिद्धांत को थमा दिया – “कुछ तो काम आ ही जायेगा।”
सिद्धांत ने उस बात पर कोई हुज्जत नहीं की, वैसे भी इस वक्त उसका पूरा ध्यान श्यामली की तरफ था, उसकी फिक्र जान निकाले दे रही थी, कुछ सोच पाने की मनोस्थिति में वह बिल्कुल नहीं था।
आगे पीछे सीढ़ियाँ चढ़ते दोनों तीसरी मंजिल पर पहुँचे। सिद्धांत को वहाँ श्यामली के कमरे की पूरी-पूरी जानकारी थी, जो कि गलियारे के एकदम आखिरी सिरे पर था। फ्लोर पर कदम रखते ही – गार्ड को पूरी तरह नजरअंदाज कर के – डंडा हाथ में थामें उसने पूरी ताकत से श्यामली के कमरे की तरफ दौड़ लगा दी।
वहाँ पहुँचकर उसने दरवाजे को एक जोर की लात जमाई, दोनों पल्ले एक-दूसरे से अलग होकर, दोनों तरफ – जहाँ तक खुल सकते थे खुले और वापिस बंद होने लगे। भीतर गहरा अँधेरा फैला हुआ था।
सिद्धांत ने डंडे को क्षण भर के लिए बायें हाथ में स्थानांतरित किया, जेब से मोबाइल निकाल कर उसका टॉर्च जलाया, और डंडे को फिर से दायें हाथ में मजबूती से पकड़ लिया।
हॉस्टल के तमाम कमरे महज ढाई सौ स्कवॉयर फीट में बने हुए थे और यूँ बने थे कि एक नजर देखने पर स्टूडियो अपार्टमेंट जैसे जान पड़ते थे। दरवाजे से भीतर कदम रखते ही सामने लकड़ी की दीवार के साथ एक स्टडी टेबल और दो कुर्सियां रखी हुई थीं। टेबल के दाईं तरफ एक दो बाई छह की सामने से खुली हुई बुक सैल्फ थी। और उससे आगे अटैच्ड बॉथरूम का दरवाजा था, जो कि उस वक्त बंद था। जबकि बाईं तरफ की दीवार के साथ एक छोटा सी स्लैब दिखाई दे रही थी, जिसका इस्तेमाल खाना बनाने के लिए किया जाता था। उस स्लेब और स्टडी टेबल के बीच से भीतर के कमरे में जाने का रास्ता बना हुआ था।
टॉर्च के प्रकाश में सिद्धांत ने पूरी स्टडी में एक निगाह दौड़ाई।
पल भर को उसके दिमाग में जैसे कुछ खटक कर रह गया। कोई बात थी जो उसे भीतर कदम रखने से रोक रही थी। लेकिन विवेक से उसका नाता इस वक्त पूरी तरह टूट चुका था। नहीं टूटा होता तो उसके जैसा शॉर्प माइन्डिड लड़का हॉस्टल में घुसते के साथ ही समझ जाता कि वह किसी गहरे ट्रैप में फँसने जा रहा है। वहाँ उसके खिलाफ कोई ऐसा अदृश्य जाल बुना गया था, जो उसकी जिंदगी को नर्क बना देने वाला था।
डंडा अपने सामने ताने, किसी भी वक्त हमला करने को तत्पर, वह भीतर दाखिल हुआ और जोर से गुहार लगाई,
“साँवली।”
जवाब नदारद।
“साँवली! साँवली, क्या भीतर हो तुम?”
इस बार भी उत्तर नदारद था।
तभी उसकी निगाह फर्श पर टूटे पड़े मोबाइल पर पड़ी, उसका रहा-सहा धैर्य भी जवाब दे गया, वह लगभग दौड़ता हुआ बेडरूम के खुले दरवाजे से भीतर दाखिल हुआ। आगे टॉर्च की रोशनी में जो नजारा उसे दिखाई दिया, देखकर उसका हॉर्ट फेल नहीं हो गया, यही बहुत बड़ी बात थी।
लेखक संतोष पाठक का जन्म 19 जुलाई 1978 को, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के बेटाबर खूर्द गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव से पूरी करने के बाद वर्ष 1987 में आप अपने पिता श्री ओमप्रकाश पाठक और माता श्रीमती उर्मिला पाठक के साथ दिल्ली चले गये,। जहाँ से आपने उच्च शिक्षा हासिल की। आपकी पहली रचना वर्ष 1998 में मशहूर हिन्दी अखबार नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई, जिसके बाद आपने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वर्ष 2004 में आपको हिन्दी अकादमी द्वारा उत्कृष्ट लेखन के लिए पुरस्कृत किया गया। आपने सच्चे किस्से, सस्पेंस कहानियाँ, मनोरम कहानियाँ इत्यादि पत्रिकाओं तथा शैक्षिक किताबों का सालों तक सम्पादन किया है। आपने हिन्दी अखबारों के लिए न्यूज रिपोर्टिंग करने के अलावा सैकड़ों की तादाद में सत्यकथाएँ तथा फिक्शन लिखे हैं।