किताब नवम्बर 9 2020 से नवम्बर 12 2020 के बीच में पढ़ी गयी
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 205 | प्रकाशक: सूरज पॉकेट बुक्स | आईएसबीएन: 9788193584514
एक्सीडेंट- एक रहस्य कथा – अनुराग कुमार जीनियस |
पहला वाक्य:
रात के दस बजे थे।
कहानी:
भानुप्रताप राजनगर के प्रतिष्ठित व्यापारी थे। जब उन्हें पुलिस ने उन्हें उनके छोटे बेटे ऋषभ की दुर्घटना में मृत्यु की खबर सुनाई तो उनके पाँव के नीचे से जमीन ही खिसक गयी। दुःख के कारण मानो पूरा परिवार ही टूटकर बिखर गया।
लेकिन फिर करिश्मा हुआ और ऋषभ जिंदा वापस लौट आया। उसके आने से परिवार में ख़ुशी के लहर तो आई लेकिन फिर जैसे जैसे यह नया ऋषभ उधर रहने लगा वैसे वैसे परिवार के सदस्यों को दाल में काला लगने लगा। उन्हें यकीन होता चला गया कि उनके घर में कोई बहरूपिया ऋषभ का रूप धरकर आया है।
आखिर भानुप्रताप और उनके अन्य परिवार के सदस्यों को इस नये ऋषभ पर शक क्यों हुआ?
क्या यह नया ऋषभ सच में कोई बहरूपिया था? अगर हाँ, तो यह भानुप्रताप के परिवार से क्या चाहता था?
क्या ऋषभ की पहचान की यह गुत्थी सुलझ पाई?
आलोक – भानुप्रताप का बड़ा बेटा
ऋषभ – भानुप्रताप का छोटा बेटा
दुर्गेश – पुलिस इंस्पेक्टर
मंगलू – थ्री स्टार का वेटर
चांदनी – थ्री स्टार का मैनेजर
नागेश – एक व्यक्ति
उर्वशी – एक युवती
मेनका – उर्वशी की बहन
लाली – आलोक की पत्नी
मेरे विचार:
एक्सीडेंट एक रहस्यकथा जैसे की नाम से जाहिर होता है एक मिस्ट्री अर्थात रहस्य उपन्यास है। उपन्यास के केंद्र में राजनगर में रहने वाला एक परिवार है जिसके सदस्यों के इर्द गिर्द इस उपन्यास का कथानक बुना गया है।
कथानक की शरूआत एक युवती की कार दुर्घटना से होती है जिससे पाठक को यह बता दिया जाता है कि राजनगर के इस पुल में आत्माओं का साया जिसके कारण कई दुर्घटनायें उधर हुई है।
इसके बाद कथानक राजनगर में रहने वाले व्यापारी भानुप्रताप के परिवार की तरफ मुड़ जाता है।
इस परिवार के सदस्य ऋषभ के साथ कुछ ऐसा हो जाता है कि उसके परिवार के बाकि सदस्यों को लगने लगता है कि वह उनका अपना ऋषभ नहीं बल्कि कोई बहरूपिया है। उपन्यास का मूल कथानक इसी रहस्य को सुलझाने के इर्द गिर्द घूमता है कि आखिर ऋषभ कौन है: असल ऋषभ या कोई बहरूपिया? पाठक इसी बात का उत्तर पाने के लिए उपन्यास पढ़ता चला जाता है।
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए कहानी में इंस्पेक्टर दुर्गेश आता है जो कि एक काइयां और औरतखोरा पुलिस वाला है। वह एक ग्रे शेड का किरदार है जो कि तहकीकात तो ढंग से करता है लेकिन जिसका चरित्र ऐसा है कि उसे नायक कहें या खलनायक यह कहना मुश्किल होता है। वैसे यह बात उपन्यास के ज्यादातर चरित्रों के लिए कही जा सकती है।
इसके बाद कथानक में कई और किरदार जुड़ते हैं जिनके कारण कथानक कैसे पहले उलझता है और बाद में उलझ कर सुलझता है यह देखना रोचक रहता है।
उपन्यास में एक मुख्य प्लाट ऋषभ की पहचान है और इसके आलावा कई अन्य छोटे छोटे प्लाट जैसे पुल की आत्माओं का रहस्य, इंस्पेक्टर दुर्गेश का औरतों को फंसाने का चक्कर, ब्लैकमेलर का चक्कर, तांत्रिक अघोरिनाथ का चक्कर इत्यादि हैं जिसे कि अंत में ले जाकर जोड़ दिया जाता है। जब आप पढ़ते रहते हैं तो आपको लगता है कि कथानक मूल उद्देश्य से भटक रहा है लेकिन अंत में जब लेखक इन्हें एक साथ जोड़ देता है तो पाठक के रूप में आपको थोड़ा संतुष्टि मिलती है।
उपन्यास रहस्यकथा जरूर है लेकिन इसमें कोई एक डिटेक्टिव नहीं है जो कि रहस्यों का पता लगा रहा है। दुर्गेश कुछ हद तक पुलिस वाला होने के चलते तहकीकात करता है परन्तु बाकी सब राज को किसी तहकीकात के जरिये नहीं खोला गया है। यही मुझे उपन्यास की कमी भी लगती है। उपन्यास में मौजूद जो घुन्डियाँ हैं उनके राज पाठक को उन किरदारों के मुख से सुनाये देते हैं जो कि उस रहस्य में शामिल होते हैं। यह चीज असामन्य लगती है। आप यही सोचते हो कि ये लोग तो इतने वक्त तक साथ ही में थे। योजना भी साथ में बनाई थी। फिर अब पूरी योजना के खत्म होने के पश्चात क्यों इतनी तफसील से इस पर बात कर रहे है। यह चीज अटपटी भी लगती है और थोड़ा बोर भी करती है। आप जानते हैं कि लेखक को यह इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि उसके पास पाठक के समक्ष रस्योद्घाटन करने का कोई और जरिया नहीं था लेकिन यही उपन्यास के स्ट्रक्चर की कमजोरी भी है।
कहानी के अंत के निकट कई चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें देखकर लगता है जादूगर हवा से कुछ निकाल रहा हो। कई नये किरदार आ जाते हैं। कई पुराने मामले खुल जाते हैं। कुछ किरदार जेल की सजा पाए भी मिल जाते हैं। जिन चीजों का जिक्र शुरुआत में नहीं है उनका जिक्र बाद में ऐसे होता है कि आप सोचते हैं कि जिस के साथ इसका जिक्र किया जा रहा है वो व्यक्ति बेवकूफ तो नहीं है। उदाहरण के लिए अगर मैं पुलिसवाला हूँ और मुझे पता लगता है कि कोई बहरूपिया किसी परिवार को परेशान कर रहा है तो सबसे पहले परिवार का इतिहास ही जानूंगा। कितने सदस्य हैं? उनके आपस में क्या रिश्ते हैं? उनके दुश्मन कौन हैं? यह सब बातें जानूँगा और फिर चीजो को आगे बढ़ाऊँगा। हो सकता है परिवार वाले इस चीज को न साझा करना चाहें लेकिन अगर परिवार रसूख वाला है, जैसे कि इसमें था, तो छोटी मोटी तहकीकात से ही चीजें उजागर हो जाती हैं। कोर्ट के मामले तो हो ही जाते हैं।
लेकिन इधर ये बातें काफी बाद में कहानी में अचानक ही लाई जाती हैं। ऐसा लगता है जैसे लेखक कहीं पर फँसा हो और उसने किरदार का अविष्कार उधर ही कर लिया हो। यह चीज असंतुष्टि पैदा करती है।
कहानी के अंत में कई ट्विस्टस भी हैं लेकिन वह सब ऐसे है कि लगता है लेखक ने खड़े पैर ईजाद किये हैं। किरदारों के चरित्रों और आपसी समीकरणों में अचानक से ही एक बदलाव लाया गया है। चूँकि ये चीजें खड़े पैर इजाद किये हैं तो थोड़ा रोमांचक लगते है लेकिन फिर एक के बाद आते ऐसे ट्विस्ट बोर करने लगते हैं। फिर जिस तरह से ट्विस्ट लाये गये हैं वह भी थोड़ा कमजोर लगता है। इधर इतना ही कहूँगा कि एक हमशक्ल ढूँढना मुश्किल होता है लेकिन फिर दो व्यक्तियों के ऐसे हमशक्ल ढूँढना जो कि अपराध करने को भी तैयार हो जाए तो नामुमकिन सरीखा ही होगा। असल जिंदगी में हो तो हो लेकिन गल्प में पचाना थोड़ा मुश्किल होगा।
अच्छी रहस्यकथा वह होती है जिसमें लेखक बीच बीच में कुछ ऐसी बातें क्लूस के रूप में छोड़ देता है जो कि बाद में कथानक का रहस्य खोलने के मामले में काम आती हैं। उदाहरण के लिए कोई किरदार अगर जैसा खुद को दिखा रहा है वैसा नहीं है तो वहाँ भी कोई न कोई साधारण सा क्लू छोड़ा जाता है जिसका सन्दर्भ आखिर में दिया जाता है। इससे कथानक में एक तरह की पूर्णता आती है और कथानक सशक्त लगता है। कथानक के अंत में अचानक से किरदार बदलना या ऐसे नये किरदार या समीकरण निकालना वो प्रभाव पैदा नहीं कर पाता है। एक तरह की असंतुष्टि पाठक के मन में रहती है। यही इधर भी होता है।
इसके अलावा उपन्यास में कई जगह वर्तनी की गलतियाँ हैं और कई जगह किरदार और शब्द बदल गये हैं। जैसे नितम्ब और जांघ का एक जगह घाल मेल किया गया है। डॉक्टर हुसैन अली आगे जाकर डॉक्टर जुनैद अली हो जाता है। यह बातें भी पढ़ते हुए थोड़ी खटकती हैं।
अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास का सब्जेक्ट अच्छा है। उपन्यास के अंत में लाये गये ट्विस्टस भी अच्छे हैं लेकिन उपन्यास के स्ट्रक्चर के चलते और कई जगह लेखक के आसान रास्ता चुनने के चलते कथानक थोड़ा कमजोर हो जाता है। यह उपन्यास अभी जैसा है उससे बहुत बेहतर बन सकता था।
उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है।
रेटिंग: 2/5
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।
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© विकास नैनवाल ‘अंजान’
ये हमशक्ल वाली कहानियाँ मुझे हमेशा से ही जटिल लगी है।
और लेखक अक्सर जरूरी बातें नज़रअंदाज़ कर देते है जैसे DNA और फिंगरप्रिंट।
हमशक्लो का बस चेहरा मिलता है, DNA और फिंगरप्रिंट नही।
मुझे नही पता कि इस कहानी मे इन बातों की तरफ इशारा किया गया है या नही?
जी….पहले चल जाती थीं….क्योंकि उस वक्त डीएनए और फिंगर प्रिंट देखने का कोई जरिया नहीं था….आजकल ऐसी कहानी बुनना काफी जटिल होगा…लेकिन कल्पनाशक्ति अच्छी हो तो बनाई जा सकती है….