संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 125 | प्रकाशन: नीलम जासूस कार्यालय
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
जग्गू का गणित में एम एस सी पूरा हो चुका था और अब उसे लखनऊ आना था। उसके पिता लाला गंगाराम और भाई भग्गू उर्फ भगवान दास ने मिलकर एक कॉलेज में उसकी लेक्चरशिप सुनिश्चित करवा ली थी।
जग्गू एक रूढ़िवादी आर्य समाज परिवार से आता था जिनके लिए धर्म और जाति ही सबसे महत्वपूर्ण थी। ऐसे में लखनऊ में रहने की कई आदेश दिए गए थे। जग्गू के परिवार वालों को लगता था कि लखनऊ के लोग धार्मिक नहीं थे और इस कारण कलियुग का प्रभाव उधर अधिक था।
जग्गू के परिवार वालों की लखनऊ के प्रति ये राय क्यों थी?
क्या जग्गू लखनऊ में अपने धर्म की रक्षा कर पाया?
आखिर लखनऊ में जग्गू के साथ क्या हुआ?
किरदार
नन्ही – जग्गू की मां
गंगाराम गुप्ता – जग्गू का पिता
भगवान दास गुप्ता उर्फ भग्गू – जग्गू का बड़ा भाई
मैना देवी – भगवान की पत्नी
जगत राम – जग्गू का फूफा
जमना – जग्गू की बुआ
प्रिया – एक छात्र जो जग्गू के कॉलेज में पढ़ती थी
लटकन प्रसाद – प्रिया के पिता और एक नामी ठेकेदार
किशोरी देवी उर्फ कचोरी देवी – लटकन की पत्नी
संतोष कुमार – एक आर्य समाजी नेता
कातिल लखनवी – एक शायर और भस्मासुर का संपादक
बिंदिया उर्फ भिंडी भाभी – कातिल की पत्नी
शिकायत खाँ – पी जगमोहन फर्म का मुंशी
रामधुन – विधायक नेता
धन्नो – रामधुन की पत्नी
विचार
तिरछी नजर जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा का एक व्यंग्य उपन्यास है जो कि नीलम जासूस कार्यालय से पुनः प्रकाशित हुआ है।
उपन्यास के केंद्र में जगमोहन उर्फ जग्गू है। जग्गू अपने परिवार का छोटा लड़का है। उसके परिवार में उसके पिता गंगाराम गुप्ता और उससे पंद्रह साल बड़े भाई भगवान दास गुप्ता उर्फ भग्गू हैं। जग्गू के परिवार वाले आर्य समाजी हैं और धर्म कर्म और कर्मकांड को मानने वाले लोग हैं। जग्गू की परवरिश ऐसे ही हुई है और आधुनिकता उसे छू भी नहीं पाई है। उपन्यास की शुरुआत जग्गू के लखनऊ जाने से होती है। जग्गू ने गणित में एम एस सी की है और अब लेक्चरर बनने लखनऊ जा रहा है। लखनऊ के विषय में उसके माता पिता और भाई भाभी के विचार ठीक नहीं है। उन्हें लगता है उधर आधुनिकता में डूबके लोगों ने अपने संस्कार खो दिए हैं। लखनऊ पहुँचकर जग्गू को जो अनुभव होते हैं, उसे जो लोग मिलते हैं और इस कारण उसके जीवन में जो प्रभाव आता है यही उपन्यास का कथानक बनता है। उपन्यास में जग्गू के लखनऊ पहुँचने, आधुनिकता से उसके दो चार होने और फिर आखिर में उसकी शादी होने तक के प्रसंग हैं। इस दौरान जग्गू के अनुभवों और उससे मिलने वाले किरदारों के माध्यम से लेखक समाज के कई पहलुओं पर व्यंग्य कसते से दिखते हैं। फिर वो नेता हों, धनाढ्य वर्ग हो, धार्मिक नेता हों या शिक्षण संस्थानों के भीतरी पहलू हो। वो सभी पहलुओं को छूते जाते हैं।
अक्सर लोग पाश्चात्य सभ्यता को खराब मानकर उससे बचने की सलाह देते हैं लेकिन ऐसे लोग अक्सर खुद ढोंग में जीते हैं। खुद कई तरह की बेइमानी करते दिख जाते हैं। उनका जीवन अक्सर उस बात से उल्टा दिखता है जिसका वो प्रवचन देते हैं। जग्गू के पिता, भाई और भाभी ऐसे ही लोग हैं। जग्गू के पिता धर्म कर्म की बातें करते हैं लेकिन लाला के रूप में उन्हें लोगो को ठगने से गुरेज नहीं है। जग्गू के भाई और भाई आर्य समाज के होने की दुहाई देते हैं। धर्म कर्म को मानने की बातें करते हैं लेकिन कई बार जब जरूरत पड़ती है तो वह इससे किनारा भी बखूबी कर लेते हैं।
यहाँ ऐसा नहीं है कि आधुनिक संस्कृति को मानने वाले सभी अच्छे हैं। लेखक दर्शाते हैं कि व्यक्ति अगर अच्छा है तो वो किसी भी संस्कृति से अच्छी चीज ही ग्रहण करेगा और आधुनिकता की अच्छी चीजों को अपनाया जाए तो उसमें कुछ बुरा नहीं है। यही चीज उपन्यास में जग्गू के फूफा जगतराम के किरदार में देखने को मिलती है। वह एक आधुनिक व्यक्ति हैं जो कि समय के साथ चलने में विश्वास रखते हैं। उन्हें पता है कि उनके रिश्तेदार आडंबर करते हैं और इसलिए वह उन पर कटाक्ष करने मौका नहीं छोड़ते हैं। वहीं वह भी जानते हैं कि उनके आडंबर में छेद किस प्रकार किया जा सकता है और यह काम वो वक्त आने पर बखूबी करते हैं।
जग्गू का परिचय उपन्यास में प्रिया नाम की लड़की से होता है। प्रिया के पिता लटकन प्रसाद नामी ठेकेदार हैं। प्रिया के माध्यम से जग्गू ठेकेदारी में घुसता है और फिर उसके पिता से गुर सीख कर उनसे भी आगे बढ़ जाता है। ठेकेदारी में कैसे चापलूसी चलती है यह इधर दिखाया गया है। धनाढ्य वर्ग में अक्सर कैसे स्वार्थ से रिश्ते बनते हैं यह इधर देखने को मिलता है।
प्रिया का किरदार भी बहुत रोचक गढ़ा गया है। प्रिया अपनी नौजवानी में प्रेम कर चुकी है और अब प्रेम की असलियत समझ चुकी है। वह ज़िंदगी अपनी तरह से जीना चाहती है और इसके लिए बकायदा जग्गू को प्रशिक्षण देती है। उसे पता है कि उसे जीवन और संबंधों से में क्या चाहिए और उसे लेने में झिझकती नहीं है। वहीं वह अपने प्रेमी पर किसी तरह की बंदिश नहीं लगाती है और एक तरह से ओपन मेरिज की हिमायती नजर आती है।
उपन्यास की भाषा शैली रोचक है। बड़े ही चुटीले अंदाज में वो किरदारों का परिचय देते हैं और उनके बीच के संवाद और दृश्य दर्शाते हैं। यह सब ऐसा है जिससे बरबस चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। उदाहरण के लिए:
भग्गू ने जग्गू को आदेश दिए। ऐसे नहीं जैसे बड़ा भाई छोटे भाई को सीख दे… बल्कि ऐसे जैसे प्रिंसिपल विद्यार्थी पर रौब गाँठे।…
बेचारा जग्गू!
जबसे होश संभाला तब से स्कूल में भाई का कठोर अनुशासन रहा और शाम को लौटकर बाप की दुकान पर हल्की और फिटकरी तोली। वह बड़े भाई के सामने ऐसे खड़ा था जैसे बुलडॉग के सामने दुम दबाए देसी पिल्ला। (पृष्ठ 9)
तंबाखू का पिंडा यहाँ दो हजार लेने नहीं आया था। कृष्ण कन्हैया लाल का कंठ स्वर खासा था। विद्यार्थी जीवन में रेडियो पर भी गाया और अब वह नामी कीर्तनकार भी था। लोग पैसा देकर बुलाते थे।
…
यूँ नगर में युवक कीर्तन मंडली अलग थी और उसने भी तमाखू के पिंडे को एक बार बुलाना चाहा था… परंतु वह नहीं आया था। तभी से कहा जाता था… सड़क के कीर्तन में औरतें कम होती हैं। जो औरतें होती भी हैं वह भी साधारण गृहस्थिन होती हैं। इसी कारण तमाखू का पिंडा बुलाने से भी नहीं आता। छम्मो सेठानी की बात और थी। उसके कीर्तन में नंबर एक की औरतें आती थीं जिन्हें नगर के युवक मलाई या क्रीम कहते थे। (पृष्ठ 12)
तीन दिन प्रिया ने सब कुछ सहा।
चौथे दिन… !
मुहर्त किया घर से। सौतेली माँ कुछ कह बैठी तो प्रिया ने माँ की ऐसी पिटाई की कि छोटे भाई और बहनें सकते में आ गए। पिता बड़ी कठिनता से बीच बचाव करा पाए।
उसी साँझ जिस लड़के के साथ वह भागी थी उसने फब्ती कशी तो बिल्कुल बीच सड़क पर उसे चप्पलों से पीट डाला।
इसके बाद साह के साथ वह कॉलेज गई, वहाँ एक नई उम्र के लेक्चरर ने उसे टोक दिया… बात कॉलेज तक पहुँच गई थी न। बस फिर क्या था। क्लास रूम में मुक्केबाजी का वह दृश्य प्रिय ने प्रस्तुत किया कि चैम्पीयन क्ले देखता तो शर्मा जाता। (पृष्ठ 20)
उपन्यास चूँकि व्यंग्य है तो इसका स्ट्रक्चर आम उपन्यासों जैसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि उपन्यास में कॉन्फ्लिक्ट नहीं है और वो सुलझते नहीं हैं पर वो आम उपन्यासों सरीखे नहीं हैं तो हो सकता है कई लोगों को यह चीज अटपटी भी लगे। उपन्यास के अधिकतर किरदारों के कुछ स्याह पहलू हैं तो कुछ सफेद भी हैं। मुख्य किरदार भी इनसे अछूते नहीं हैं। ऐसे में अगर आप ऐसे उपन्यासों को पढ़ने के शौकीन हैं जहाँ खलनायक और नायक के बीच एक अच्छा खासा फर्क होता है तो भी यह उपन्यास आपको अटपटा लग सकता है।
मैं अपनी बात करूँ तो उपन्यास मुझे पसंद आया। उपन्यास का कलेवर छोटा है तो यह झट से पढ़ भी लिया जाता है। उपन्यास में मौजूद व्यंग्य कई बार आपके चेहरे पर् मुस्कान ले आता है। वहीं उपन्यास के कई किरदार ऐसे हैं जिनमें आपको अपने परिचिरतों का अक्सर दिखता है। हाँ, जहाँ पर उपन्यास खत्म होता है वहाँ से पाँच से दस वर्ष बाद इन किरदारों का जीवन कैसा होगा ये मैं खुद को सोचने से न रोक सका। अगर लेखक होते तो मैं उनसे जरूर कहता कि वह उस समय को दर्शाता एक अन्य उपन्यास लिखें। मैं जानना चाहता था कि पाँच दस वर्ष बाद जग्गू और प्रिया के जीवन में क्या क्या परिवर्तन आए होंगे। ये देखना रोचक होता।
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वाह. अच्छी समीक्षा. ये भी जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी के शानदार उपन्यासों में से एक है
लेख आपको पसंद आया जानकर अच्छा लगा। हार्दिक आभार।