संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | पृष्ठ संख्या: 31 | अंक: तहकीकात 3 | अनुवादक: इश्तियाक खाँ | मूल भाषा: उर्दू
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
आबिद की तीन महीने की बच्ची का किसी ने अपहरण कर दिया था।
उसकी पत्नी फ़राजाना और पत्नी की माँ का कहना था कि यह काम आबिद की पहली बीवी जमीला ने किया।
क्या असल में कुछ ऐसा था?
आखिर आबिद की बेटी का अपहरण किसने किया था?
मुख्य किरदार:
आबिद – एक व्यवसायी
फरज़ाना – आबिद की दूसरी बीवी
जमीला – आबिद की पहली बीवी
ताजम्मुल – फरज़ाना की खाला (मौसी) का पाला हुआ लड़का
मेरे विचार
एक व्यक्ति अपराध क्यों करता है? ये एक जटिल सवाल है। कुछ लोग लालच के चलते सही गलत भूल कर अपराध कर बैठते हैं और कई लोग किसी के प्रति अपनी आसक्ति के चलते अपराध कर बैठते हैं या अपराधियों का साथ देने लगते हैं। प्रस्तुत सत्यकथा भी ऐसे ही कुछ लोगों की जिनमें से किसी ने लालच के चलते अपराध किया और किसी ने आसक्ति के कारण उस अपराधी का साथ दिया।
अहमद यार खाँ ब्रिटिश भारत के पुलिस फोर्स के अफसर थे। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने जिन मामलों को सुलझाया उसे उन्होंने कलमबद्ध किया था।
तहकीकात के
तीसरे अंक में प्रकाशित प्रस्तुत रचना ‘साजिश’ भी एक ऐसे ही मामले का ब्यौरा है। मूल रूप से
उर्दू में लिखी इस रचना का पठनीय अनुवाद
इश्तियाक खाँ द्वारा किया गया है।
कहानी की शुरुआत एक तीन महीने की बच्ची के गायब होने से शुरू होती है। जैसे जैसे तहकीकात आगे बढ़ती है पुलिस के पास मामले से जुड़े लोगों के विषय में ऐसी जानकरियाँ हासिल होती हैं कि वो असल अपराधी तक पहुँच जाती है। कई बार अपराधी तक पहुँचना बड़ी बात नहीं होती। बड़ी बात अपराध सिद्ध करना होता है। पुलिस यह काम कैसे करती है? कर भी पाती है या नहीं? यह सब कहानी के अंत में पता चलता है।
रचना रोचक है। जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है कथावाचक के माध्यम से पुलिस की कार्यशैली के विषय में बातें कथावाचक की टिप्पणी के माध्यम से पता चलती हैं। जैसे कि:
पुलिस में तफ्तीश और खोज की ट्रेनिंग इसी प्रकार दी जाती है जिस प्रकार फौज में फौजी ट्रेनिंग। परंतु युद्ध में कभी-कभी इस ट्रेनिंग को नज़रअंदाज करके ऐसे तरीके अपनाए जाते हैं जिनका वर्णन सरकारी किताब में नहीं आता। इसी प्रकार इंवेस्टिगेशन के मध्य भी ऐसे ऐसे अवसर आ जाते हैं कि अपने बुद्धि और समझ से काम लेना पड़ता है।
तफ्तीश में कभी-कभी हम बोलने वाले की बातों की तरफ ध्यान नहीं देते जितना उसके चेहरे को देखते हैं कि उस पर कैसे-कैसे रंग आते हैं और उसकी आँखों की पुतलियाँ किस प्रकार घूमती हैं। यह अपनी समझ और अक्ल का खेल होता है। यदि आप में अक्ल है तो आप जीत गए वरना मुजरिम जीत गया।
यह अक्सर होता है कि तफ्तीश मएउन किसी को सम्मिलित करें तो वो रो पड़ता है किन्तु इससे यह राय बना लेना कि इसका अपराध के साथ कोई संबंध नहीं गलत होता है। रोने-रोने में अंतर होता है और इस अंतर को कोई पुलिस वाला ही समझ सकता है।
ऐसा ऑफर कभी-कभी थानेदारों को हुआ करती है। आएसी सुंदर जवान लड़की को ठुकराना किसी मर्द के लिए आसान नहीं होता। दीन धर्म वाले रुपये पैसे की रिश्वत को ठुकरा दिया करते हैं परंतु ऐसी ऑफर ठुकराने के लिए पत्थर जैसा चरित्र होना आवश्यक है। यह रिश्वत आज भी चलती है और हत्या, डाका, लूट की पकड़ी हुई वारदातें गोल हो जाती हैं।
मैं उस वक्त जवान था। नंगी गालियाँ दिया करता था। इसके बिना छानबीन नहीं होती थी। परंतु मुझ में यह गुण पता नहीं कहाँ से घुस गया था कि शरीफ औरतों की इज्जत की खातिर अपनी नौकरी खतरे में डाल दिया करता था।
इसके साथ साथ आपको देखने को मिलता है कि क्यों एक वक्त के बाद् पुलिस वाले रूखे व्यवहार करने वाले हो जाते हैं। अपने कार्यकाल के दौरान वह ऐसे ऐसे इंसानी रूप देख चुके होते हैं कि कई बार उनकी अंदर की संवेदनशीलता को वह दबाकर ही रख ते हैं।
तहकीकात करते हुए कैसी कैसी चीजें सामने आ सकती है। पुलिस मामले को कैसे देखती है और खुद पुलिस वाले इस चीज को कैसे लेते हैं।यह सब कहानी में दिखाया गया है। कथावाचक पुलिस में हैं लेकिन फिर भी संवेदनशील हैं। उनकी यह संवेदनशीलता भी मामले की तहकीकात करते हुए दिखती है। साथ ही यह भी दिखता है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
कहानी का अंत भावनात्मक है जिस पढ़कर इस मामले में शामिल एक व्यक्ति के प्रति साहनुभूति जागृत हो जाती है। ऐसे दोराहे पर भी पुलिस वाले खुद को पाते हैं और कई बार कैसे वह अपनी इंसानियत दर्शाते हैं यह भी इधर दिखता है।
अगर आप अपराध कथा साहित्य पढ़ते हैं तो हो सकता है कि आपको यह मामला इतना जटिल न लगे। मामला इतना जटिल भी नहीं है लेकिन अगर असल पुलिस कार्यवाही को आप जानना चाहते हैं यह उसे दर्शाता है।
रचना पठनीय है और एक बार पढ़ी जा सकती है।
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