उपन्यास मई 16,2017 से मई 25,2017 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : हार्डबेक
पृष्ठ संख्या : 160
प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन
आईएसबीएन : 9788170283096
पहला वाक्य :
त्यागपत्र देने का निश्चय मैंने अचानक ही किया था।
मनोज सक्सेना एक जूनियर हिंदी शिक्षक है। वो न अपनी नौकरी से खुश है और न हाल ही मैं हुई अपनी शादी से। एक अधूरापन है जो उसे अन्दर से सालता रहता है और इसका कारण क्या है उसके समझ में नहीं आ रहा है। जितना वो समझ चुका है उसके हिसाब से इधर की नौकरी और शादी उसे वो संतुष्टि नहीं दे पायी है जिसकी की उसने कल्पना की थी। इसलिए आखिर वो निर्णय लेने की सोचता है। वो इन दोनों को ही छोड़ने का मन बना लेता है। क्योंकि उसकी पत्नी शोभा अभी उधर नहीं है तो पहले वो नौकरी से ही त्यागपत्र देने का निर्णय लेता है।
त्यागपत्र देने के बाद से स्कूल छोड़ने तक का हाल इस उपन्यास की विषय वस्तु है। उसके त्यागपत्र से स्कूल के बाकी शिक्षक क्या कयास लगते हैं? स्कूल की राजनीति में क्या फर्क पड़ता है? और स्कूल में मौजूद शिक्षकों का असल जीवन कैसा है? ये सब पाठक के समक्ष प्रस्तुत होता है।
अमेज़न की माने तो इस उपन्यास को १ मार्च २०१५ को खरीदा था, यानी कि अब से दो वर्ष पहले। मुझे हैरत नहीं है कि इसको पढने का अवसर दो वर्ष बाद आया है। ऐसी कई उपन्यास खरीदकर रखे हुए हैं। खैर, अब तो ये कह सकते हैं देर आयद दुरुस्त आयद। मोहन राकेश जी के नाटको का मैंने बहुत नाम सुना था लेकिन उनका लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा था। ये उनकी पहली कृति है जिसे पढ़ा।
उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास का मुख्य किरदार मनोज सक्सेना एक द्वन्द से गुजर रहा है। उसे पता नहीं है उसे जीवन में क्या चाहिए। वो अपनी नौकरी से खुश नहीं है। उसकी शादी को कुछ महीने हुए हैं लेकिन वो यह बात समझ चुका है कि न वो और न उसकी पत्नी ही एक दूसरे से खुश हैं। पूरे उपन्यास के दौरान उसे ये लगता है कि ये नौकरी और शादी ही है जो उसका दम घोंट रही है। लेकिन जब वो त्यागपत्र दे देता है तब भी उसे वो ख़ुशी हासिल नहीं होती है जिसकी उसने कल्पना की थी। उसके अन्दर की उलझन अंत तक जस की तस बरकरार रहती है।
मनोज सक्सेना के माध्यम से हम स्कूल के अन्य शिक्षकों से भी रूबरू होते हैं। हमे अंदरूनी राजनीति का पता चलता है। उनके आपस के इकुएशंस का भी पता चलता है। लेकिन एक बात मुझे हैरत में डालने वाली थी। जितने भी किरदार इस उपन्यास में आते हैं वो पूरे उपन्यास के दौरान कभी भी खुश नहीं दिखते हैं। सब अपनी अपनी जिंदगियों में फंसे हुए दिखते हैं। ये बात मुझे अटपटी लगी। इतने किरदारों में से एक भी खुश नहीं है ये कैसे हो सकता था?
मनोज के मन की स्थिति कई बार मुझे अपने जैसे लगी। कई बार मेरे मन में भी अपनी नौकरी को लेकर या अपनी अभी की ज़िन्दगी को लेकर ऐसे ख्याल आते हैं कि कुछ अधूरा है या मैं फंसा हुआ हूँ। ये विचार कभी कभी ही आते हैं। इसलिए उपन्यास पढ़ते हुए मैं ये उम्मीद कर रहा था कि मनोज को उस ख़ुशी का एक हिस्सा या कम से कम वो रास्ता तो मिले जिसकी उसे तलाश है। लेकिन अफ़सोस ऐसा हुआ नहीं। हाँ, हमे ये जरूर पता चल गया कि जो कारण उसने सोचे थे उसके अन्दर मौजूद द्वन्द के शायद वो असल कारण नहीं थे।
सच बताऊँ तो मुझे उपन्यास को पढ़कर एक अधूरेपन का एहसास हुआ। मैं जानना चाहता था कि मनोज का क्या हुआ? शोभा का क्या हुआ? उपन्यास के अंत में आप एक क्लोजर की उम्मीद करते हैं लेकिन इधर मुझे वो नहीं मिला। अगर रहता तो अच्छा रहता।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको ये कैसा लगा? अगर आपने इसे नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से मंगवा सकते हो :
अमेज़न
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