मार्च ८ से मार्च १२ के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: १५७ | प्रकाशक: हार्पर कॉलिंस इंडिया
पहला वाक्य :
दलाल अकेला नहीं था।
दलाल को जब पुलिस पकड़ कर ले जा रही थी तो लेखक महाशय भी उधर ही थे। तब उधर ऐसी घटना हुई कि उनके होश उड़ गये। दलाल मण्डी से पुलिसवालों के संग गुजर रहा था तो एकाएक मछलियाँ हँसने लगी। लेखक घबराकर घर पहुँचें । क्या हुआ होगा दलाल के साथ ? लेखक के मन में दलाल कि कहानी जानने कि इच्छा जागी और उसकी सोच में खलल तब पड़ा जब उसने बाहर बिल्लियों को बोलते सुना। वो भी इसी बाबत बात कर रही थी। लेखक परेशान हुआ। उसे लगा मंदी के वजह से ऐसे उसके साथ हो रहा है। लेखक कुछ दिनों से परेशान चल रहा था। उसे पिंक स्लिप दी गयी थी। क्या ये अनुभव सच्चे थे या उसे वहम हुआ था ? क्या हुआ था दलाल के साथ जो पुलिस उसे ले जा रही थी? फिर कहानी में दलाल कि बीवी का क्या महत्व है? कौन थी वो और दलाल से उसका मिलना कैसे हुआ? ऐसे ही सवाल आपके मन में जागे होंगे ऊपर लिखे वाक्यों को पढ़कर। इनके उत्तर तो खैर आपको उपन्यास पढने पर ही मिलेंगे।साथ ही मुंबई के ऐसे रूप को देखने को मिलेगा जिसकी कल्पना भी आपने नहीं की होगी(मैंने तो नहीं की थी कभी)।
दलाल की बीवी उपन्यासकार और कथाकार रवि बुले का पहला उपन्यास है। उपन्यास का शीर्षक तो दलाल की बीवी है लेकिन उपन्यास का केंद्र बहुत सारे पात्र है। अगर कहा जाए उपन्यास का केंद्र मंदी के दौर की मुंबई है तो गलत नहीं होगा। मंदी के दौर में मुंबई है और इसी मुंबई में हैं इस उपन्यास के सारे चरित्र। इस उपन्यास में इन्ही चरित्रों कि कहानी को बताया गया है और इन्ही चरित्रों कि कहानी के माध्यम से पाठक को एक ऐसी मुंबई के दर्शन कराये गये हैं जो यथार्थ के नज़दीक तो है ही अपितु यहाँ फैली बुराइयों को भी सही ढंग से दर्शाती हैं। ये मंदी विश्व व्याप्त है इसलिए इससे मुंबई भी अछूती नहीं रही है। इस मंदी के प्रभाव को लेखक ने समाज के हर तपके पे दिखाया है। रोज मर्रा की चीजें महंगी होती जा रही हैं। घर खाली पड़े हैं लेकिन उनमे रहना आम लोगो की बस का नहीं है। हर जगह कटोती हो रही है, नौकरियों से लोगों को निकाला जा रहा है। लोग अवसाद में घिर रहे हैं और ये अवसाद उपन्यास के चरित्रों में भी दिखता है। और इस कहानी को कहना वाला ‘लेखक’ भी पिंक स्लिप को पाने के बाद ही इस कहानी को एक राइटिंग थेरेपी के तौर पर देखता है।
इस उपन्यास के कुछ महत्वपूर्ण पात्र निम्न हैं :
पहला है दलाल। जैसे उपन्यास आगे बढ़ता है पाठक को उसके विषय में पता चलता है। कैसे वो इस काम में आता है? दलाल को कभी प्यार भी हुआ था और उसका क्या अंजाम हुआ इसका भी उसे पता चलता है।
दूसरी महत्वपूर्ण पात्र है बिंदिया जो कि ‘दलाल की बीवी’ है। उसके विषय में पाठक जानता है कि दतिया, इंद्रगढ़ से मुंबई के सफ़र के दौरान वो किन किन हालातों से गुजरी है। ढोंगी बाबा ले जाल में फँस कर कैसे वो मुंबई के कोठे से होते हुए एक डांस बार में और वहां से दलाल के साथ आई। बिंदिया की कहानी के मध्याम से लेखक ने ऐसे नेक्सस को उजागर करने कि कोशिश कि है जो की लड़कियों को इस धंधे में डालने का काम करता है।
तीसरा किरदार ओसामा है। ओसामा एक बस्ती में रहने वाला है जो गैरकानूनी तरीके से पानी का व्यापार करता है। पानी कि किल्लत मुंबई में एक बड़ी समस्या है और इससे हर किसी को झूझना पड़ता है। ऐसे में ओसामा एक मसीहा कि तरह आता है और पानी को बेचकर लोगों कि मुसीबत दूर करता है। लेकिन जब किसी के पास पानी नहीं है तो ओसामा के पास कहाँ से आता है? ये बात सोचने वाली है।
ऐसे ही कई और किरदार हैं। एक बाबा है जो बिंदिया की हालत के लिए जिम्मेदार थे। एक बॉलीवुड की आइटम गर्ल है जो गानों के साथ सेक्स का कारोबार भी करती है। एक अड़तीस वर्षीय महिला है जिसके अपने २६ वर्षीय पड़ोसी के साथ प्रेम सम्बन्ध है। वो समझती है कि वो भी उसे प्यार करता है लेकिन क्या ये सच है?
एक बलात्कारी है जिसने पुलिस वालों के नाक में दम किया हुआ है? एक इतालियन पर्यटक है जो अपने टिकेट के पैसे का जुगाड़ ब्लू फिल्मों में एक्टिंग करके करता है। एक कातिल है जो बिल्लियों की निर्मम हत्या कर रहा है। एक खूबसूरत लड़की मिट्ठू कुमारी है जो कि अवसाद ग्रस्त है। वो मेहनती है लेकिन उसे एक दिन गलत यौनाचरण के लिए निकाल दिया जाता है। ऐसे ही कई लोग हैं जिनके माध्यम से लेखक ने मुंबई के कई रूप दिखाए हैं।
उपन्यास मुझे काफी पसंद आया। पात्र जीवंत हैं, उनकी परेशानियाँ भी यथार्थ के निकट ही प्रतीत होती हैं। हाँ, बस ऐसा लगा कि सब कुछ जल्दी में समेटा गया है। बिंदिया और रूपा कि कहानी एक अलग उपन्यास बन सकती थी और ऐसे ही हर किसी किरदार के विषय में कहा जा सकता है। ये संक्षिप्त में कहानी का कहना एक अधूरेपन का एहसास दिला सकता है। ऐसा लगता है मानो कई चीजों की जिनकी गहराई में उतरने कि ज़रुरत थी उन्हें सतही तौर पर छूआ गया हो। लेकिन इसका मतलब ये नहीं उपन्यास अच्छा नहीं है। उपन्यास बेहतरीन है। इसके पात्र इतने रोचक हैं कि मैं चाहता था कि उनके विषय में गहराई से जान पाऊँ।
उपन्यास के कुछ अंश :
सोसायटियों में खाली पड़े फ्लैट ही क्या, आधी-अधूरी बनी इमारतें, पब्लिक टॉयलेट, जोगर्स पार्क, रेस्तराओं के प्राइवेट केबिन, टैक्सियों में पीछे की सीट, साइबर कैफ़े के क्यूब….बीस रूपये से सौ रूपये की फीस में अनमोल प्रेम के गवाह बन रहे थे। यूँ तो सस्ते लॉज भी थे, समुन्दर के किनारे। लेकिन भागदौड़ के बीच प्रेम बहुत फुर्सत से कर पाना कहाँ संभव था। न उसके लिए ज्यादा सोचने की ज़रुरत थी। भावुक होने से कमजोर पड़ने का डर था। कमजोर होकर महानगर में जीया नहीं जा सकता।
मृत्यु एक सख्त विचार थी, जिसके अंत में ईश्वर एक पूर्णविराम की तरह खामोश उपस्थित था …!
मंदिर, मस्जिद ,गुरूद्वारे, गिरजाघर….उसके हर दरवाजे पर भीड़ बढ़ रही थी।
जिन्हें ईश्वर से सीधे संपर्क करने में कठिनाई मालूम होती थी , उनके लिए गुरु थे। बाबा थे। तांत्रिक थे। मान्त्रिक थे। मौलवी थे। पादरी थे। दाड़ी वाले थे। बिना दाड़ी वाले थे। माला वाले थे। माइक वाले थे। भजन वाले थे। प्रवचन वाले थे। श्रधा खरीदने वाले थे। सबूरी बेचने वाले थे। सबका कारोबार फल फूल रहा था ।
अंत में केवल इतना ही कहूँगा कि उपन्यास आपको ज़रूर पढ़ना चाहिए।
धन्यवाद विकास। आपने यह उपन्यास पढ़ा और अपनी राय ब्लॉग के रूप में लिखी।
-रवि बुले
शुक्रिया रवि जी, टिपण्णी के लिए।
bhut hi khoobsurat
शुक्रिया रामशिमार जी।