विवरण:
पृष्ठ संख्या: 50 | प्रकाशक: रेमाधव पेपरबैक्स | अनुवादक: बृजबिहारी चौबे | संग्रह: वाह बारह
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
डॉक्टर मुंशी शहर के जाने माने मनोचिकित्सक थे। कई मरीजों का उन्होंने सफलतापूर्वक इलाज किया था।
पर अब उनके उन्हीं मरीजों में से कुछ उन्हें धमकी दे रहे थे।
उन्होंने अपनी डायरी प्रकाशित करने का फैसला जो किया था। ऐसी डायरी जिससे हो सकता था कि उनके इन मरीजों, जिनकी आज के समय में समाज में बड़ी इज्जत थी, की कमाई इज्जत पानी में मिल जाती।
उन्होंने फेलूदा को इस मामले पर लगाया था और जब लगने लगा था कि सब कुछ ठीक हो गया है तो उनका क़त्ल हो गया और उनकी डायरी गायब हो गयी।
आखिर किसने किया था उनका क़त्ल? उनकी डायरी कहाँ गायब हो गयी थी?
क्या फेलूदा, तोपशे और जटायु उर्फ लाल मोहन गांगुली की तिकड़ी इसका पता लगा पायी?
टिप्पणी
‘डॉक्टर मुंशी की डायरी’ लेखक सत्यजित राय की लिखी उपन्यासिका है। उपन्यासिका प्रथम बार संदेश पत्रिका में 1990 में प्रकाशित हुई थी।
उपन्यासिका रेमाधव पब्लिकेशंस द्वारा प्रकाशित संग्रह ‘वाह बारह’ (वाह बारह के विषय में टिप्पणी यहाँ क्लिक करके पढ़ें) में संकलित किया गया है। संग्रह के आखिर में यह उपन्यासिका आती है। उपन्यासिका का अनुवाद बृजबिहारी चौबे द्वारा किया गया है।
यह उपन्यासिका एक ‘हु डन इट‘ (एक ऐसी अपराधकथा जिसमें डिटेक्टिव को संदिग्धों के समूह में से असली कातिल का पता लगाना होता है) है। इसे किशोर पाठकों को ध्यान में रखकर लिखा गया है। छोटे-छोटे नौ अध्यायों में उपन्यासिका की कहानी विभाजित है।
उपन्यासिका में डॉ मुंशी हैं जो कि एक जाने माने मनोचिकित्सक हैं। कहानी इन्हीं के इर्द गिर्द बुनी गयी है। जब एक बड़े प्रकाशक द्वारा उन्हें उनकी डायरी के प्रकाशन का ऑफर मिलता है तो वह उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। पर इस खबर के छपने के बाद से उनके कुछ मरीज उन्हें ये काम न करने की धमकी देते हैं। वह फेलूदा को इनमें से दो लोगों से बात करने हेतु रखते हैं। फेलूदा इन लोगों से बात करता भी है लेकिन इसके बावजूद डॉ मुंशी का कत्ल हो जाता है। वहीं उनकी विवादात्मक डायरी भी गायब हो जाती है।
अब यह कत्ल किसने किया और डायरी कहाँ गयी यही फेलूदा को पता लगाना है। वह किस तरह से संदिग्धों के बीच में से असल कातिल तक पहुँचता है और इस दौरान किस किस किरदार के क्या क्या राज उजागर होते हैं यही इस उपन्यासिका की कथा वस्तु बनती है।
यह एक पठनीय रहस्यकथा है। लेखक द्वारा कातिल के रूप में प्रयाप्त संदिग्ध रखे हुए हैं। एक सफल आदमी के आस पास अक्सर उसके रिश्तेदारों के रूप में कुछ असफल लोगों का जमघट भी होता है। ये लोग भले ही उस सफल व्यक्ति को पसंद न करें लेकिन उसके साथ रहने के लिए वो विवश से होते ही हैं। ऐसा ही डॉ. मुंशी के साथ भी रहता है।
डॉ मुंशी के घर में भी पाँच लोग हैं जो कि मुंशी के आस-पास रहते हैं। उनके डॉ मुंशी के साथ अलग-अलग तरह के समीकरण करे हैं। साथ में वो वो लोग भी हैं ही जिनके विषय में मुंशी लिखने वाले थे। ऐसे में हत्या किसने की यह पता लगाना थोड़ा मुश्किल होता है। कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है शक के घेरे में ये संदिग्ध आते हैं। इन लोगों के अपने राज़ हैं जो उन्हें शक के घेरे में ले आते हैं। तहकीकात से कैसे यह राज़ निकलते हैं यह कथानक की रोचकता बरकरार रखता है।
उपन्यासिका में दो रहस्य हैं: एक तो कातिल कौन है और डायरी किसने चुराई। दोनों ही रहस्य जानने के लिए आप रचना पढ़ते चले जाते हो। लेखक अंत तक कातिल की पहचान छुपाकर रखने में कामयाब रहते हैं।
फेलूदा शृंखला के उपन्यासों की खास बात जटायु उर्फ लाल मोहन गांगुली भी होते हैं। वह इन रचनाओं में हास्य के तत्व लाते हैं। इस उपन्यासिका में भी वो मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी दृश्य में हास्य पैदा करने का काम करती है। फिर फेलूदा द्वारा उनकी परीक्षा लेना हो या उनका संदिग्धों के प्रति विचार जानना हो। ये सब पढ़ते हुए चेहरे पर एक तरह की मुस्कान आ ही जाती है।
उपन्यासिका बांग्ला से हिंदी में अनूदित है। काफी हद तक अनुवाद अच्छा हुआ है। बस एक प्रसंग ऐसी है जिसमें अनुवाद खटकता है। कहानी में आखिर में एक प्रसंग आता है जिसमें फेलू तोपशे से विसर्जन, नेमेसिस और ऐसे ही किसी एक और वाक्यांश पर बातचीत करता है। हो सकता है इसका जिक्र एक संदिग्ध द्वारा इस प्रसंग से पूर्व फेलू को किये गए फोन कॉल में रहा हो लेकिन ये बात साफ नहीं होती है कि फेलू क्यों इन शब्दों का जिक्र करता है। मुझे लगता है बांग्ला में कुछ ऐसा रहा होगा जो कि या तो हिंदी अनुवाद में आया नहीं है या फिर उसका अनुवाद ढंग से नहीं हुआ है। इस कारण ये सीन जितना प्रभावशाली बन सकता था उतना नहीं बन पाया है। सीन मामले को साफ करने के बजाय उलझाता अधिक है। अगर पुस्तक के संपादक अगर ये त्रुटि पकड़ लेते तो बेहतर होता।
मुझे लगता है इस प्रसंग में हिंदी के अनुरूप बदलाव किया होता तो समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती। अभी ये रचना की कमजोर कड़ी बनी है।
इसके अतिरक्त किशोरों के लिए लिखी रचना में मुख्य किरदार द्वारा सिगरेट पीना और एक किरदार द्वारा बीयर पीने का जिक्र करना मुझे थोड़ा सा खटका था। इन चीजों के न होने से भी कहानी में इतना फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे में यह न होते तो बेहतर होता। ऐसा हो सकता है कि उस समय यानी 1990 में आम रहा होगा पर आज शायद ही सम्पादकीय कैंची से यह चीजें बच पाएँ।
अंत में यही कहूँगा कि ‘डॉ मुंशी की डायरी’ एक पठनीय रहस्य कथा है। अगर आपको फेलूदा शृंखला के उपन्यास पसंद आते हैं तो ये भी पसंद आएगा। अगर आप वयस्कों के लिए अपराध कथा पढ़ते हैं तो हो सकता है आपको यह थोड़ा सरल लगे लेकिन जब ये लिखी गयी थी उस कालखंड के हिसाब से पढ़ेंगे तो इसका अधिक लुत्फ ले पाएँगे।
पुस्तक लिंक: अमेज़न