‘शर्तिया इश्क’ शकील समर का उपन्यास है। उपन्यास अंजुमन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है। एक बुक जर्नल पर पढ़ें लेखक संदीप नैयर की इस उपन्यास पर टिप्पणी।
शकील समर की किताब ‘शर्तिया इश्क़’ पढ़ी। इस किताब को पढ़ने की इच्छा बहुत समय से थी, मगर पढ़ना अब जाकर हो पाया। मुझे इस किताब का शीर्षक बेहद दिलचस्प लगा, शर्तिया-इश्क़। इश्क़ वैसे तो हो जाता है बिना किसी शर्त के ही, मगर किया अमूमन शर्तों पर ही जाता है। और यही होने और करने के बीच का फ़र्क ही इंसानी ज़िंदगी की सबसे बड़ी जद्दोजहद होता है। हम होते कुछ हैं, होना शायद कुछ और चाहते हैं, और करते कुछ और ही हैं। और इसी ‘कुछ और’ करने के दौरान ही अक्सर हम ये डिस्कवर करते हैं कि हम हैं कौन, हमारी ख़ासियत क्या है, और किस ख़ास मुकाम पर हमारी मंज़िल है। इस फ़लसफ़े को शकील ने बेहद ख़ूबसूरती से किताब की कहानी में पिरोया है।
इसी ‘कुछ ख़ास’ होने से ‘बहुत कुछ’ हो जाने की हसरत के बीच खिंच रही है कहानी की नायिका वाणी की ज़िंदगी। और ‘बहुत कुछ’ ठुकरा कर ‘कुछ ख़ास’ को पाने के सफ़र में है कहानी का नायक कबीर। लिहाज़ा दोनों को मिलना है। कबीर को वाणी में जो ख़ास है, वह बेहद पसंद है, और वाणी को यह पसंद है कि वह कबीर को बेहद पसंद है। और इसीलिए उन दोनों के बीच इश्क़ होना भी लाज़मी है। इस इश्क़ में शर्त क्या है, यह तो पता नहीं मगर शायद वह व्यक्तिगत पसंद से अधिक कुछ नहीं है। मगर इश्क़ जब वक्त के पालने में पलता है तो उसके हर किस्म के टैंट्रम शुरू हो जाते हैं जिन्हें तरह तरह के झुनझुनों से बहलाए रखना पड़ता है। और वक्त जब इस नर्म पालने से उतर कर हकीकत की सख्त ज़मीन पर सफ़र करने का, यानी शादी और घर-गृहस्थी का आता है तो उस पर कई शर्तें भी किसी वेताल की तरह आ लदती हैं। कबीर के वाणी को शादी के लिए प्रोपोस करते ही दोनों का इश्क़ भी इन्हीं शर्तों का बोझ लादे सफ़र करने लगता है, तब तक जब तक कि वाणी को यह अहसास नहीं हो जाता कि इश्क़ को किसी मुक़ाम तक पहुँचाने की ज़रूरत नहीं होती, इश्क़ अपने आप में एक मुक़ाम होता है।
कहानी में वाणी और कबीर के साथ ही कई और किरदार भी सफ़र कर रहे हैं जिमें सबसे अहम है दोनों का कॉमन फ्रेंड अभिषेक, जो वाणी की शर्तों के वेताल में कहीं न कहीं उतरा हुआ है। कबीर, वाणी और अभिषेक का यह त्रिकोण यश चोपड़ा की किसी भी फिल्म के लव-ट्रायंगल से कहीं अधिक दिलचस्प और इन्ट्रीगिंग (रोचक) है। पात्रों का चित्रण भी बहुत खूब है। कहानी के लगभग हर अहम किरदार की तस्वीर आपकी आँखों के सामने आ खड़ी होती है। कहानी की गति भी अच्छी है। 272 पन्नों की इस किताब को पढ़ते हुए कहीं भी कोई ब्रेक देने का मन नहीं करता। छोटी-मोटी खामियों के बावजूद, कहानी के फ्रंट पर शकील भाई को पूरे सौ नंबर देने का मन करता है।
मगर इस किताब में जो बातें मुझे खटकीं उनमे सबसे पहले है प्रूफ़ की कई गलतियाँ जो कई जगह एक दिलचस्प कहानी की रवानगी को तोड़ती हैं। दूसरी बात जो मुझे लगी वह यह कि भाषा और शैली पर थोड़ी और मेहनत होनी चाहिए थी, या फिर थोड़ी कम ताकि यह न लगे कि उसे एक साहित्यिक रूप देने की कोशिश हो रही है, जिसमें वह पूरी तरह खरी नहीं उतर रही। शकील भाई यदि भाषा और शैली में थोड़ी और महारत हासिल कर लें तो वे हिंदी के अग्रणी लेखकों की लिस्ट में आसानी से आ खड़े हो सकते हैं और या फिर सादगी से सिर्फ कहानी कहने पर ध्यान दें तो भी किस्सागोई का उस्ताद बनने की सारी सम्भावनाएँ उनमें दिखती हैं।
खैर, यदि आप एक रोचक और इंट्रीगिंग कहानी पढ़ना चाहते हैं तो शर्तिया इश्क़ ज़रूर पढ़ें। किताब उठाने के बाद उसे ख़त्म किये बिना रखने का आपका दिल नहीं चाहेगा। शकील भाई को ‘शर्तिया इश्क’ के लिए बहुत-बहुत मुबारकबाद। आगे भी ऐसा ही और इससे बेहतर भी लिखते रहें, इस उम्मीद के साथ।
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(यह पुस्तक टिप्पणी साहिंद में जून 18 2018 में प्रकाशित हुई थी। )