कत्ल की आदत लेखक जितेन्द्र माथुर का पहला उपन्यास है। उपन्यास ई-बुक रूप में तो काफी वर्षों पहले प्रकाशित हो चुका था लेकिन हाल ही में वह प्रिंट रूप में सृष्टि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसी उपलक्ष्य में एक बुक जर्नल ने लेखक से बातचीत की है। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी।
प्रश्न: नमस्कार जितेन्द्र जी। सर्वप्रथम तो आपको किताब के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई। कृपया पाठकों को कत्ल की आदत की विषयवस्तु के विषय में कुछ बताएं।
उत्तर: नमस्कार और बहुत-बहुत शुक्रिया विकास जी। यह उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री है जो कि एक छोटे-से औद्योगिक कस्बे में वाक़या होती है। शुरुआत एक आदमी की मौत से होती है लेकिन एकाएक कई क़त्ल हो जाते हैं तो रहस्य गहरा जाता है। मामले की छानबीन एक बहुत कम उम्र का नौजवान सब-इंस्पेक्टर कर रहा है जिसकी यह नई-नई ही नौकरी है। कैसे वह इस उलझे हुए मामले की तह तक पहुँचता है, यही उपन्यास का मुख्य कलेवर है। हत्याओं के इस रहस्य के कैनवास पर इंसानी रिश्तों के भी अलग-अलग रंग बिखरे हुए हैं।
प्रश्न: इस उपन्यास को लिखने का ख्याल आपको कब आया? क्या कोई विशेष घटना हुई जिसने आपको उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया हो?
उत्तर: विकास जी, यूँ तो अपने कुछ ज़ाती तजुर्बात की बिना पर एक उपन्यास लिखने की बात मैंने बहुत अरसा पहले सोची थी। लेकिन ऐसा करने की वास्तविक प्रेरणा मुझे बांग्ला और अंग्रेज़ी की मूर्धन्य कवयित्री, लेखिका और समीक्षिका गीताश्री चटर्जी ने दी जो कि मेरे द्वारा अंग्रेज़ी में लिखी गई फ़िल्म समीक्षाओं एवं पुस्तक समीक्षाओं को बहुत पसंद करती थीं। और उनके द्वारा अंग्रेज़ी में लिखी गई अगाथा क्रिस्टी के उपन्यास ‘मर्डर इन मेसोपोटामिया’ की समीक्षा ने ही मुझे इस उपन्यास का शीर्षक सुझाया।
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प्रश्न: उपन्यास लेखन शोध भी माँगता है। मैं जानता हूँ कि आप अपराध कथाएँ पढ़ने के शौक़ीन हैं इसलिए तहकीकात से जुड़ी आम बातें आपको पता होंगी ही लेकिन फिर भी क्या आपको इस उपन्यास को लिखने के लिए कोई शोध करना पड़ा? अगर हाँ तो उसके विषय में पाठकों को बतायें।
उत्तर: जी नहीं विकास जी। मेरे अपने जीवन के अनुभव तथा वर्षों तक किया गया विविध प्रकार के हिंदी-अंग्रेज़ी साहित्य का पठन ही मेरे लिए शोध-स्वरूप रहे। मेरे प्रिय लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक कहते हैं कि लेखक की निगाह बड़ी पैनी और नज़रिया बड़ा वसीह होना चाहिए क्योंकि हर इंसान अपने आप में दिलचस्प होता है, स्टडी किए जाने के लायक़ होता है। समझिए कि यही मेरे लिए एक सूत्र-वाक्य रहा और कुछ असली ज़िन्दगी के किरदार ही मेरे इस उपन्यास के भी किरदार बन गए। पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली को मैं ठीक से नहीं जानता, इसीलिए उपन्यास के पहले मसौदे यानी कि ओरिजिनल ड्राफ़्ट में पाठक साहब ने जो कमियाँ निकाली थीं और जो सुझाव दिए थे, उनके अनुरूप यथासंभव मैंने उसमें सुधार किए।
प्रश्न: कहते हैं लेखकों के शुरुआती उपन्यासों में उनके जीवन का काफी हिस्सा झलकता है। क्या कत्ल की आदत के साथ भी ऐसा ही है? उपन्यास का कौन सा हिस्सा आपके जीवन से मेल खाता है?
उत्तर: जी हाँ। उपन्यास का एक मुख्य पात्र मेरे ही व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब है, मेरी काउंटर-ईगो है। जैसा मैं स्वयं हूँ, वैसा ही वह भी है। साथ ही, उपन्यास का मूल कथानक एवं परिवेश मेरे निजी अनुभवों पर ही आधारित हैं। बिमल मित्र की कालजयी कृति ‘आसामी हाज़िर’ तथा सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास ‘ख़ाली मकान’ जैसे कथानकों से पता चलता है कि हत्यारा कोई बुरा व्यक्ति ही हो, यह आवश्यक नहीं। एक सद्गुणी एवं पावन-हृदय व्यक्ति भी किसी की हत्या कर सकता है। हर किसी की दुख-तक़लीफ़ से पिघलकर उसकी मदद करने पर आमादा हो जाने वाला इंसान भी किसी का क़ातिल हो सकता है लेकिन सिर्फ़ इसी से वह बुरा नहीं हो जाता। इससे उसके भीतर की अच्छाई ख़त्म नहीं होती। मेरे ये ख़यालात मेरे इस उपन्यास में भी आ गए हैं।
प्रश्न: जितेन्द्र जी आपका यह उपन्यास ई बुक के रूप में 2015-16 के बीच या उससे पहले प्रकाशित हो गया था। अब लगभग पाँच साल बाद इसका प्रिंट रूप आ रहा है। क्या इस नये संस्करण में कुछ संशोधन हुआ है?इतने वर्षों के उपरान्त आपने कहानी को देखा तो कैसा अनुभव आपको हुआ?
उत्तर: इस अंतराल में समय-समय पर मैंने उपन्यास को पढ़कर उसकी त्रुटियाँ सुधारीं। उपन्यास के कथ्य में अलबत्ता किसी परिवर्तन की नौबत नहीं आई। पहले भी तथा अब इसके काग़ज़ पर प्रकाशित होने के समय भी मुझे यही लगा कि बेहतर लिखने और अपनी कमियों को पहचानने के लिए लेखक को समय मिलने पर अपनी ही कृति को एक पाठक के रूप में अवश्य पढ़ना चाहिए। मित्र एवं प्रशंसक तो लेखक को चने के झाड़ पर चढ़ा सकते हैं, उनकी चाशनी में डूबी बातों को सच मानकर बैठ जाने से सुधार की संभावना नहीं रहती। इसके अतिरिक्त मुझे यही लगा कि यदि मुझे पुनः लिखना है तो इसी उपन्यास की तरह मौलिक ही लिखना चाहिए चाहे इसमें मुझे कितना ही समय क्यों न लग जाए।
प्रश्न: उपन्यास का कौन सा ऐसा किरदार है जिसे लिखते वक्त आपको बहुत मजा आया? और उपन्यास के किसी ऐसे किरदार के विषय में बतायें जिसे लिखना आपको मुश्किल लगा हो और यह मुश्किलात क्या थी?
उत्तर: शेरू नामक किरदार को लिखते समय मुझे बहुत मज़ा आया। मैंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत-से शराबी देखे हैं जो सस्ती शराब पीकर बहक जाते हैं। उसी से मुझे इस किरदार का ख़याल आया और मैंने बड़े मन से इसे रचा। मुश्किल तो मुझे किसी भी किरदार को रचने में पेश नहीं आई।
प्रश्न: जितेन्द्र जी, क्या आप किसी और प्रोजेक्ट पर अभी कार्य रहे हैं? क्या पाठको को उनके विषय में बतायेंगे?
उत्तर: विकास जी, कथा-साहित्य के क्षेत्र में मौलिक लेखन बड़ा कठिन और श्रमसाध्य कार्य है, विशेषतः रहस्यकथाओं के संदर्भ में। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दो बार तो मैंने उपन्यास का कथानक सोचकर उसे काग़ज़ पर उतारने से पहले ही त्याग दिया क्योंकि मुझे लगा कि वह विवाद उत्पन्न कर सकता था। और इस वर्ष जब तीसरी बार एक नया कथानक लेकर नया उपन्यास लिखना आरम्भ भी कर दिया तो दो अध्याय लिखने के उपरांत ही उसे लिखना बंद कर दिया क्योंकि मुझे लगा कि बात कुछ बन नहीं पा रही थी और एक मनोरंजक उपन्यास लिखने में मैं सफल नहीं हो पा रहा था। उसके बाद चौथी बार भी एक उपन्यास का आइडिया तो आया पर नौकरीपेशा होने, पारिवारिक जीवन अस्त-व्यस्त होने एवं निजी उलझनों के चलते उस पर कोई ठोस काम नहीं हो सका। मैं कारोबारी लेखक नहीं। मेरी रोज़ी-रोटी तो नौकरी से ही चलती है। यह उपन्यास मैंने पैशन के चलते लिख डाला था। तिस पर भी इसे मुक़म्मल होने में डेढ़ साल लग गया था। किसी ज़माने में मैंने कुछ हिंदी नाटक भी पैशन के चलते ही लिख डाले थे। अब वैसा पैशन मैं अपने भीतर पैदा नहीं कर पा रहा। फिर भी मेरी ख़्वाहिश है कि कम-से-कम एक उपन्यास मैं और लिखूँ। देखिए, पूरी होती है या नहीं।
प्रश्न: अंत में जितेन्द्र जी क्या आप पाठकों से कुछ कहना चाहेंगे?
उत्तर: विकास जी, मैं साहित्य-प्रेमी पाठकों से यही कहना चाहता हूँ कि साहित्य अपने समय के जीवन और समाज का दर्पण होता है। जैसा समाज होता है, वैसा ही साहित्य लिखा जाने लगता है। यह भ्रम है कि साहित्य से समाज बदल सकता है, वास्तव में समाज के बदलाव के साथ-साथ उसके अनुरूप ही साहित्य भी बदलता है। अच्छा साहित्य चाहिए तो अच्छा समाज बनाना होगा। दूसरी बात यह कि किसी भी इंसान के बारे में धारणा बनाने में जल्दी नहीं करनी चाहिए। इंसानी शख़्सियत जटिल होती है, उलझी हुई होती है, उसकी कई परतें होती हैं जिनमें से कुछ तो हो सकता है कि कभी खुलें ही नहीं। इसलिए किसी पर भी अच्छे या बुरे का बिल्ला लगाने में जल्दबाज़ी न करना ही ठीक होता है। इतनी सारी मर्डर मिस्ट्री इसीलिए वजूद में आती हैं क्योंकि असल ज़िंदगी के लोग न काले होते हैं, न सफ़ेद; वे सलेटी होते हैं।
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तो यह थी लेखक जितेन्द्र माथुर के साथ हमारी बातचीत। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आई होगी। बातचीत के विषय में अपनी राय से हमें जरूर वाकिफ करवाईयेगा।
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बहुत रोचक साक्षात्कार विकास जी और जितेन्द्र जी!
जितेन्द्र जी आपके प्रथम उपन्यास प्रकाशन पर बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं ।
साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा मैम।
बहुत बढ़िया जितेंद्रजी, बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
आभार जिज्ञासा जी। लेकिन इस साक्षात्कार के लिए आप विकास जी का धन्यवाद कीजिए क्योंकि इसका श्रेय तो इन्हीं को है।
हार्दिक आभार मैम
बहुत रोचक साक्षात्कार। जितेंद्र भाई को प्रथम उपन्यास की बहुत बहुत बधाई।
साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा मैम। हार्दिक आभार।
बहुत रोचक साक्षात्कार नैनवाल जी!
जितेन्द्र जी को उनके प्रथम उपन्यास प्रकाशन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा, मैम…