उपन्यास ख़त्म करने की तारीक : ८ फरबरी २०१५
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: १३६ | प्रकाशक: राजकमल पेपरबैक्स
कहानी
‘बिना दरवाज़े का मकान’ समाज की सच्चाइयों को पेश करता हुआ एक मार्मिक उपन्यास है। दीपा और उसका पति बहादुर एक खुशहाल जीवन जी रहे थे। बहादुर रिक्शा चलाता था और दीपा घर पर ही रहती थी । लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। उनके जीवन में कुछ ऐसा घटित होता है कि दीपा को घर -घर जाकर काम करना पड़ता है। दीपा को अब समाज के उस चेहरे से वाकिफ होना पड़ता है जिससे अभी तक उसके पति ने उसे महरूम रखा था।
विचार
उपन्यास का शीर्षक दीपा और बहादुर के मकान के ऊपर है। दीपा जब लोगों के घर काम करने जाती थी तो उसे रहने को आसरा वहीं मिल जाता था। लेकिन अकसर मालिक लोगों की बातें उससे सुननी पड़ती थी इसलिए वो सोचती है कि उसका अपना मकान ही होता तो बेहतर होता। वो किसी तरह घर बनवा तो लेती है लेकिन उसमें दरवाज़ा लगाने के पैसे उसके पास नहीं बचते हैं। अब वो दोनों एक ऐसे घर में रह रहे हैं जिसमे दरवाज़ा नहीं है और यही उनके जीवन का भी हाल है। उनका जीवन भी अब बिना दरवाजे के घर के समान हो चुका है। जहाँ कोई भी जब तब चला आता है।
कहीं भ्रष्ट इंस्पेक्टर पैसा कमाने में इतना व्यस्त है कि परिवार के विषय में वो कुछ सोचता ही नहीं है । उसके पास परिवार को देने के पैसे तो हैं लेकिन प्यार और वक़्त नहीं है। इसलिए उसका परिवार भी अय्याशियों में मशगूल रहता है और उसकी कोई परवाह नहीं करता है। दूसरी जगह एक ऐसी औरत है जो सबसे तो मीठा मीठा बोलती है लेकिन अपनी बहु ,जो कि गरीब घराने से है, को मानसिक और शाररिक प्रताड़ना देती रहती है। ऐसे ही कई परिवारों और समाज की अंदरूनी सच्चाई को हम दीपा के माध्यम से देखते हैं।
ये ही नहीं हम उपन्यास औरतों के प्रति समाज के नज़रिये को देखते हैं। दीपा के पति के साथ दुर्घटना होने के बाद लोग उसे गलत नज़र से देखने लगते हैं। इसमें वो मालिक ही नहीं जिनके यहाँ वो काम करती है बल्कि वो लोग भी हैं जो बहादुर को अपना दोस्त कहते थे। दूसरी और हम दीपा की जद्दोजहद से भी रूबरू होते हैं। उसकी भी कुछ इच्छाएँ हैं जिन्हे पूरा करने में बहादुर अभी समर्थ नहीं है और कभी कभी ये ही इच्छाएँ झल्लाहट के रूप में निकलती है। उपन्यास की कहानी तो एक दिन की है लेकिन उस एक दिन में हम दीपा की पूरी ज़िन्दगी से वाकिफ हो जाते हैं।
उपन्यास में हमारे पूर्वाग्रह भी दिखते हैं। गरीबों का अमीरों के प्रति रोष और उनका बार बार ये कहना कि बिना बेमानी किए कोई अमीर नहीं हो सकता है उनके पूर्वाग्रह को दिखाता है। वही अमीरों का ये समझना की गरीब बेइमान और उनकी औरतें बाजारू होती हैं, उनके पूर्वाग्रह को दिखाता है।
उपन्यास की कमी की बात करूँ तो जो मुझे खली वह भाषा का एक तरह का होना है। दिल्ली ऐसी जगह है जहाँ हिंदी की बोली एक ही मोहल्ले में अलग अलग देखने को मिलती है। पंजाबी,गढ़वाली ,पूर्वंचाली और अन्य अनेक भाषाओँ का प्रभाव उस जगह के लोगों की बोली में दिखता है। वैसे लेखकीय में लेखक ने इस कमी के विषय में पहले ही बता दिया है लेकिन अगर ये प्रभाव किरदारों की भाषा मे दिखता तो काफी अच्छा लगता। ऐसा नहीं है कि कुछ प्रभाव नहीं है लकिन ये उतना नहीं है जितना होना चाहिए था।
उपन्यास को पढ़कर आपको ज़रूर अपने आस पास में मौजूद लोग ध्यान आएँगे और आप सहसा कह उठेंगे की यह किरदार तो अमूक व्यक्ति के तरह है।
उपन्यास की कहानी दिल्ली के उत्तमनगर में बसाई गयी है।और ये एक संयोग ही था की मैं उपन्यास पढ़ते वक़्त उत्तमनगर में आया हुआ था। बिंदापुर ,मानसकुंज और दूसरे जाने पहचाने जगह के नामो ने भी इस उपन्यास के अनुभव को प्रभावित किया।
उपन्यास काफी अच्छा है और अगर आप सामाजिक उपन्यास को पढ़ने में रुचि रखते हैं तो आपको ये उपन्यास आपको ज़रूर पसंद आएगा।अगर आपने उपन्यास को पढ़ा है तो अपनी राय देना नहीं भूलियेगा और अगर आप उपन्यास को मंगवाना चाहते हैं तो आप इसे निम्न लिंक्स के माध्यम से मंगवा सकते हैं:
टिप्पणी-3
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हिँदी साहित्य की अमूल्य धरोहर का परिचय देने के लिए धन्यवाद.
पढ़ने के लिए शुक्रिया।