गजानन रैना साहित्यानुरागी हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लिखते रहते हैं। आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए उनका लिखा आलेख जो कि एक ऐसे दार्शनिक की कहानी बताता है जो कि धनकुबेर, फक्कड़, योद्धा और अपने समय का जीनियस आदमी था।
लुडविग जोसेफ जोहान विट्गेन्स्टाइन स्रोत: विकिपीडिया |
वो महानतम दार्शनिकों में एक था। वो बीसवीं सदी के सबसे बड़े जीनियस लोगों में था।
उसने गोथे, बर्ट्रेन्ड रसेल, टाल्सटाॅय और फ्योदोर दोस्तोवस्की जैसे विराट व्यक्तित्वों को प्रभावित किया था ।
उसका जीवन किसी भी फार्मूला फिल्म को मात करता है।
1889 में आस्ट्रिया में जन्में इस शख्स को पिता से 1913 में विरसे में मिली विपुल धनराशि ने यूरोप के सर्वाधिक धनी लोगों में शामिल कर दिया।
उसने चित्रकारों और संगीतज्ञों को काफी पैसा दिया। उसने ट्रैक्ल को पर्याप्त पैसा भेजा था।
( जार्ज ट्रैक्ल एक आस्ट्रियाई कवि था जो प्रथम विश्वयुद्ध में आस्ट्रियाई फौज में बतौर एक चिकित्सक नियुक्त था।
ग्रोडेक में रूसी फौजों से भीषण युद्ध के बाद पराजित और बुरी तरह घायल नब्बे फौजी एक चारागाह में अकेले,खुद जख्मी जार्ज के आसरे छोड़ दिये गये थे।
रात भर उन फौजियों की कराहें सुन सुन अर्धविक्षिप्त हुए ट्रैक्ल ने आत्महत्या की कोशिश की, लेकिन फिर उन असहाय लोगों की गुजारिश पर उसने वो ख्याल झटक दिया । इस अंतहीन, निर्मम रात पर उसने अपनी अंतिम कविता ‘ ग्रोडेक’ लिखी थी।
दार्शनिक जब 1914 में अंतत:, पहले कभी न मिले,अपने कवि मित्र से मिलने उसके पास पहुँचा, ट्रैक्ल जा चुका था। आत्महत्या के अपने दूसरे प्रयास में उसे असफल नहीं होना पड़ा था।
टूटे दिल के संवेदनशील युवा कवि को उसके सबसे बड़े प्रशंसक ने आखिरकार अपने पास बुला ही लिया था । ट्रैक्ल महज तीस साल का था।)
फक्कड़ दार्शनिक की समृद्धि का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि हिटलर ने स्विट्ज़रलैंड के बैंकों में जमा उसकी जो दौलत जब्त की थी, उसमें केवल सोना ही 1700 किलो था।
खैर, विरसे में जो धनराशि उसको मिली,उससे उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया । उसने अपने भाइयों, बहनों और वृद्ध संबंधियों को काफी पैसा दिया।
दार्शनिक के परिवार पर कोई मायावी काली छाया थी जरूर।
उसके चार भाइयों में से तीन ने आत्महत्या की थी।
1914 में काफी पैसा बाँट बूँट कर वो नार्वे के एक सुदूर गाँव पहुँचा जहाँ उसने प्राइमरी स्कूल में अध्यापन का काम करना शुरू कर दिया।
घने पेड़ों से घिरी, एक झील के पास,
एक विशाल चट्टान पर उसने एक लकड़ी का केबिन बनाया और रहने लगा।
प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया था। दार्शनिक आस्ट्रियन हंगेरियन फौज में, बतौर लेफ्टिनेंट,भर्ती हो गया।
सन अठारह तक वो सेना में रहा। दो बार उसको शौर्य पदक मिले। फिर उसने कई सुदूर आस्ट्रियाई स्कूलों में छोटी कक्षाओं को पढाया।
1929 में उसने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में दर्शन पढाना शुरू किया। उसने गणित के मनोविज्ञान, मनस के मनोविज्ञान और भाषा के मनोविज्ञान पर अपने समय से बहुत आगे की स्थापनायें दीं। अपने पूर्ववर्ती ख्यातनाम दार्शनिकों की कई अवधारणाएं उसने ध्वस्त कर दीं ।
कक्षा में वो जो बोलता था, उसके शिष्यों ने एकत्रित कर,उसके मरणोपरांत, दो संकलन छपवाये, ब्लू बुक और ब्राउन बुक। कहा जाता है एक तीसरी किताब भी है जो उपलब्ध नहीं है, पिंक बुक।
उसके जीवनकाल में उसकी एक ही पुस्तक छपी। मात्र पचहत्तर पृष्ठों की इस पुस्तक का नाम था, ‘ लाॅजिकल फिलोसाॅफिकल ट्रीटज’। आधुनिक दर्शन के परिदृश्य पर इस पुस्तक ने हंगामा मचा दिया। शैक्षणिक क्षितिज पर दार्शनिक एक धूमकेतु की तरह उभरा।
शिक्षाविदों और दार्शनिकों में बड़े बड़े नाम थे, जिन्होंने इस पुस्तक की अंधी नकल की।
अपने जीवन के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय में वह विरक्त हो कर एक नार्वे के एक गाँव जा पहुँचा और साल भर अज्ञातवास में दिन बिताये। यहाँ वह पढ़ाता था। उसके विद्यार्थियों के अनुसार वह एक अद्भुत शिक्षक था लेकिन उसके स्वभाव में तुनकमिजाजी थी।
उसके मुताबिक न पढ़ने पर वह लड़कों को तो पीट ही देता था, बीजगणित न पढ़ने पर उसने एक लड़की को थप्पड़ मार दिया । गाँव के लोगों के लिए उसकी यह हरकत कहावत वाले ऊँट की पीठ पर आखिरी तिनका साबित हुई। गाँव वाले पैसे तो पहले ही नहीं देते थे,अब राशन, दूध और सब्जियाँ भी देना बंद कर दिया।
महीने भर में उसके अंटी के पैसे खर्च हो गये। उसने बर्ट्रेन्ड रसेल (जो उसके मेन्टर थे) को पैसों के लिये पत्र लिखा। जस चेला, तस गुरु । रसेल ने चेले के कमरे का ताला तोड़वा कर सारा सामान बेच दिया और पैसे भेज दिये।
दार्शनिक वापस लौटा, एक किताब लिखी, ‘फिलोसाॅफिकल इन्वेस्टिगेशन्स’।
इस किताब के माध्यम से उसने अपनी सारी पूर्व स्थापनाओं को गलत सिद्ध किया और रद्द कर दिया। अब वो लोग, जिन्होंने उसकी नकल की थी, हकबकाये खड़े थे।
यह एक विचित्र ही चरित्र था, एक तरफ सारी दुनिया में हुए सर्वेक्षणों में बीसवीं सदी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी गई किताब, बिना एक बार भी दोहराये, महज छह महीने में लिखी थी, वहीं बच्चों के लिए एक डिक्शनरी लिखने में उसने डेढ़ साल लगाये और आधा दर्जन से ज्यादा बार उसमें बड़े परिवर्तन किए थे।
उसके एटिच्यूड की झलक मिलेगी इस पत्रांश में,
” If I am not worth your making an exception for me, even in some STUPID details then I may as well go to hell directly and if I am worth it and you do not do it ,then – by God- you might go there.
यह पत्र उसने अपने वरिष्ठ विद्वान जी ई मूर को लिखा था। मूर ने रसेल के साथ उस अवधारणा का सूत्रपात किया था जो पश्चिमी दर्शन को आदर्शवाद से व्यवहारिकता की ओर लाया।
रे मोंक ने मूर के लिए लिखा था, ‘द मोस्ट रेवर्ड फिलोसाॅफर आफ हिज एरा’।
पचीस वर्षीय सनकी युवा दार्शनिक ने अपनी उन्नति में सर्वाधिक सहयोगी सिद्ध हो सकने वाले शख्स के अहं को चोट पहुँचाई थी। मूर ने बरसों उससे बात नहीं की , लेकिन उसको धेला परवाह नहीं हुई।
इस ,धनकुबेर, फक्कड़, योद्धा और दार्शनिक का नाम था, ‘लुडविग जोसेफ जोहान विट्गेन्स्टाइन’।
लेखक परिचय
गजानन रैना |
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