संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 138 | प्रकाशक: हार्पर हिन्दी | श्रृंखला: इमरान #5 | आईएसबीएन: 9788172238926 | अनुवाद: चौधरी ज़िया इमाम
जहन्नुम की अप्सरा – इब्ने सफी |
पहला वाक्य:
फिर वही हुआ जिसका अंदाजा इमरान पहले ही लगा चुका था…
लेकिन अजीब बात यह थी कि उसने इमरान की पार्टनर रूशी को अपना नाम गलत बताया था। इमरान को पता था कि वह एक अमीर औरत थी जो कि एक बड़े व्यापारी की बीवी थी। वहीं जिस व्यक्ति की जानकारी वह निकलवाना चाहती थी वह व्यक्ति एक गरीब इलाके में बसा हुआ था। किसी आर्थिक रूप से सम्पन्न औरत का किसी आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति के विषय में जानकारी निकलवाना आम बात नहीं थी।
वो क्यों ऐसे व्यक्ति में रूचि ले रही थी? क्यों उन्होंने अपना नाम गलत बताया था?
यह कुछ सवाल ऐसे थे जो इमरान का माथा ठनकाने के लिए काफी थे।
आखिर कौन था वह आदमी?
जहन्नुम की अपसरा’ इमरान श्रृंखला का पाँचवा उपन्यास है जो कि हार्पर हिन्दी द्वारा प्रकाशित किया गया था। मैंने तीसरा उपन्यास ‘बहरूपिया नवाब’ इससे पहले पढ़ा था। चौथा उपन्यास ‘खौफ का सौदागर” मेरे पास नहीं था तो पढ़ नहीं पाया। वैसे तो यह उपन्यास एकल उपन्यास की तरह पढ़ा जा सकता है लेकिन इसमें रूशी है और रूशी इमरान की ज़िन्दगी में खौफ का सौदागर में आती है तो मेरी राय यही होगी कि वह उपन्यास आप इससे पहले पढ़ें।
इमरान सीरीज के इस उपन्यास की शुरुआत में ही इमरान को अपनी नौकरी से इस्तीफा देना पड़ता है। इस्तीफा देने के बाद वह अपनी दोस्त रूशी के साथ मिलकर एक फर्म खोलता है और बाकायदा इश्तेहार देकर केसेस का जुगाड़ करने की कोशिश करता है। इसी इश्तिहार का नतीजा होता है कि उसे एक व्यक्ति की तलाश में लगना पड़ता है और फिर उपन्यास का कथानक आगे बढ़ता है।
कथानक तेज रफ्तार है। इमरान को जिस व्यक्ति के पीछे लगाया जा रहा है वो क्यों लगाया जा रहा है? यह प्रश्न आखिर तक आपको उपन्यास पढ़ने के लिए विवश करता है। वहीं एक कत्ल के सिलसिले में कैप्टेन फैयाज़ भी इमरान को मदद के लिए बुलाता है। इन दोनों मामलों की कड़ी कहाँ जुडती है और कत्ल के पीछे क्या राज रहता है यह इमरान जिस तरह पता लगाता है वह पाठकों को बाँध कर रखता है।
इमरान के किरदार का एक मुख्य विशेषता यह है कि वह खुद को बेवकूफ की तरह दिखलाता है। इस कारण लोग उसे गम्भीरता से नहीं लेते हैं और उसका जासूसी का काम सही चल जाता है।
जब शुरुआत में मैंने इमरान के उपन्यास पढ़े थे तो मुझे उसके इस अहमकाने रवैये से चिढ होती थी क्योंकि कई बार वह अत्यधिक और बिना किसी कारण के की गई हरकतें लगती थीं। लेकिन बाद में उपन्यासों में यह हरकतें इतनी ज्यादा नहीं हैं।
इस उपन्यास में भी आप उसका यही अहमकाना रवैया देखते है लेकिन इससे हास्य ही पैदा होता है कोफ़्त नहीं होती है। फिर कुछ कुछ देर में आपको उसके द्वारा की गई हरकतों का कारण भी पता चलता रहता है तो आप समझने लगते हैं कि जो भी वह कर रहा था क्यों कर रहा था? आपको उसकी हरकतें बिना बात के नहीं लगती हैं।
इमरान के डायलॉग रोचक हैं फिर भले ही वह इमरान और रहमान साहब के बीच की बातचीत हो या इमरान और फैयाज़ के बीच की बातचीत या इमरान की किसी भी और किरदार के साथ बातचीत।
उदाहरण के लिए यह देखिये:
“क्या लिख रहे हो?”
इमरान ने जितना लिखा था, सुना दिया।
“मैंने इस्तीफा लिखने को कहा था?” रहमान साहब मेज़ पर घूँसा मार कर बोले।
इमरान ने दूसरा काग़ज़ उठाया और अपने चेहरे पर किसी किस्म के भाव ज़ाहिर किये बगैर इस्तीफा लिख दिया।
“मुझे खुद शर्म आती थी?” इमरान में इस्तीफा रहमान साहब की तरफ बढ़ाते हुए कहा।”इतने बड़े आदमी का लड़का और नौकरी करता फिरे, लाहौल विला क़ूवत…”
“हूँ…लेकिन अब तुम्हारे लिए कोठी में कोई जगह नहीं?” रहमान साहब ने जवाब दिया।
“मैं गैराज में सो जाया करूँगा… आप उसकी फिक्र न करें।”
(पृष्ठ 13)
वह जिस किसी से भी बात करता है वह बात कब किस दिशा में मुड़ जाएगी यह आपको भी पता नहीं रहता है। उपन्यास पढ़ते हुए आपको इमारन के विषय में यह भी पता चल जाता है कि कई बार जब इमरान को किसी बात का जवाब नहीं देना होता है तो भी वह बात को टालने के लिए भी उल जलूल हरकतें करने लगता है।
रूशी इमरान की सेक्रेटरी का काम करती है लेकिन वह उसे अपना सीनियर पार्टनर बताता है। अपनी फर्म ही उसने रूशी के नाम पर ही खोली है। रूशी से इमरान की मुलाक़ात कैसे हुई होगी यह मैं जानना चाहता हूँ और इसके लिए ‘खौफ का सौदागर’ जल्द ही पढूँगा। इन दोनों के बीच का समीकरण मुझे पसंद आया।
फैयाज और इमरान के बीच का समीकरण हमेशा की तरह अच्छा है। और इन दोनों के बीच के संवाद रोचक रहते हैं। और जिस तरह इमरान फैयाज को छेड़ता रहता है उसे देख कभी तो मजा आजाता है और कई बार फैयाज़ पर दया भी आती है। लेकिन फिर कई बार फैयाज़ की खुद की हरकतें ऐसी रहती है कि मैं सोचता हूँ सही हुआ इसके साथ।
उपन्यास के खलनायकों की बात करूँ तो वह उपन्यास के आखिर में ही आते हैं। इससे पहले तो इमरान उन्हें तलाशता ही रहता है। खलनायक कौन है यह बाद में ही पता चलता है। उपन्यास का अंत रोमांचक है लेकिन इसमें घुमाव कम हैं। खैर, उपन्यास चूँकि पचास वर्ष से पहले ही लिखा था उस हिसाब से यह ठीक है।
हमने कई बार सुना है कि दूसरे देश कई बार सरकार गिराने के लिए कई तरह के प्रपंच रचाते हैं। वो या तो विद्रोह को आग देते है न या अपने एजेंट्स के माध्यम से विद्रोह करवाते हैं। इसी थीम को लेकर यह उपन्यास जरूर लिखा गया है लेकिन इसे केंद्र में नहीं रखा गया है। इस बात का जिक्र केवल अंत में होता है। अगर इस बात को साफ करने के लिए यह भी दर्शाया होता कि खलनायक ने दूसरे देशों में काम को कैसे अंजाम दिया तो बेहतर होता। उपन्यास ज्यादा बड़ा और ज्यादा रोचक बन सकता था।
खैर, अभी भी उपन्यास मुझे पसंद आया। एक बार पढ़ा जा सकता है।