संस्करण विवरण :
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: १४३ | प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन | अनुवादक: सांत्वना निगम
पहला वाक्य:
बाईस साल पहले की एक सुबह सपने में सुजाता वहीँ लौट गयी थी।
1084वें की माँ (1084ven ki maa) पहली बार १९७९ में प्रकाशित हुआ था। मैंने पहली बार यह शीर्षक उपन्यास के विषय में नहीं किन्तु एक फिल्म के विषय में सुना था। इस फिल्म में जया बच्चन जी ने मुख्य किरदार निभाया था। फिल्म के शीर्षक हज़ार चौरासी की माँ ने ही मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा और जब मैंने फिल्म के विषय में पता लगाया तो पाया ये फिल्म महाश्वेता देवी(Mahashweta Devi) जी के उपन्यास पर आधारित थी। उपन्यास मूलतः बंगाली भाषा में रचा गया था। मैंने इस उपन्यास का हिंदी संस्करण मंगवाया जो की सांत्वना निगम जी ने अनुवादित किया था। 1084वें की माँ शीर्षक ही आपको सोचने के लिए मजबूर कर देती है कि यह किसका नंबर है। पहले मुझे लगा ये एक कैदी का नंबर है लेकिन असल में ऐसा नहीं है।
वर्ती एक उच्च मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का था। जब उसकी मृत्यु की खबर उसके परिवार को लगी तो उनके लिए ये बात शर्मनाक थी। वर्ती के पिताजी ने अपनी सारी पहुँच लगा कर इस बात को दबा दिया था कि वर्ती एक नक्सलवादी गिरोह का सदस्य था। लेकिन उसकी माँ सुजाता के लिए ये गुत्थी बनकर रह गयी थी कि वर्ती ने जो किया वो क्यों किया। वर्ती को गुजरे हुए दो साल हो गये है। आज उसकी पुण्य तिथि है। उसके अपने परिवार में वर्ती को भुलाया जा चुका है। इस बात का अंदेशा इसी से लगाया जा सकता है कि आज सुजाता की सबसे छोटी बेटी कि सगाई है। लेकिन सुजाता इस दिन को वर्ती से जुड़े लोगों के साथ बिताना पसंद करती है। इसी दिन की व्याख्या इस उपन्यास में की गयी है। क्यों वर्ती एक शर्म का कारण बन गया था उसके परिवार के लिए? वर्ती क्या बन गया था , उसने जो किया वो क्यों किया ? ये सवाल सुजाता को तड़पा रहा था। क्या वो इस बात को जान पायी? आज का ये दिन सुजाता कि ज़िन्दगी में क्या बदलाव लाएगा ? वर्ती क्यों एक नक्सलवादी गिरोह से जुड़ा हुआ था? इन्ही और कुछ अन्य सवालों के जवाब आपको इस उपन्यास को पढ़कर मिलेंगे।
ये उपन्यास मुझे बहुत पसंद आया। इस उपन्यास के दो पहलु हैं :
एक तरफ तो ये उपन्यास ७० के दशक के बंगाल के राजनीतिक माहोल को दर्शाता है। इस वक्त नक्सलवाद इधर अपने चरम पर था। छात्रों और गरीबों में अपनी सरकार को लेकर एक असंतोष था जिसने उन्हें इस रास्ते में लाकर खड़ा कर दिया। हालांकि इस उपन्यास में इतनी गहराई से इस बात को नहीं बताया गया है कि क्यों ये असंतोष उनमे जगा था। लेकिन फिर भी माहोल के विषय में इतनी जानकारी इसमें है कि आप माहोल के कारण को जानने के लिए उत्सुक तो हो ही जायेंगे। यह कहानी जिस कालखंड में घटित होती है उसके विषय में मुझे केवल उतना ही ज्ञान है जो इस पुस्तक में दिया गया है इसलिए वर्ती के कारणों पर मैं कोई टिपण्णी नहीं करूँगा।लेकिन, हाँ इसने मेरे अन्दर उस काल खंड और इस आन्दोलन, जसी नक्सलवाद कहा गया है, को जानने की रुचि अवश्य जागृत की है।
इस उपन्यास का दूसरा पहलु एक स्त्री यानी सुजाता की कहानी है। सुजाता एक उच्च मध्यम बंगाली परिवार की स्त्री है। उपन्यास की शुरुआत से ही हम देखते हैं कि सुजाता का जीवन रिश्ते निभाने में बीत गया था। वो केवल एक बीवी,एक बहु या एक माँ ही थी और उसके घरवालों में सभी को उसका केवल रिश्ता ही दिखता था। वो कभी भी उनके लिए सुजाता नहीं थी जिसका कि अपना कोई अस्तित्व हो। वो अपने रिश्ते निभाती भी चली आ रही थी। उसका पति उससे वफादार नहीं था, सास उसका शोषण ही करती थी और वर्ती को छोड़कर बच्चे भी ऐसे थे कि उसके हालात की तरफ आँखें मूंदे रहते थे। सुजाता को आदत थी इन सब बातों की लेकिन वर्ती के विषय में बातें दूसरी थी। उसने हमेशा अपने पति या सास के दबाब में आके काम किया था। वो उन्ही के अनुसार चलती थी। लेकिन वर्ती के ऊपर उसने किसी का दबाव नहीं माना था। केवल वर्ती और उसकी नौकरी ही उसकी व्यक्तिव के होने का सबूत थे। ऐसे में वर्ती के साथ जो हुआ, उसने उसे झंजोड़कर रख दिया। वो चाहती थी कि वो जान सके कि वर्ती क्या बन चुका था? उसमे क्या तब्दीलियाँ आ गयी थी ? और यही खोज करते करते वो अपने आप को भी खोज लेती है। वो ऐसा कैसे करती है और इस खोज का परिणाम तो पुस्तक पढ़कर ही पता चलेगा। बहरहाल, अक्सर भारतीय समाज में सुजाता जैसी औरतें देखने को मिलती है। वो ऐसे परिवार के लिए अपना सब कुछ होम कर देती हैं जो उनके त्याग और मेहनत को केवल ये सोचकर कि ‘ये तो औरत का काम ही है’ महत्व नहीं देता है। अक्सर औरत ही औरत की दुश्मन होती है, यह बात भी इधर ही देखने को मिलती है। सुजाता की सास और उसकी छोटी बेटी इस कहावत को इस उपन्यास में चरित्राथ करते हैं। वो दोनों ही दिव्यनाथ ,सुजाता के पति, के दूसरी औरतों के सम्बन्ध को यह कह कर नकार देते हैं कि ये तो उनके पुरुष होने का सबूत है। उसकी सास उसे कपडे भी अपनी पसंद के पहनने को देती है और यहाँ तक कि बच्चों की परवरिश में भी उसका हाथ नहीं होने देती है। ऐसे में सुजाता, जो कि काफी पढ़ी लिखी औरत थी, क्यों इसका विरोध नहीं करती ये एक पहेली सा बन जाता है। लेकिन शायद यह पंक्तियाँ इसका जवाब देने कि कोशिश करती हैं :
सुजाता को भी अपने पति,संतान, दामाद के बरताव को लेकर कोई दुःख नहीं था। पहले तो, जैसा कि हमेशा होता आया है, सर झुकाकर ही सब स्वीकार कर लेने की सीख उसे मिली थी। दुसरे, उसके मन में इन चीज़ों को लेकर कभी कोई प्रश्न नही उठा; प्रश्न करने का नैतिक अधिकार उसे है या नहीं, यह भी उसे नहीं पता था। दुःख उसको हुआ, बेहद दुःख पाया है उसने। दिव्यनाथ ने हमेशा बाहर की लड़कियों के साथ मौजबहार की है।
सास की तरफ से इसको सस्नेह बढ़ावा ही मिला है:’उनका लड़का मर्द का बच्चा है; जोरू का गुलाम नहीं है!’ सुजाता को चोट पहुंची है, लेकिन फिर उसने सोचा: किसे इस दुनिया में खालिस सुख-ही -सुख मिलता है।
ये रवैया अक्सर हम आज भी देखते हैं। इससे जाहिर था कि सुजाता बहुत पहले ही अपने परिवार के लिए अपने व्यक्तित्व की आहुति दे चुकी थी। इस उपन्यास में वर्ती के विषय में जानने की कोशिश वो करती है और अंत में न केवल वर्ती को वो जान पाती है लेकिन अपने आप को भी दोबारा वो खोज लेती है। उपन्यास का यह पहलू मुझे ज्यादा पसंद आया।
खैर, उपन्यास को पढ़ते समय मुझे महसूस नहीं हुआ कि मैं अनुवादित कृति पढ़ रहा हूँ। इसके लिए मैं सांत्वना निगम जी का शुक्रगुजार हूँ कि उन्ही की मेहनत के करण इस सुन्दर कृति को पढ़ने का मौका मुझे मिला। उपन्यास एक स्त्री की कहानी है जिसमे वो अपने खोये हुए व्यक्तिव को वापस पाती है। ये उस वर्ती की कहानी जिसने अपने पास सब सुख सुविधा होते हुए भी समाज के उस तपके के लिए समाज की व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाई थी। ये उपन्यास १९७० के बंगाल की कहानी है जहाँ उस वक़्त नक्सलवाद का आदोंलन हुआ था। इसमें कई जवान जिंदगियाँ होम हुई थी और समाज के उच्च वर्ग ने इन जिंदगियों के अस्तित्व को नकारने में ही अपनी भलाई और कर्तव्य समझा था। इसने उस वक्त के प्रति मेरी रूचि को उजागर किया। आप भी इस उपन्यास को पढ़िए।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आप अपनी राय नीचे टिपण्णी बक्से में डालना न भूलें। अगर आपने इस कृति को अभी तक नहीं पढ़ा है तो इसे निम्न लिंक्स के माध्यम से मंगवा सकते हैं :
उपन्यास के कुछ अंश :
दिव्यनाथ को पता भी नहीं चला था कि सुजाता के लिए वह मर चुके थे और आखिरकार धीरे धीरे वह दूर, और भी दूर, होते गए थे। सुजाता के पास ही लेटे रहते, लेकिन जान नहीं पाते कि मृत वर्ती से ज्यादा उन्होंने जीवित दिव्यनाथ के मान-सम्मान, सुरुक्षा की चिंता की थी, इसलिए सुजाता के लिए वह अपना अस्तित्व खो चुके थे।
शोक से भी बलवान है समय । शोक तट है तो समय सदा प्रवाहित होने वाली गंगा । समय शोक पर बार-बार मिट्टी की परत चढ़ाता जाता है। फिर एक दिन प्रकृति के अमोघ नियमों के अनुसार समय की परतों के नीचे दबे शोक पर अंकुर-सी उँगलियाँ उगती हैं। अंकुर – आशा, दुःख, चिंता और द्वेष के अंकुर!
इस उपन्यास को 1984 में पहली बार पढ़ने का मौका मिला .उसके बाद जब जब मौका मिला इसे पढ़ा और दूसरों को भी पढ़ने को कहा .पात्र की नायिका वर्ती की मां सुजाता आम औरतो की तरह हर प्रकार के पारिवारिक शोषण का शिकार होती है . बेटे वर्ती की मौत के बाद वो अपने बेटे को जान पाती है और साथ ही अपने होने के अहसास को भी दुबारा पा लेती है.उसका वर्णन बहुत मार्मिक है. मगर इस से हर महिला को एक दिशा मिलती है .जयपुर प्रवास के दौरान उनसे एक बार मिलने का मौका भी मिला .उनका सम्मोहक व्यक्तित्व आँखों में स्थाई रूप से बसा हुआ है.उससे बहुत शक्ति मिलती है .
जी वीना जी आपने सही कहा। मैंने इसके बाद महाश्वेता जी की सभी कृतियों को पढने का फैसला कर दिया था। नील छवि और बनिया बहु अभी तक पढ़ा है। बाकि पढने का भी विचार है।
आपने अपने बहुमूल्य समय देकर ब्लॉग पे टिपण्णी दी।उसके लिए शुक्रिया। आते रहिएगा।
वैसे, महाश्वेता देवी जी के इलावा आप किसी और लेखिका/लेखक का नाम साझा करना चाहे तो बहुत अच्छा रहेगा। मेरे मार्गदर्शन होगा।