विश्वास की हत्या और जुए की महफिल – सुरेन्द्र मोहन पाठक

यह किताब अक्टूबर 5 2018 से अक्टूबर 11 2018 के बीच पढ़ी गई


संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या:  248
प्रकाशक: वेस्टलैंड
आईएसबीएन: 9789387578067
प्रथम प्रकाशन:1983

पाठक साहब के उपन्यास का यह नवीन संस्करण है। इस किताब में पाठक साहब के उपन्यास विश्वास की हत्या के साथ साथ एक लघु कथा जुए की महफिल भी है। इस पोस्ट में मैं दोनों के विषय में बात करूँगा।

विश्वास की हत्या - सुरेन्द्र मोहन पाठक
विश्वास की हत्या – सुरेन्द्र मोहन पाठक

विशवास की ह्त्या

पहला वाक्य:
वह कैन्टीन इरविन हस्पताल के कम्पाउंड के भीतर मुख्य इमारत के पहलू में बनी एक एकमंजिला इमारत में थी जिसकी एक खिड़की के पास की टेबल पर बैठा गुलशन चाय चुसक रहा था और अपने दो साथियों के वहाँ पहुँचने का इन्तजार कर रहा था। 

वह एक आसान योजना थी। गुलशन के अनुसार वह एक ऐसा फूलप्रूफ प्लान था जिसके कामयाब होने पर उनकी झोली में बीस बीस लाख की रकम आसानी से आ सकती थी। उसकी योजना ऐसी थी कि उसके साथी सूरज और जगदीप उसका साथ देने के लिए तैयार हो गये थे। बस शर्त एक थी कि तीनों को एक दूसरे के विश्वास का ख्याल रखना था।

लेकिन फिर किसी ने इस विश्वास की हत्या कर दी। और शुरू हुआ सिलसिला भागने का। 

अब उनके पीछे पुलिस लगी थी, उनके पीछे अंडरवर्ल्ड के गुंडे लगे थे और वे लोग भागने के सिवा कुछ नहीं कर सकते थे। आगे कुआँ था और पीछे खाई थी।

आखिर क्या प्लान था इनका? किसने की इनके विश्वास की हत्या?  और इनका अंजाम क्या हुआ?

इस सब प्रश्नों का उत्तर आप इस उपन्यास को पढकर ही जान पायेंगे।


मुख्य किरदार:
गुलशन – एक अट्ठाईस वर्षीय युवक जो इन दिनों बेरोजगार था
जगदीप – गुलशन का एक दोस्त था जिसके पिताजी की ताले की दूकान थी और वह भी बेरोजगार था
सूरज  – गुलशन और जगदीप का दोस्त था जो कि कभी पहलवानी के सपने देखता था
राजेश्वरी देवी – एक अमीर औरत
शौकत अली अंसारी – दिल्ली का एक जाना माना डायमंड कटर
चन्द्रा – गुलशन की बीवी
मोहिनी – एक लड़की जिसे सूरज पसंद करता था
दारा – दिल्ली का बड़ा गुंडा
श्रीकांत – चन्द्रा का यार
भजनलाल – अस्सिस्टेंट कमिश्नर ऑफ़ पुलिस
इंस्पेक्टर चतुर्वेदी – पुलिस इंस्पेक्टर
दामोदर – जगदीप का  पड़ोसी
डेज़ी – जगदीप के मोहल्ले में रहने वाली लड़की जिसे जगदीप पसंद करती थी
मदन – दामोदर का दोस्त
मिस्टर स्वामीनाथन – न्यू इंडिया इंश्योरेंस के मैनेजर
रईस अहमद – दारा का साथी
इंस्पेक्टर भूपसिंह – एक पुलिस इंस्पेक्टर
शंकर – जगदीप का पड़ोसी
गर्टी – एक विदेशी युवती

अंग्रेजी में एक कहावत है-   ऑनर अमंग थीव्स यानी बेमानी के काम में भी ईमानदारी जरूरी है। ऐसा माना जाता है कि चोरों के बीच में विश्वास का होना बहुत जरूरी है। अगर ऐसा नहीं होगा तो आपस में शक उपजेगा ,उनका काम गुप्त नहीं रहेगा और इन सब बातों का उन्हें खामियाजा उठाना पड़ेगा। इस उपन्यास का कथानक भी इसी विश्वास के ऊपर रचा गया है।

 गुलशन ने जब सूरज और जगदीप को अपनी योजना में शामिल करने की सोची थी तो उसने उनसे वादा लिया था कि तीनो एक दूसरों के साथ ईमानदार रहेंगे। पर फिर किसी ने धोखा किया और ऐसे घटनाक्रम की शुरुआत हुई जिसके चलते इन तीनों के जान के लाले पड़ गये।

उपन्यास का घटनाक्रम मुश्किल से एक हफ्ते का है। उपन्यास के शुरुआत से ही कथानक में रोमांच आ जाता है और यह रोमांच अंत तक बना रहता है। कहते हैं अपराधी जैसे भी योजना बना ले लेकिन कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है जो कि उनके काम की खटिया खड़ी कर देता है। यही बात इसी कथानक को पढ़ते हुए दृष्टिगोचर होती है। उनके आसान काम में पहले परेशानियाँ आती है और फिर छोटी छोटी गलतियों के कारण वो अपने ही बने जाल में फँसते चले जाते हैं। पाठक के रूप में आपको पता रहता है कि तीनों का अंत कैसे होगा लेकिन जिस तरह से वह अपने अंत तक पहुँचते है वो आपको पन्ने पलटने को मजबूर कर देते हैं। आप पन्ने पलटते जाते हैं और रोमांच में डूबे तब ही जाकर रुकते हैं जब उपन्यास का आखिरी पृष्ठ आप पलटते हैं।

उपन्यास मुझे पसंद आया और इसने अंत तक मेरा मनोरंजन किया। उपन्यास के मुख्य कथानक के साथ हर मुख्य किरदार के जीवन में अलग अलग छोटे छोटे कथानक चलते रहते हैं। ये छोटे कथानक भी अपने आप में रोचक है।  हर एक किरदार किसी न किसी के विश्वास की हत्या करता है और किसी के द्वारा उसके विश्वास की हत्या हो रही होती है। यह सब बातें मिलकर किताब की पठनीयता को कई गुना बड़ा देते हैं।

उपन्यास के सारे किरदार यथार्थ के निकट हैं। कहीं भी अतिश्योक्ति नहीं है। हाँ , एक बात मुझे खटकी थी। उपन्यास में एक प्रंसग है जिसमें एक किरादर किसी को फँसाने के लिए ऐसा कुछ करता है कि जिसमें वो किसी के चेहरे पर अपनी उँगलियों के नाख़ूनों से खरोच बनाता है और किसी के द्वारा अपनी छाती पर खरोच बनवा देता है। यहाँ वो यह भूल जाता है कि अगर पुलिस दोनों को मैच करेगी तो क्या उसे अंदाजा नहीं लगेगा कि दोनों अलग अलग लोगों के द्वारा किये गये हैं। यह वो नहीं सोचता है। इस कारण वह फँसते फँसते बचता है। वैसे तो मैं आये दिन ऐसी खबरे पढ़ता रहता हूँ जिसमें असल में कई अपराधी बेवकूफियाँ करते हैं। इस बेवकूफी को भी उसमें शुमार किया जा सकता है लेकिन चूँकि मुझे खटका तो मैंने इस बात को इधर बताना जरूरी समझा।

आखिर में यही कहूँगा उपन्यास मुझे काफी पसंद आया और अगर आप रोमांच से भरपूर उपन्यास पढ़ने के शौक़ीन हैं तो आपको यह निराश नहीं करेगा।

मेरी रेटिंग: 4/5

जुए की महफ़िल – सुरेन्द्र मोहन पाठक 

पहला वाक्य:
 मैं कोई जुआरी नहीं लेकिन कभी-कभार  तीज त्यौहार में ताश खेल लेने से परहेज नहीं करता।

 वह एक आम जुए की महफ़िल थी।  कथावाचक के बचपन के दोस्त शामनाथ और बृजकिशोर के इसरार पर उसने इस महफ़िल में शामिल होना स्वीकार किया था। इस महफ़िल में उन दो लोगों के अलावा खुल्लर और कृष्ण बिहारी भी शामिल थे। यह एक सामान्य सी बात थी जो तब असामान्य बन गई जब अगले दिन एक अरविन्द कुमार नामक जुआरी के कत्ल की खबर कथावाचक ने पढ़ी।

फिर कथावाचक को इंस्पेक्टर अमीठिया ने अपने हेडक्वार्टर बुलाया तो उसने अपने साथियों को उधर पाया। इंस्पेक्टर का कहना था कि उसे उन चारों पर इस क़त्ल में शामिल होने का शक था जबकि चारों का कहना था कि वे लोग कथावाचक के साथ जुआ खेलते रहे थे।

कथावाचक का कहना भी यही था कि पूरी रात चारों कथावाचक के साथ जुआ खेल रहे थे।

अगर ऐसा था तो कत्ल किसने किया था?  इंस्पेक्टर को उन चारों पर शक क्यों था? क्या कातिल पकड़ा गया?

इन सब प्रश्नों के उत्तर तो इस कहानी को पढ़कर ही पता चलेंगे।

प्रस्तुत कहानी विश्वास की हत्या के नवीन संस्करण के साथ छपी है तो मैंने सोचा कि इसके विषय में इसी पोस्ट में लिखना बेहतर है। कहानी प्रथम पुरुष में है। कहानी के नायक पाठक साहब ही हैं और वो अपनी एक जुए की महफिल का अनुभव बता रहे हैं। कहानी रोचक है। महफिल में शामिल लोगों में से किसी ने कत्ल किया है लेकिन यह कत्ल हुआ कैसे है यही रहस्य है। इसी रहस्य की गुत्थी सुलझाने पाठक साहब निकलते हैं और आगे क्या होता है यह कहानी का कथानक बनता है।

कहानी पठनीय है पर कहानी में आखिर में एक  बिंदु था जो मुझे खटका। इधर बस इतना कहूँगा कि अगर किसी को कहीं शूट किया जाता है तो उधर गोली भी मिलेगी और उस जगह के हालात ऐसे होंगे जहाँ कत्ल होने के सबूत मिल ही जायेंगे। पर पुलिस इस बात पर ज्यादा तरजीह नहीं देती है। अगर इस बात को ध्यान में रखा जाता तो वो खुद ही गुत्थी को सुलझा सकते थे। लेकिन इधर शायद जान बूझकर ऐसा नहीं किया गया और इसलिए कहानी मुझे थोड़ी कमजोर लगी। अगर इस बिंदु का कुछ वाजिब कारण दिया होता तो बेहतर होता। इधर अगर कत्ल किसी और तरीके से हुआ भी दर्शाया होता तो भी बेहतर रहता। ऐसे में आसानी से बात कथानक में फिट बैठ सकती थी।

खैर, पाठक साहब कहानी को फिलर की तरह इस्तेमाल करते हैं तो शायद उसके सभी पक्षों पर इतना जोर नहीं देते होंगे। कहानी में ऊपर लिखी एक ही बात मुझे खटकी थी। इसके अलावा कहानी मुझे अच्छी लगी।

मेरी रेटिंग: 2.5/5

अगर आपने इस किताब को पढ़ा है तो आपको यह कैसी लगी? अपने विचारों से मुझे टिप्पणी के माध्यम से अवगत करवाईयेगा। अगर आप इस किताब को पढ़ना चाहते हैं तो इसे निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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6 Comments on “विश्वास की हत्या और जुए की महफिल – सुरेन्द्र मोहन पाठक”

  1. वाह बढ़िया,और बहुत ही तफ्सील से रिव्यु लिखा है आपने। नावेल का कथानक बहित ही शानदार है, fb पर कई मित्र ख़ास इस नावेल के दीवाने है एक मित्र ने तो बताया कि वो 25 बार पढ़ चुके है इसको।

    1. जी सर उपन्यास बार बार पढ़े जाने लायक है। रोमांच शुरू होता है तो आखिर में जाकर ही खत्म होता है। उपन्यास में कहीं भी कोई डल मोमेंट नहीं है।

  2. संयोग से कुछ दिन पहले मैंने भी इस उपन्यास को पढ़ा है.kindle पर मात्र 19 रू में मिल गई तो ख़रीद लिया. मुझे भी पसंद आई. ये नाखून वाली बात मुझे भी खटकी थी. जुए की महफ़िल कमजोर कहानी लगी मुझे.
    अच्छी समीक्षा लिखी आपने.

    1. शुक्रिया, शोमेश जी। उपन्यास वाकई अच्छा था। हाँ, कहानी के कई पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया गया तो मुझे भी कमजोर लगी थी।

      ब्लॉग पर आते रहियेगा और अपने विचारों से अवगत करवाते रहिएगा।

  3. अच्छी समीक्षा है |नॉवेल भी ले रखा है | पर बुक्स इतनी हो गई है की जो सोचते है उन नॉवेल का पढ़ने का नम्बर लग ही नही पाता | पढ़नी तो सभी है |

    1. जी ये परेशानी मुझे भी होती है। जो भी सोचता हूँ पढ़ूँगा उसे छोड़कर बाकि पढ़ने लग जाता हूँ। अब तो मैंने ऐसा सोचना ही छोड़ दिया है। जो मन करता है उठाता हूँ और पढ़ डालता हूँ।

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