संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 224 | प्रकाशक: राजा पॉकेट बुक्स | शृंखला: मोना चौधरी
कहानी
और अब उन्होंने अपनी उस धमकी को पूरा करने का मन बनाया था जो उन्होंने जज को फैसला सुनाने से पहले दी थी।
जज जयकिशन को जबसे काली का फोन आया था तब से चिंता से वो घुले जा रहे थे।
जब अपने दोस्त कमिश्नर दीवान को उन्होंने अपनी परेशानी बताई तो दीवान भी परेशान हुए बिना न रह सका।
दीवान जानता था काली और उसके साथी इंसान के रूप में शैतान थे और ऐसे में कानूनी तरीके से जय किशन की परेशानी को मिटाना नामुमकिन था।
ऐसे में दीवान ने जयकिशन को मोना चौधरी का नाम सुझाया।
एक वही थी जो काली और उसके साथियों को खत्म कर जय किशन की परेशानी को हमेशा के लिए मिटा सकती थी।
क्या काली अपनी धमकी पूरा कर पाया?
आखिर क्यों का कानून के रक्षक जय किशन और शिखर दीवान को मोना चौधरी जैसी इश्तहारी मुजरिम के पास मदद के लिए जाना पड़ा?
क्या मोना ने उनकी मदद की?
मुख्य किरदार
जय किशन अग्रवाल – जज
विमल कुमार मोदी – इंस्पेक्टर
पारसनाथ – अपराधी जो अब रेस्त्रां चलाता था और मोना चौधरी को जानता था
काली – एक अपराधी
धर्म सिंह, जेठा और हुकूमत सिंह – काली के दोस्त
गनेशी – एक जेबकतरा जो काली के साथ जेल से फरार हुआ था
देवा ठाकुर – एक और अपराधी जो काली के साथ जेल से भागकर आया था
राम सिंह,श्याम लाल – दो पुलिस वाला
संपतलाल , राजदुलारी – एक बुजुर्ग दंपति
मेरे विचार
वैसे तो मोना चौधरी एक अपराधी है और पैसे के लिए अपहरण और हत्या जैसे अपराधों को अंजाम देने में नहीं चूकती है लेकिन उसको पैसे देकर काम करवाने वालों में केवल अपराधी ही नहीं बल्कि कानून के रक्षक भी होते हैं। मोना के कुछ ऐसे उसूल हैं जिसके चलते पुलिस और कानून के रक्षकों को उससे मदद माँगने में गुरेज नहीं होता है। ऐसा वो तब करते हैं जब उन्हें लगता है कि जिन अपराधियो से वो जूझ रहे हैं उनसे पार पाना देश के कानून के लिए मुश्किल है क्योंकि वो काफी ताकतवर हैं। प्रस्तुत उपन्यास ‘एक म्यान दो तलवारें’ भी मोना चौधरी (Mona Chaudhary) के ऐसे ही कारनामें से पाठकों को रूबरू करवाता है। उपन्यास राजा पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है।
कहानी के केंद्र में काली नाम का एक अपराधी है जो कि कैद से भागकर उस जज से बदला लेना चाहता है जिसने उसके खिलाफ साजिश की है। वह यह बदला उसकी बेटी को अगुवा कर और उसके साथ जबरदस्ती करने का फैसला करके लेते हैं और साथ में जज को खुले आम धमकी भी दे देते हैं। जज का दोस्त शेखर दीवान है और उसके कहने पर ही जज मोना के पास जाने का फैसला करता है। मोना काली के बदले से कैसे जज की बेटी को बचाती है और किस तरह से इस मुसीबत का सफाया करती है यही कहानी बनती है।
मोना चौधरी के उपन्यास कामुकता और अपने ओवर द टॉप एक्शन के लिए जाने जाते हैं। इस उपन्यास में कामुकता तो है लेकिन एक्शन बहुत ही कम है। यहाँ मोना चौधरी दिमाग और अपने आकर्षक शरीर का प्रयोग कर दुश्मनों से निपटते हुए दिखती है।
एक कहानी को रोचक बनाने के लिए कहानी में द्वंद चाहिए होते हैं और ये द्वंद यहाँ मिलते जाते हैं। कहानी की शुरुआत में मोना सोढ़ी नाम के सुपारी किलर से भिड़ती दिखती है, फिर दिल्ली एक डॉन भूपत राय, इंस्पेक्टर मोदी और फिर काली और टीम के साथ उसके छोटे और बड़े टकराव होते रहते हैं। लेकिन अधिकतर मामलों में एक्शन लड़ाई भिड़ाई न के बराबर है और दिमाग से काम अधिक लिया गया है।
हाँ कहानी आपको बांधकर रखती है।
कथानक के खलनायक काली और उसके तीन साथी जेठा, हुकूमत सिंह और धर्म सिंह हैं। इन खूँखार दर्शाया गया है। ये खूँखार हैं भी पर कहानी में इन्हें और मोना को लेकर जो तड़कता भड़कता कथानक क्लाइमैक्स रचा जा सकता था उससे लेखक बचे हैं। इन चारों में से मोना केवल दो का ही सफाया करती है और कहानी इस तरह बुनी है कि बाकी दो का सफाया कोई और करते हैं। ऐसे में उपन्यास के कथानक में तो कमी नहीं आती लेकिन मोना के फैंस के लिए यह निराशाजनक हो सकता है।
एक्शन की कमी से इतर एक और बात थी जो मुझे खटकी। मोना अपने एक शिकार को होंठों पर लगे जहर से मारती है। कथानक के अनुसार वो उस शिकार तक जहर लगाकर ही आई थी। यह थोड़ा मुझे खटका। माना मोना चौधरी में गजब का आत्मनियंत्रण होगा लेकिन बेध्यानी से होंठों पर जबान फिर सकती है। ऐसे में उसी की मौत उस जहर से हो सकती थी। अगर इधर इसकी जगह मारने से पहले उसे लिप्स्टिक टच अप करते और फिर काम होंने के बाद उसे हटाते दिखाते तो इस मामूली सम्पादन से कथानक अधिक तर्कसंगत बन सकता था। है तो ये छोटी सी बात लेकिन खटकी तो इधर लिख दी।
अनिल मोहन की एक खासियत ये भी होती है कि उनके उपन्यासों में कई बार मुख्य किरदारों से इतर दूसरे किरदार माहौल बना देते हैं। यहाँ भी ऐसे किरदार मौजूद हैं। देवा ठाकुर प्रभावित करता है, गनेशी का पता करना मुश्किल रहता है कि वो ठीक है या नहीं। कई बार वो ये दर्शाता है कि उसके अंदर कुछ नैतिकता बची लेकिन फिर आखिर में एक बार वो ऐसी चीज कह देता है कि आप सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि क्या सच में नैतिकता है? इसके अलावा इसमें एक लगभग बुजुर्ग दंपत्ति संपतलाल और राजदुलारी भी हैं। इनकी नोकझोंक चेहरे पर बरबस मुस्कान ले आती है। इनके बीच की खींचतान पढ़कर ऐसा लग रहा था कि एक उपन्यास या कहानी तो इन्हें लेकर लिखी जाती तो बड़ा मजा आता।
यहाँ पुलिस के रूप में मोदी और दीवान भी हैं। ऐसे में लेखनी से कई बार लेखक पुलिस वालों के व्यवहार पर भी रोशनी डालते हैं। किस तरह से पुलिस वाले भी अपराधियों के सामने लाचार हो सकते हैं ये भी दिखता है। वहीं कई बार कैसे पुलिस वाले अपने जाती फायदे के लिए कानून का प्रयोग या दुरोपयोग कर सकते हैं ये भी दिखता है। मोना चौधरी और मोदी के बीच का द्वंद भी इधर दिखता है। मुझे लगा था कि उसके चलते आखिर में लेखक कोई ट्विस्ट लाने की कोशिश करेंगे लेकिन ऐसा नहीं होता है।
भाषा शैली की बात करूँ तो लेखक अनिल मोहन की भाषा सीधी सरल रहती है। वह लच्छेदार भाषा का प्रयोग करने से बचते हैं। हाँ, वो लेखनी से हास्य पैदा करने में कई जगह कामयाब हो जाते हैं और एक आम बुजुर्ग जोड़े के बीच की नोकझोंक दर्शाकर किरदारों की समझ को भी दर्शाते हैं। अनिल मोहन ने न के बराबर ही सामाजिक उपन्यास लिखे हैं लेकिन कभी कभी लगता है तो अगर उन्होंने अधिक किया होता तो उसे पढ़ना भी रोचक होता।
उपन्यास का शीर्षक एक म्यान दो तलवारें है जिसका अर्थ होता है एक स्थान पर दो खतरनाक लोग नहीं रह सकते हैं। पर ये शीर्षक कहानी पर लागू नहीं होता है। शीर्षक के हिसाब से लगता है कि इधर दो तलवारें मोना और खलनायक होंगे पर ऐसा कुछ नहीं होता है। लेखक भी यह जानते इसलिए जब ये शीर्षक किरदारों से बुलवाने की बात आती है तो डायलॉग में ये शीर्षक मोना चौधरी नहीं अपितु कोई और किरदार कहता है। बदला, काली का कहर जैसे अगर इसके शीर्षक होते तो अधिक फिट होते।
अंत में यही कहूँगा कि एक म्यान दो तलवारें एक पठनीय उपन्यास है। क्लाइमैक्स थोड़ा और बेहतर जरूर हो सकता था। अगर एक आम रोमांचकथा के तरह पढ़ेंगे तो इसका लुत्फ ले सकेंगे। पर मोना चौधरी टाइप एक्शन की उम्मीद इधर लगाएँगे तो शायद निराश हों क्योंकि उस टाइप का ओवर द टॉप एक्शन इधर नदारद है।
उपन्यास के कुछ अंश
माना शराफत अच्छी चीज है लेकिन शराफत जितनी बुरी चीज भी इस दुनिया में दूसरी कोई नहीं है। हवा के रुख का हिसाब लगाकर ही शराफत और गैरशराफत के रुख का इस्तेमाल होता है। (पृष्ठ 65)
जज! हम पुलिस वाले हैं। शराफत का चोला पहन सकते हैं। लेकिन शराफत का खास इस्तेमाल नहीं कर सकते। क्योंकि ना चाहते हुए भी रिश्वत का चना जेब में डालना पड़ता है। जरूरी हो जाता है कभी कभी। (पृष्ठ 68)
“किसी के साथ जबरदस्ती हो, यह मुझे कभी भी पसंद नहीं आता। रजामंदी से तो सब चलता है।”, मोना चौधरी ने एक-एक शब्द चबाकर दरिंदगी भरे स्वर मीई कहा – “ऐसा काम करने वालों से मुझे दिली तौर पर नफरत है।…” (पृष्ठ 77)