परिचय:
सुरभि सिंघल |
नाम से ही सुरभि हूँ अर्थात लेखन जगत में खुशबू बिखेरने के लिए तत्पर हूँ। केमिकल खून में घुला है क्योंकि फार्मास्यूटिकल केमिस्ट्री की पढ़ाई की है। प्रयोगशाला की तरह ही हिंदी साहित्य को देखती हूँ इसलिए हर ज़ोन को पढ़ती हूँ और हर तरह का लिखना चाहती हूँ। कोशिश यही है कि हिंदी साहित्य को देश दुनिया में उसका मुकाम मिले जिसका माध्यम अगर बन पाऊँ तो जीवन सफल हो जाएगा।
खूबसूरती से आकर्षित होती हूँ फिर चाहे वो इन्सान के मन की हो या फिर नजारों की। सभी को कैद कर लेना मेरा पहला शौक है। साथ ही लेखन के अलावा घूमना फिरना और अलग अलग संस्कृतियों की खोज बीन में डूब जाना मेरा जूनून है।
मेरी पसंदीदा किताबों में “मृत्युंजय”, “मुझे चाँद चाहिए”, ”घेरे के बाहर”, “राग दरबारी” व “यही सच है” मुख्य हैं इसके अलावा लिस्ट लम्बी है। सुबह उठकर जब तक गाने न सुन लूँ दिन नहीं शुरू करती हूँ। गाने सभी तरह के सुनती हूँ जो मुझे तरोताजा कर सकें।
सुरभि जी की निम्न किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।
(किताबों को ऊपर दिए गये लिंक्स पर जाकर खरीद सकते हैं)
सुरभि जी से निम्न तरीकों से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है:
ईमेल: authorsurbhisinghal@gmail.com
एक बुक जर्नल की साक्षात्कार श्रृंखला के अंतर्गत आज हम आपके समक्ष सुरभि सिंघल जी से हुई बातचीत प्रस्तुत कर रहे हैं। सुरभि जी के अब तक दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं और तीसरा उपन्यास प्रकाशन के लिए तैयार है। इस बातचीत में हमने उनसे उनके लेखन, जीवन और एक का दूसरे पर प्रभाव के ऊपर बातचीत की है। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी।
प्रश्न: सुरभि जी अपने विषय में बताएं। आप कहाँ की रहने वाली हैं? फ़िलहाल आप किधर रह रही हैं? आपकी शिक्षा दीक्षा कहाँ से हुई?
उत्तर: मेरा जन्म 9 फरवरी 1994 को उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में हुआ। पारिवारिक प्रष्ठभूमि के चलते किताबों का शौक बचपन से ही रहा। मेरे दादाजी को वेद उपनिषद पढ़ने में सदैव से रूचि रही है। जब भी वो पढ़ते थे हम भाई बहन उन्हें सुनते थे। आज भी उसी के चलते हिंदी साहित्य का संचार अपनी रगों में महसूस करती हूँ। अमरोहा जिले के एक कस्बे धनौरा में बचपन बीता व इंटरमीडिएट वहीं से उत्तीर्ण किया जिसके बाद ग्रेजुएशन हरियाणा से व पोस्ट ग्रेजुएशन फार्माकेमिस्ट्री में देहरादून से किया है। अब स्थायी रूप से देहरादून की वादियों में ही हूँ। वर्तमान में देहरादून में ही शिक्षण का कार्य कर रही हूँ।
प्रश्न: साहित्य से आपका जुड़ाव कब हुआ? वह कौन से रचनाकार और किताबें हैं जिन्होंने आपके मन में साहित्य के प्रति अनुराग जगाया?
उत्तर: साहित्यिक माहौल हमेशा से ही घर में मिला लिहाज़ा उसे जानने पढ़ने की इच्छा बचपन से ही थी। बचपन में सिलेबस की पुस्तको के अलावा भी लाइब्रेरी कार्ड से दो पुस्तके ली जा सकती थीं जिनकी सहायता से भारतीय साहित्य जगत की नामचीन हस्तियों के बारे में जानने का मौका मिला। उनके लेखन को पढ़कर समझा कैसे उन्होंने लिखना शुरू किया ! तब लगता था इन्होने यह सब कैसे किया होगा लेकिन अब मन में आश्चर्य का स्थान निष्ठा ने ले लिया है। समकालीन लेखिकाओ में चित्रा मुद्गल जी को पसंद करती हूँ, इनके अलावा पढ़ती सभी को हूँ। पसंदीदा का चयन हमेशा से मुश्किल रहा है। मन्नू भंडारी और धर्मवीर भारती जी की लेखनी की कायल हूँ। “यही सच है” से मन्नू भंडारी जी को लेकर उत्सुकता हुई और लगा कि लेखन का मतलब बस सच ही है बाकी सब मिथ्या है।
प्रश्न: सुरभि जी आपके लेखन की शुरुआत कब और कैसे हुई? सबसे पहले आपने क्या लिखा था? क्या आपको कुछ याद है?
उत्तर: (हँसते हुए) इसका जवाब देने से पहले बहुत हँसने को जी चाहता है। मुझे याद है मैंने सबसे पहले कक्षा 3 में “मेरे विचार” नाम से भगवान को एक चिटठी लिखी थी जिसमे मैंने उनसे अपने परिवार को लेकर काफी गहरी बातें की थी, अपने भाई से दुश्मनी को लेकर चर्चा की थी जिसे पढ़कर मेरे पिता गुस्सा व खुश दोनों हुए थे। उसके बाद से कविता, कहानियाँ लिखने का सिलसिला लगा रहा जिन्हें मैं स्कूल की पत्रिका में देती रहती थी।
प्रश्न: कहा जाता है लिखना आसान है, लेकिन उस लिखे हुए को प्रकाशित करवाना मुश्किल है। आप इसे कैसे देखती हैं? क्या आप पाठकों से अपनी पहली किताब के प्रकाशन का अनुभव साझा कर सकती हैं?
उत्तर: पहली किताब फीवर 104ᵒF थी। कोई भी जिसकी पहली किताब आनी हो उसका उत्साह वही जान सकता है। जाहिर है मैं भी बहुत उत्साहित थी, यह मेरे लिए मेरे द्वारा सींचा गया पहला पौधा था जिसकी साँसें मेरे लिए मेरे बच्चे जितनी जरूरी थी। उस वक्त उसका प्रकाशन हो जाना ही मेरे लिए सब कुछ था। ना मुझे प्रकाशको को लेकर अधिक जानकारी थी न उनके बिछाये गये बाज़ार को लेकर। मेरे उतावलेपन ने मुझे जानकारी लेने ही नहीं दी। गूगल पर हिन्दयुग्म को देखा तो प्रकाशक से बात की और बिना वक्त लगाये सेल्फ पब्लिशिंग में किताब दे दी। तब मैं किसी को नहीं जानती थी। न किसी लेखक को और न ही किसी दूसरे प्रकाशक को। इसे लेकर आज बहुत कुछ सोचती हूँ। धैर्य जो तब इसके प्रकाशन को लेकर नहीं था। खैर ! नियति ने इसके लिए जो तय किया वह इसे मिला। लेखन के प्रकाशन को लेकर सिर्फ इतना कहूँगी कि लेखन आपके हाथ में होता है, उसके ऊपर आपका अधिकार होता है लेकिन प्रकाशन होने के बाद वह आपका नहीं रह जाता। आपके अलावा सभी का हो जाता है।
प्रश्न: सुरभि जी ऐसी कौन सी चीजें हैं जो आपको लिखने के लिए प्रेरित करती हैं। मसलन, आपको अपनी पहली पुस्तक फीवर 104°F को लिखने का विचार कैसे आया?
उत्तर: मेरे पास विचारो का झंझावात होता था। अभी भी होता है। अक्सर हमारे पास हमारे हिस्से का पागलपन होता है। हमारे मन में आने वाली अजीबोगरीब बातें जिन्हें आप किसी से साझा करना चाहेंगे तो शायद वह सुनेगा नहीं और यदि सुनेगा भी तो उसे आपके दिमाग में एक दो प्रतिशत कमी का अहसास होगा। मेरे पास ऐसा बहुत कुछ था भी और है भी जिसे मैं कहना चाहती हूँ लेकिन कह नहीं पाती। बस अपने जूनून को लिख डालती हूँ। दिल से लिखा दिलो तक पहुँच जाता है। पहली किताब लिखने का ख्याल तब मुझे आया जब एक मित्र को मेरी बाते सुनने का मन नहीं किया और उसने कहा लिख डालो। तुम्हारे पास इतनी बाते होती हैं कि किताब बन सकती है। बस, तभी से लिखना शुरू कर दिया। कभी नहीं सोचा था यहाँ तक आऊँगी। अब लगता है मेरी सही दुनिया यही है। बाकी सब तो सिर्फ जिम्मेदारी हैं जिनका निर्वहन करना है।
प्रश्न: सुरभि जी मेरे ख्याल से एक लेखक हमेशा रचनाकार्य में लिप्त रहता है। तो आजकल आप क्या लिख रही हैं? क्या आप पाठको को उसके विषय में कुछ बताना चाहेंगी?
उत्तर: तीसरा उपन्यास पूरा हो चुका है जिसके लिए प्रकाशक की खोज में हूँ। आजकल खोजने की प्रवत्ति से ग्रसित हूँ इसलिए कुछ आसानी से समझ नहीं आता। कई बार प्रकाशक को मैं समझ नहीं आती, कभी मुझे वो। इसी अटका अटकी में एक कहानी संग्रह भी पूरा होने को है। इन दोनों की नियति इन्हें जहाँ ले जाएगी उनका माध्यम भी मैं बन जाऊँगी। दोनों ही किताबों के विषय आजकल पसंद किये जाने वाले हैं। यह उपन्यास एक अनछुआ विषय है जिसपर हिंदी लेखको ने मेरी जानकारी में तो आज तक हाथ ही नहीं डाला है ( जितना मेरी जानकारी में है )। मुझे हैरानी होती है अभी तक इस विषय को छुआ क्यों नहीं गया। हमारे हिंदी साहित्य जगत में आविष्कारो की भरमार है तब भी। इसका प्रकाशन एक रोचकता लेकर आएगा यह विश्वास के साथ कह सकती हूँ।
प्रश्न: सुरभि जी हिन्दी में पाठकों की कमी एक ऐसा विषय है जिससे हम सब वाकिफ हैं। आप इसे किस तरह से देखती हैं?
उत्तर: अंग्रेजी भाषा ने जब तक भारत में पकड़ नहीं बनाई थी तब तक ऐसा नहीं था। मैं खुद एक शिक्षिका हूँ और जितना मैं देखती हूँ हिंदी पढने वालो की मात्रा दिन ब दिन घटती ही देखती हूँ। आजकल बच्चों को न सिर्फ हिंदी से दूरी रखना भाता है बल्कि अंग्रेजी भाषा का प्रयोग एक स्टेटस सिंबल भी बनता जा रहा है जिसमें दिखावा करना फैशन सा हो गया है। ऐसे में हिंदी पाठक बहुत सिमट गया है। जो है उस तक किताबों की जानकारी पहुंचा पाना एक बड़े मार्केटिंग प्लान का हिस्सा हो गया है जिसे व्यय करने में हिंदी लेखक असमर्थ है। किताब का सभी पाठको तक पहुँचना हो जाए तो हिंदी लेखन में यह एक नई क्रांति ला सकता है। इसके लिए पाठकों का सामने आना भी जरूरी है, उन्हें सबके सामने हिंदी बोलने पढने में झिझक बंद करनी चाहिए व समाज को भी अपनी मातृभाषा को लेकर सजग होना आवश्यक है।
प्रश्न: सुरभि जी आप सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहती हैं। ज्यादातर साहित्यकारों को सोशल मीडिया पर मौजूद रहना भी पड़ता है। इसके क्या सकारात्मक और नकारात्मक पहलु हैं? आप इसे कैसे देखती हैं?
उत्तर: दरअसल सोशल मीडिया पर रहना लेखक की आत्ममुग्धता के लिए भी है और उसकी मजबूरी भी। सोशल मीडिया ही एकमात्र ऐसा साधन है जिसे दुनिया के किसी भी कोने में मौजूद होने पर भी जुड़ा रहा जा सकता है व मिला जा सकता है। साथ ही विचारों के आदान प्रदान के लिए भी यह एक सस्ता, टिकाऊ व सामाजिक माध्यम है। इससे लेखक अपने पाठक वर्ग से जुड़ पा रहे हैं यही इसका सबसे सकारात्मक पहलू है। इसका नकारात्मक पहलू ये है कि हर कोई सोशल मीडिया पर लिखे को आपकी निजी जिन्दगी से जोड़कर आपके ऊपर हावी होने की नाकाम कोशिश कर सकता है जिससे परेशानी होती है।
प्रश्न: लेखन एक एकाकी काम है। मैंने जब मनमोहन भाटिया जी से इस विषय में पूछा था तो उन्होंने भी माना था कि लेखन और परिवार की जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाना कठिन होता है। वहीं भारतीय परिवार आज भी ऐसे बने हैं जहाँ पूरा परिवार नारी के इर्द गिर्द ही घूमता है। ऐसे में एक स्त्री के मुकाबले एक पुरुष के लिए लेखन करना फिर भी ज्यादा आसान हो सकता है। आप इस बारे में क्या सोचती हैं? आप यह संतुलन किस तरह से बनाती हैं?
उत्तर: एक लेखिका होने के साथ साथ मैं एक संयुक्त परिवार की बहू और एक माँ भी हूँ जो वाकई एक चुनौती है मेरे लिए। मुश्किल होता है जब आप लेखन करने बैठें और आपका बच्चा सूसू कर दे या फिर आपके पति को किसी कार्य के लिए आपको बुलाना हो या फिर आपकी सास के खाने का वक्त हो रहा हो। आपके ख्यालों की खिचड़ी का प्रेशर कुकर बन जाता है और कहानी उलट पुलट हो जाती है। बुरा भी लगता है जब आप ऐसी अनेकों वजहों के चलते पुस्तक मेले में नहीं जा पाते और अपने पसंदीदा लेखक वर्ग व अपने पाठकों से नहीं मिल पाते।
इसको लेकर मैं सदैव से संतुलन बनाने की कोशिश में हर रोज लगी रहती हूँ। बच्चे के सोने के वक्त सारे काम छोड़कर लिखने बैठती हूँ। उसके उठने के बाद गोद में उठाकर अक्सर घर के जरूरी काम खत्म करती हूँ। रात को सबके सोने के बाद अपनी नींद छोडकर कुछ समय अपनी असल जिन्दगी को देती हूँ। हालाँकि परिवार भी साथ देता है और दिन में थोडा बहुत समय इसके लिए मिल जाता है।
प्रश्न: लेखन के चलते कई बार लोग (इसमें परिवार के लोग और पाठक दोनों शामिल हैं) लेखिका/लेखक के प्रति पूर्वाग्रह पाल लेते हैं और फिर उसी तरह उससे व्यवहार करते हैं। यह पूर्वाग्रह सकारात्मक भी हो सकते हैं और नकारात्मक भी। कई बार इसके चलते व्यक्तिगत जिंदगी पर भी असर पड़ता है। इस पर आपके क्या विचार हैं? क्या इसके कारण आपकी लेखनी पर भी असर पड़ता है?
उत्तर: शादी के लिए पहली बार जब शुभम (मेरे पति) से मिली तो वो मुझसे प्रभावित थे। मैं इसके पहले भी कुछ परिवारों से बात कर चुकी थी जिनमें से मुझे ऐसा भी एक परिवार मिला जिन्हें मेरे लेखिका होने से खासी दिक्कत थी। उनका कहना था कि इसके चलते हो सकता है मैं घर की बातें सोशल मीडिया पर करने लगूँ या फिर लड़ाकू किस्म की होऊँ। सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं लिखना पसंद करती हूँ उन्हें लगा मैं अपने अधिकारों के लिए उनसे भविष्य में लडूंगी। मुझे उनकी सोच पर उस वक्त तरस आया था और मैंने कहा था अच्छा किया आपने यह बात सामने से कही, मुझे आपके परिवार में ना आने की ख़ुशी हमेशा रहेगी। ये बातें बाद में सामने आती तो शायद बहुत समस्या होती।
जब शुभम व उनके परिवार से मिली तो सभी ने ना सिर्फ मेरी तारीफ की बल्कि यह भी कहा कि उन्हें गर्व है क्योंकि मैं उनके परिवार में आने वाली ऐसी पहली बहू हूँ जो लेखन में है। बस उसी वक्त से यह रिश्ता जुड़ गया और प्रभु कृपा से फल फूल रहा है। हाँ, जिम्मेदारियों के चलते अक्सर मुझे इससे समझौता करना पड़ता है जो मेरे लिए निराशाजनक होता है लेकिन यह कुछ ही वक्त के लिए होता है।
प्रश्न: आजकल लॉकडाउन के चलते हम लोग काफी दिनों से घरों में बंद हैं। इस दौरान हमने काफी कुछ सीखा , काफी चीजें देखा है और काफी देख रहे हैं। आप इस समय को कैसे देखती हैं?
उत्तर: मेरे लिए यह एक सुखद अवसर रहा। मैंने जी भरकर अपना समय जिया और लेखन किया। इस समय किस्मत से मैं मायके में थी तो वहाँ वक्त और अधिक मिला। मेरा उपन्यास मैंने लॉकडाउन के दौरान ही पूरा किया। इसीलिए यह मेरे लिए मौका था। मैं तो इसका धन्यवाद करती हूँ। हाँ, आर्थिक स्थिति पर इससे थोड़ा असर हुआ है लेकिन हमें ज़िंदगी बचाने पर ध्यान देना चाहिए, कमाने के लिए तो उम्र पड़ी है। इस समय उन अपनों से भी बातें हुई जिनके लिए व्यस्त जीवन के चलते कभी समय ही नहीं मिल पाता था। इस मुश्किल समय ने परिवारों को जोड़ा भी है।
प्रश्न: सुरभि जी बातों का सिलसिला तो कभी खत्म नहीं होता है लेकिन रुकना तो नियति है। इस बातचीत को विराम देने से पहले आप अपने पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगी?
उत्तर: पाठकों से कहना चाहूँगी कि किताबें वो दिया है जो अज्ञानता के गहरे अंधकार को दूर कर सकती है। ये हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ साथी हैं जो हमारे बाद भी हमें जिन्दा रखती हैं। दिमाग के सम्पूर्ण विकास के लिए किताबें एक उत्तम जरिया हैं। आज जो भी हम हिंदी साहित्य के लिए योगदान करेंगे उसके लिए हमारी पीढ़ियाँ हम पर गर्व करेंगी। संस्कृति की रक्षा साहित्य कर सकता है इसलिए इसे अपने दिलों में अमिट जगह दें।
साथ ही सभी को मेरा प्यार व स्नेह।
सुरभि जी की किताबें |
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तो यह थी सुरभि सिंघल जी से हुई हमारी बातचीत। आशा है यह साक्षात्कार आपको पसंद आया होगा। इस साक्षात्कार के विषय में आपकी राय का हमे इन्तजार रहेगा।
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© विकास नैनवाल ‘अंजान’
बढ़िया साक्षात्कार था।
ऐसे ही लिखती रहिए सुरभि जी।
मैं सुरभि जी के अपनी पहली पुस्तक प्रकाशित करवाने के उतावलेपन को समझ सकता हूँ। मुझमे भी यही उतावलापन था। बस जल्द से जल्द खुदकी पुस्तक प्रकाशित करवानी थी। मेरी अंतरात्मा बार-बार कह रही थी कि यदि अब नही किया, तो कभी नही होगा। एक अजीब सा भय आ गया था। पर शायद वह मेरा उतावलापन था बस।
लेकिन मुझे खुद ही एहसास हो गया कि मेरी लेखनी अब भी काफी हद तक Raw है। इसमे काफी सुधार की जरूरत है। इसलिए जब स्वयं एक प्रकाशक ने मुझे संपर्क किया प्रतिलिपि पर, मेरी लघुकथाएँ प्रकाशित कराने के लिए, तो मैने नही किया।
फिर भी यह उतावलापन अच्छा है। ज़िन्दगी कई बार सामने से मौके आते है या आते ही नही और फिर सब चला जाता है। हमे इस मौके को लेना होता है। नए लेखको के लिए यह अच्छी सीख है।
जी सही कहा आपने। कई बार उतावलापन अच्छा होता है लेकिन हमे इतना ध्यान भी रखना होता है कि हम जो भी प्रकाशित करवाएं वो पूरी तरह पका हुआ हो।
बहुत बहुत धन्यवाद । बिल्कुल आपने सही कहा । शुरुवाती दौर अलग होता है लेकिन समय के साथ साथ लेखन में भी परिपक्वता आती जाती है जैसे अब अपने लिखे को बार बार पढ़ने व सुधार की आदत बनती जा रही है ।
आपके भविष्य के लिए भी शुभकामनाएं व स्नेह ।
साक्षात्कार में सुंदर शब्दों की अभिव्यक्ति। सुरभि जी के उज्ज्वल साहित्यिक भविष्य की कामना करता हूँ।
जी आभार सर।
शुरू का उतावलापन अलग ही था । अब सुधार करने के मायने समझ आ चुके हैं ।
आपको भी भविष्य के लिए अपार शुभकामनाए ।
बहुत ही शानदार साक्षात्कार….
आदरणीय सुरभि जी की किताबें तो अभी नहीं पढ़ी पर आज उनके विचारों से रूबरू हुए तो उन्हें पढ़ने की लालसा जगी है मन में ।
महत्वपूर्ण मुद्दों पर आपके विचार विमर्श बहुत ही सराहनीय और अनुसरणीय है
अनंत शुभकामनाएं।
मैम आपको साक्षात्कार पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। उनकी पुस्तकें जरूर पढ़िएगा और अपनी राय से उन्हें और मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।
बहुत धन्यवाद सुधा जी । जरूर आपसे जुड़कर मुझे प्रसन्नता हुई । अपना स्नेह यूं ही बनाये रखियेगा ।
बेहतरीन साक्षात्कार
जी आभार….
धन्यवाद ।
बहुत उत्साहपूर्ण वातावरण ,एक दीलखुस साक्षात्कार. मै एक नया लेखक हूं मेरी पहली पुस्तक सम्पूर्ण लिख चुका हूं। आप जैसे अनुभवी लेखकों से राय मांगी है। आप इस नो.8928710881 पे कॉल करे व उचित मार्गदर्शन करें। धन्यवाद्
जी साक्षात्कार आपको पसंद आया इसके लिए हार्दिक आभार। अगर आपने अपनी पुस्तक लिख दी है तो बेहतर होगा आप अपनी पुस्तक को प्रकाशनों तक भेजें। उम्मीद है जल्द ही आपकी पुस्तक हमें पढ़ने को मिलेगी।